हाँ, आपने सही पढा, मैंने ‘सत्यमेव जयते’ नहीं बल्कि ‘स्वयमेव जयते’ कहा। और क्या अनुचित कहा? और यह कोई नई बात भी नहीं है, सदियों से हम देखते आ रहे हैं कि हमारे तथाकथित नेता अपने निजी स्वार्थ को जनहित से उपर मानते और निभाते आ रहे हैं। चाहे वे किसी राजनैतिक दल के नेता हों या किसी राज्य-रियासत के राजा महाराजा या नवाब, निजी स्वार्थ सदैव सर्वोपरि रहा है। प्रश्न उठता है ‘क्यों’। क्यों वे लोग भूल जाते (थे)हैं कि नेता या राजा ईश्वर का कोई रूप नहीं होता, वह जनसमुदाय का प्रतिनिधी होता है जिसका पहला कर्तव्य उन लोगों की ओर होता है जिनका वह प्रतिनिधित्व कर रहा होता है। परन्तु यह सब किताबी बातें हैं, उन लोगों के दृष्टिकोण के अनुसार वे विशेषाधिकृत होते हैं जिन्हें अपनी इच्छानुसार कुछ भी करने की स्वतंत्रता प्राप्त होती है। और साथ ही सदैव ही से इन लोगों को यह डर सताता रहा है कि कहीं कोई इनका सिंहासन या कुर्सी न छीन ले क्योंकि इनके अंतरमन में इन्हें इस बात का ज्ञान हमेशा रहा है कि वे गलत हैं। अब चाहे वह औरंगज़ेब हो या बहादुरशाह जफ़र, गांधी हो या नेहरू, लालू यादव हो या आज का कोई और नेता।

कोई व्यक्ति नीचता की कितनी ही हदें पार कर ले, उसके अंतरमन में कहीं न कहीं, किसी न किसी कोने में एक ऐसा दीप अवश्य प्रकाशमान होता है कि उसने जो कि उसके द्वारा किए गए सभी सही और गलत कार्यों का हिसाब रख़ता है और व्यक्ति को उसका निरंतर अहसास दिलाता रहता है। अब यह बात अलग है कि व्यक्ति का चरित्र जितना मटमैला होता है, उस दीप का प्रकाश उस तक उतनी ही कठिनता और विलंब से पहुँचता है, और साथ ही व्यक्ति का अपने पर जितना अधिक नियंत्रण होता है उतना ही वह उस प्रकाश को अपने से दूर रख़ने में सफल रह पाता है।

अब जिस तरह सिक्के के दोनो पहलू एक जैसे नहीं होते, उसी प्रकार ये नेता और उनके कर्म भी समान नहीं होते। कुछ थोड़ा नीचे गिरते हैं, कुछ ज्यादा नीचे गिरते हैं और कुछ तो इतना नीचे गिर जाते हैं कि उनका उठना ही नामुमकिन हो जाता है।

लेकिन…..

हाँ, यह ‘लेकिन’ अत्यधिक महत्वपूर्ण है। किसी की निंदा करना बहुत आसान है, और ऐसा करने से कोई भी नहीं चूकता, मैं भी नहीं। परन्तु सत्य यह है कि मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है कि वह पहले अपना हित देख़ता है और फ़िर कुछ और। नेता भी साधारण इंसान ही होते हैं, उनमें भी वही खामियाँ होती हैं जो बाकी इंसानों में होती हैं, और कदाचित कुछ अधिक मात्रा में होती हैं क्योंकि उनके पास ख़ोने के लिए अधिक होता है।

तो हम कैसे किसी नेता को किसी गलत कार्य के लिए दोषी ठहरा सकते हैं जब हमने स्वयं उस गलत कार्य के विरोध में या उसे सुधारने के लिए कुछ नहीं करा हो। एक पुरानी कहावत है कि चोर को जो चोरी करता देख़ कर भी चुप रह जाता है, वह भी उस चोरी में बराबर का भागीदार होता है। तो यदि औरंगज़ेब ने कत्लेआम मचा के तख़्त पे कब्ज़ा कर लिया था तो जिन्होने उसका विरोध किए बगैर उसे अपना बादशाह मान लिया, उन्हें उसकी निंदा करने का कोई अधिकार नहीं। गांधी के शहीदेआज़म भगत सिंह को न बचाने पर तथा स्वतंत्रता के समय भारत का बंटवारा होने पर किसी ने उनका विरोध न किया और उन्हें दोषी मानते हुए उसी क्षण दंड नहीं दिया, तो उनको भला बुरा क्यों कहा जाए? शायद आज मैं नत्थूराम गोडसे के दृष्टिकोण को समझ सकता हूँ कि उन्होंने गांधी की हत्या क्यों की। नेहरू का लोगों ने विरोध नहीं किया, उन्हें समझाने का प्रयत्न नहीं किया कि यदि वे कुर्सी का लोभ न करें तो बहुत बड़ा नरसंहार टल सकता है। जिन्नाह को किसी ने अक्ल से काम लेने को नहीं कहा, किसी ने मुस्लिम लीग के बड़े नेताओं को गोली से नहीं उड़ाया कि ऐसा अगर हो जाता तो हिन्दुस्तान में वो आग न लगती जिसने उसे दो में विभाजित कर दिया और आज भी जो सुलग रही है और न जाने कितने वर्षों तक सुलगती रहेगी। 1947 के दंगों के असली दोषी कौन हैं? पाकिस्तान निर्माण के सहायक कौन हैं? किसने इतनी लंबी दुश्मनी मोल ली जिसकी आग कई पीढियों का लहु पीने के उपरांत भी शांत नहीं हुई है? और आज के भ्रष्ट नेताओं और उनके भ्रष्टाचार का जिम्मेदार कौन है?

हम सभी इसके उत्तरदायी हैं क्योंकि हमने अपने स्वार्थों को अधिक महत्व देते हुए अपने कर्तव्यों का पालन नहीं किया। आम धारणा यह होती है कि यदि दूसरा अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर रहा तो हम क्यों करें और अकेला चना क्या भाड़ फ़ोड़ लेगा!! हम इन प्रश्नों के उत्तर जानते हैं पर स्वीकार नहीं कर पाते। जब हम अपने घर की ही गंदगी साफ़ नहीं कर सकते तो बाहर की कैसे करेंगे। और इस सबका एक ही कारण है, हमारा निजी स्वार्थ आड़े आ जाता है।

स्वयमेव जयते…..