जीहाँ, यही रवैया है हमारे यहाँ के अधिकतर नवीं कक्षा के छात्रों का जब उन्हें यह निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी जाती है कि वे संस्कृत और हिन्दी में से किसी एक का चुनाव कर सकते हैं जिसकी परीक्षा वे दसवीं के बोर्ड में देना चाहते हैं। ज्यादातर छात्र बेहिचक संस्कृत का चुनाव करते हैं, सिर्फ़ इस लिए कि हिन्दी की तुलना में संस्कृत में अधिक अंक आ जाते हैं। क्या वाकई ऐसा है?
सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता, संस्कृत के अंक हिन्दी के अनुपात में ज्यादा आते हैं, पर क्या यह हिन्दी का दोष है? जहाँ तक मेरा मानना है, संस्कृत के मुकाबले हिन्दी अधिक सरल है, इसमें ज्यादा अंक मिलने चाहिए। लेकिन हमारे ख़ड़ूस हिन्दी के परीक्षक अत्यधिक कंजूसी से अंक देते हैं जबकी संस्कृत के परीक्षकों की उदारता तो अद्वितीय है जो की ऐसे उत्तरों को पूरे अंक देते हैं जो कि पुस्तक की हूबहू नकल होते हैं और जिसे परीक्षार्थी ने समझ कर नहीं वरन मात्र रट कर टीप दिया। व्याकरण में तो पूरे अंक मिलते ही हैं पर लेख़न आदि में भी? क्यों हिन्दी परीक्षक इस सरल भाषा को छात्रों के लिए एक दुःस्वप्न बना रहे हैं? हिन्दी की ऐसी दुर्दशा हो गई है कि हमारी मातृभाषा की औकात हमारे ही देश में एक गली के कुत्ते जैसी होती जा रही है। जब स्कूल में ही बच्चे हिन्दी के प्रति उदासीन हो जाएँगे तो बड़े होकर वे क्या करेंगे? क्या व्याजोक्ति है कि जिस भाषा को बच्चे दिन रात निरंतर बोलते हैं उसी को वे पढना नहीं चाहते!!
यदी बात यहाँ तक ही सीमित रहती तो अलग बात थी, पर हालात यह हैं कि देसी अंग्रेज़ों की ऐसी नई खेप तैयार हो रही है जिसे अपने हिन्दुस्तानी माता-पिता से हिन्दी में बात करने में तकलीफ़ होती है। और तो और, ये देसी अंग्रेज़ बाज़ार में अनपढ सब्ज़ी वाले तक से हिन्दी में बात करने में अपना अपमान समझते हैं और उससे अंग्रेज़ी में बात करते हैं!! जी हाँ, ऐसा हो रहा है और वह भी भारत की राजधानी नई दिल्ली में। अंग्रेज़ चले गए पर अपनी नाजायज़ औलादें छोड़ गए। और इन देसी अंग्रेज़ों की पैदावार के लिए जिम्मेदार कौन है? जाहिर है कि इसमें पहला दोष तो आधुनिक माता-पिताओं का है जो कि अपने बच्चों का हमारी संस्कृती से परिचय कराने की अपेक्षा उसका बलात्कार कर रहे हैं। दूसरे क्रमांक पर दोषी हैं तथाकथित अच्छे विद्यालयों में पढाने वाले असमाजिक शिक्षक जो कि विद्यार्थीयों को प्रेरित करते हैं कि वे विद्यालय के बाहर भी, अपने घर, बाज़ार इत्यादी में भी हिन्दी कि अपेक्षा अंग्रेज़ी का प्रयोग करें। उनका उद्देश्य छात्रों की अंग्रेज़ी बोलने की क्षमता को उन्नत करना होता है, जो कि अच्छी बात है पर इसका तात्पर्य क्या यह है कि हिन्दी का प्रयोग बिलकुल बन्द कर दिया जाए? अभ्यास के अभाव में तो बड़े से बड़े महारथी की योग्यता को जंग लग जाता है और हम तो उन कलियों की बात कर रहे है जिन्हे अभी ख़िलना है।
पर इसके अलावा, देसी अंग्रेज़ों की बहुतायत पैदावार स्वयंमेव हुई है, जिसे अंग्रेज़ी में सेल्फ़-डेवलपमेंट कहा जाता है!! 😉 अब प्रश्न यह है कि यह पैदावार कैसे हुई और इसका कारण क्या है। तो श्रीमान, इसका करण है अहं। जी हाँ अहं, जो कि कम-ज्यादा हर किसी में होता है। यदि हम किसी को अपने आस पास अंग्रेज़ी में बात करता देख़ लेते हैं तो उसकी अंग्रेज़ी हमारे अहं की अग्नि में घी का कार्य करती है और उसे हमारी अंग्रेज़ी ही शीतलता प्रदान कर पाती है। कहने का तात्पर्य है कि अंग्रेज़ी में बोलना पढे-लिख़े होने के पहचानपत्र का कार्य करती है और सामने वाला प्रभावित भी होता है!!
यदी यह कहा जाए कि अंग्रेज़ी ने हमारी हिन्दी को भ्रष्ट कर दिया है तो अतिश्योक्ती न होगा। यदी मेरा ही उदाहरण लिया जाए तो मैं सिर्फ़ यही कहूँगा कि पहले मैं हिन्दी के किसी शब्द का अंग्रेज़ी में अनुवाद ढूँढता था और आजकल अंग्रेज़ी शब्दों का हिन्दी अनुवाद ढूँढता हूँ। 😉
यदि हालात ऐसे ही रहे तो जल्द ही लोग अंग्रेज़ी की जगह हिन्दी बोलने की कोचिंग ले रहे होंगे!!
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