गतांक से आगे …..

चोपटा की ओर जाते समय मार्ग में एक से बढ़कर एक नज़ारे देखने को मिले। सुबह का समय था, कहीं कहीं हल्की धूप पड़ रही थी और सुहावना मौसम था। मन ही नहीं कर रहा था कि कहीं जाएँ, बस एकटक बैठे प्रकृति की सुन्दरता को निहारते रहें।



आखिरकार हम चोपटा पहुँच ही गए। सुबह के लगभग साढ़े नौ बजे थे और आस पास ऊपर देखने पर केवल धुंध एवं कोहरे के बादल ही दिखाई दे रहे थे। सामने के ढाबे पर हमको पिछली रात मिले अंकल एवं उनका परिवार बैठा दिखाई दिया, तो उनसे बचने के लिए साथी लोग दूसरी दुकान पर चाय के लिए चले गए। चाय आदि के बाद सभी चलने के लिए तैयार थे। ऊपर ठण्ड का मुकाबला करने के लिए हमने चॉकलेट आदि ली, मैंने ऊपर चढ़ने में सहायता के लिए एक डंडी ली और हम लोग अपनी 4 किलोमीटर की पैदल चढ़ाई पर निकल चले।


( तुन्गनाथ की चढ़ाई आरंभ करने का प्रवेश द्वार )


मैं केवल अपना स्लीपिंग बैग और कुछ दवाईयाँ लेकर ही चढ़ रहा था। स्लीपिंग बैग में ही एक जोड़ी गर्म कपड़े लपेट रखे थे। दूसरे साथी थोड़ा बहुत सामान लेकर चढ़ रहे थे। लड़कियों ने अपना मेकअप का सामान भी रख लिया था। 😉 परन्तु थोड़ी दूर जाते ही हाल बुरे हो गए। खड़ी चढ़ाई थी, रास्ता पूरा का पूरा पथरीला था, जिसे आदत ना हो उसके लिए चढ़ना वाकई कठिन कार्य था। ऊपर से मेरा स्लीपिंग बैग बार बार कंधे से फ़िसल रहा था। मोन्टू ने अपने बैग के साथ मेरा स्लीपिंग बैग पकड़ने का प्रस्ताव रखा और मैंने कृतज्ञतापूर्वक उसे स्वीकार कर लिया। लेकिन पसीने और एक दिन की बढ़ी शेव गर्दन पर चुभ रही थी जिस कारण गर्दन लाल हो गई थी तथा जलन हो रही थी। तो इसलिए टेलकम पाऊडर का एक छोटा डिब्बा जेब में रखा और थोड़ी थोड़ी देर बाद उसे लगाते हुए चल रहा था। जैसे जैसे ऊपर जाता जा रहा था, ऐसा लगता जा रहा था कि किसी भी समय हिम्मत जवाब दे देगी। इसलिए थोड़ी थोड़ी देर बाद रूक रूक कर एक टॉफ़ी मुँह में डालता और पानी का घूँट लेता तो जान में जान आती। एक किलोमीटर बाद चाय आदि का एक पड़ाव दिखा जहाँ पहुँचकर मोन्टू और स्निग्धा नें मैगी खाई तथा दूध की बनी बर्फ़ी ली जो कि वाकई स्वादिष्ट थी।


( चाय वाले की लड़कियों के साथ स्निग्धा )


चाय आदि पी सभी पुनः चल पड़े, अपन भी कुछ अनमने ढंग से चल पड़े। अब अपने आप पर गुस्सा आ रहा था कि क्यों तंदुरूस्त नहीं हैं कि सभी की तरह चढ़ाई कर सकें!! लेकिन फ़िर अपने को समझाया कि यह पहाड़ी चढ़ाई है जिसका अभ्यास नहीं है, इसी कारण चलने में दिक्कत है नहीं तो यदि समतल जगह होती, जैसे दिल्ली की सड़के आदि तो चलने में कोई दिक्कत नहीं थी। पर फ़िर अंतर्मन ने कहा कि बाकी लोग भी तो मेरी तरह अभ्यस्त नहीं है, फ़िर वे कैसे चले जा रहे हैं?? अब इसका उत्तर क्या देता!! काकन अपना आईपॉड कान में लगा सबसे आगे चली जा रही थी, मोन्टू उसके पीछे था और स्निग्धा मेरे साथ मेरा हौसला बढ़ाते हुए चल रही थी।


( ऊपर तुन्गनाथ की ओर जाता आगे का मार्ग )



( बादलों के उस पार जहाँ और भी है )


हौसले की डोर मज़बूती से पकड़े हम दूसरे चाय के पड़ाव पर पहुँचे। यहाँ बैठ चैन की साँस ली। चाय वाले से पता चला कि हम लगभग ढाई किलोमीटर आ गए हैं, यानि कि लगभग डेढ़ किलोमीटर की चढ़ाई और बाकी थी। पुनः हौसला बटोर हम चल पड़े अपनी मन्ज़िल की ओर। आखिरकार तकरीबन 5 घंटे बाद हम ऊपर तुन्गनाथ पहुँच गए। वहाँ पहली जो सराय दिखी उसी में चले गए। सराय के मालिक अंकल गढ़वाल राईफ़ल से सेवानिवृत्त फ़ौजी थे जिन्होंने 1962-1971 के दौरान चीन और पाकिस्तान से हुई लड़ाईयों में भाग लिया था। सभी साथी लोग थके मांदे थे, तुरंत कुर्सियों पर पसर गए और गर्म चाय का आनंद लेने लगे। उसके बाद मंदिर हो कर आने का निर्णय लिया, फ़ौजी अंकल ने चार पूजा की थालियाँ हम लोगों के लिए सजा दी थी। तो हम सामने मौजूद मंदिर की ओर हो लिए। यह मंदिर भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था।


( तुन्गनाथ – कदाचित्‌ भारत का सबसे ऊँचा मन्दिर )



( तुन्गनाथ )


एक पुजारी ने हमारी पूजा करवाई। पुजारी ने ही बताया कि तुन्गनाथ भी पांडवों द्वारा लगभग 5500 वर्ष पहले बनाया गया था। विश्वास या अविश्वास का कोई प्रश्न नहीं था, जिसको मानना है वो माने, जिसको नहीं मानना वो नहीं माने। हमें बिना ठोस तथ्यों के यकीन नहीं तो हम नहीं मानते। पूजा अर्चना के बाद पुजारी ने कहा कि सांय काल साढ़े सात बजे आरती होती है और यदि हम आ सकें तो आना चाहिए। अपने को तो ठण्ड लग रही थी, वापस सराय में आकर गर्म कपड़े पहने, लेकिन ध्यान आया कि अपनी जैकेट तो नीचे गाड़ी में ही भूल आया था!! 🙁 खैर, अपना स्लीपिंग बैग खोल उसमें घुस गए और रजाई ओढ़ ली तो थोड़ा चैन पड़ा। तभी गर्मा-गर्म पकौड़े बन कर आ गए और उनका भोग लगाया गया। लेकिन सारी गड़बड़ यहीं हो गई। जिस तेल में पकौड़े बने थे, वह रास नहीं आया और तबियत खराब सी लगी। सिर पर कंबल लपेट अपन तो स्लीपिंग बैग में सो गए, बाकी लोग आरती में भी हो आए और सांय काल सूर्यास्त का अदभुद नज़ारा भी देखा, लेकिन अपन बाहर नहीं आए। परन्तु हमारे लिए कुछ सुन्दर तस्वीरें ले ली गई ताकि हम देख सकें कि हमने कैसा नज़ारा “लाईव” नहीं देखा। आप भी देखिए:


( तुन्गनाथ से देखा संध्याकाल )



( अस्त होते सूर्य की लाली )


लेकिन रात्रि होते होते तबियत और खराब लग रही थी। उल्टी आने को हो रही थी, इसलिए खाना भी नहीं खाया। थोड़ी देर बाद सोचा की कर करा के मामला निबटा ही लिया जाए। उल्टी करने से अंदर का कचरा बाहर निकल गया तो राहत मिली। वापस कमरे में आकर मैंने और मोन्टू ने ऑक्सीजन की कमी से निबटने के लिए दवाई खाई, चैन पड़ा तो फ़िर नींद की शरण में पहुँचे। सभी का सुबह 4 बजे उठने का पिरोगराम था, ताकि एक किलोमीटर का और रास्ता तय कर चन्द्रशिला की चोटी पर जा नंदा देवी के पीछे से होने वाले सूर्योदय को देखा जा सके। अपनी तो नींद तीन बजे ही खुल गई और रजाई में लिपटे बेचैनी से बैठे रहे। लेकिन कुदरत महरबान तो इंसान कीकड़ी पहलवान, सुबह सवेरे तेज़ बरसात होने लगी, सभी के अरमानों पर बारिश का पानी पड़ गया। अब तो टेन्शन थी कि बारिश रूके तो नीचे की यात्रा आरम्भ की जाए। दिन निकलने पर सभी ने मैगी का नाश्ता किया, मैंने भी किया। उसके बाद बरसात रूकी तो फ़ौजी अंकल को विदा कह हम वापस नीचे की ओर बढ़ चले। बरसात के कारण सारे रास्ते में फ़िसलन थी, इसलिए सावधानी से उतरा जा रहा था। लेकिन उतरने की रफ़्तार चढ़ने की रफ़्तार से अधिक थी। तकरीबन ढाई घंटे में हम लोग वापस चोपटा पहुँच गए थे। मिशन तुन्गनाथ पूरा होने पर सभी प्रसन्न थे।


( तुन्गनाथ से वापसी पर )


मैं स्निग्धा का आभारी हूँ कि चढ़ते और उतरते समय वह मेरा हौसला बढ़ाती मेरे साथ चल रही थी और मोन्टू का आभारी हूँ कि चढ़ते समय उसने मेरा स्लीपिंग बैग ले मेरा बोझ कम किया। 🙂 चोपटा में अधिक समय ना लगाते हुए सभी ने अपना अपना सामान गाड़ी में लादा और गाड़ी में सवार हो वापसी की राह पकड़ी। अब हमारा अगला पड़ाव मन्दाकिनी नदी के तट पर सियालसौर में मौजूद गढ़वाल मण्डल का यात्री निवास था, जो कि उखीमठ से तकरीबन 20 किलोमीटर आगे था।

अगलें अंक में ज़ारी …..