गतांक से आगे …..

चोपटा से निकल हम उखीमठ की राह पकड़ी और उसके बाद रास्ता पूछ सियालसौर की ओर बढ़ चले। रास्ते भर सुन्दर पहाड़ी नज़ारे देखते हुए चल रहे थे, ऐसा लग रहा था कि मानो जन्नत में घूम रहे हैं। पर अब जन्नत बहुत ज़्यादा हो गई थी। कुछ देर को तो मैं गृहासक्त महसूस करने लगा, पहाड़ी नज़ारे कुछ अधिक ही हो गए थे, यात्रा का हमारा तीसरा दिन था, अभी घर पहुँचने में कम से कम एक पूरा दिन और दो रातें बाकी थी। पिछले एक-दो महीनों में कुछ अधिक ही पहाड़ देखे थे, इतने अभी तक के अपने जीवन में कुल मिलाकर ना देखे थे। हमारा पहले तो ऋषिकेश में भी रूकने का विचार था परन्तु फिर सभी ने निर्णय लिया कि बस सियालसौर में ही एक दिन रूकेंगे और उसके सीधे दिल्ली।

सियालसौर से अभी हम कुछ ही दूरी पर थे कि देखा रास्ते में ट्रैफ़िक जाम लगा हुआ है। पता चला कि कुछ भूस्खलन के कारण मिट्टी और कुछ पत्थर एक टैम्पो के बोनट पर गिर गए और अब वह टैम्पो रास्ता रोके हुए था। जगह एक ही वाहन के निकलने की होने के कारण रास्ता रूका हुआ था और दोनों ओर वाहनों की कतार बड़ी होती जा रही थी। वैसे उस टैम्पो को रास्ते से हटाने का कार्य किया जा रहा था, लेकिन आवश्यकता से अधिक सामान से लदा होने के कारण उसको सरकाना आसान नहीं था। तो हम लोग गाड़ी से बाहर निकल आए और देखा कि बाजू में ही बहुत सही सा नज़ारा है। वाह री किस्मत, रोका भी तो कैसी सही जगह पर!! 😉


( मन्दाकिनी नदी और पहाड़ी नज़ारा )



( मन्दाकिनी नदी और पहाड़ी नज़ारा )


आखिरकार लगभग डेढ़ घंटे बाद टैम्पो सड़क किनारे लगा और रास्ता खुला और हम पुनः सियालसौर की ओर बढ़ चले। कुछ देर बाद हमें सियालसौर के गढ़वाल मण्डल यात्री निवास का बोर्ड लगा दिखाई दिया और गाड़ी नीचे जाते रास्ते पर ले ली जो कि यात्री निवास का प्रवेश द्वार था। यात्री निवास कहने को तो एकदम बियाबन में बना हुआ था, आसपास कोई आबादी नहीं, लेकिन बना बहुत सुन्दर जगह में था, एकदम मन्दाकिनी नदी के घाट पर। पर हमें पता नहीं था कि इस मनमोहक जगह पर हमारे साथ एक हादसा होने वाला था जिसने हमें हिला के रख देना है।

यात्री निवास में लकड़ी के कॉटेज बने हुए थे जो कि सभी डबल बेडरूम थे। हमने दो कॉटेज ले लिए, एक लड़कियों के लिए और एक हम लड़कों के लिए। अपने अपने कॉटेज में अपना सामान पटक हम लोग सुस्ताने लगे, तो कोई नहाने धोने चला गया। यात्री निवास वाले को खाना बनाने के लिए बोल दिया था, थोड़ी देर में वह बुलाने आ गया तो जाकर डाईनिंग हॉल में बैठ हमने दोपहर का भोजन किया। उसके बाद मैंने उन लोगों से पूछा कि क्या हम सीढ़ियाँ नीचे उतर मन्दाकिनी के किनारे जा सकते हैं तो उत्तर हाँ में मिला। सभी का मन था कि नदी किनारे जाकर पानी में पैर आदि डाल बैठ तरोताज़ा हुआ जाए। सबसे आगे काकन और बाकी सभी, सीढ़ियाँ नीचे उतर नदी किनारे पहुँचे। वहाँ किनारे पर उभरे पत्थरों पर बैठ पानी में पैर डाल हम लोग बैठ हँसी ठिठोली करने लगे, एक दूसरे पर पानी डालने लगे।


( मन्दाकिनी के ठण्डे पानी में मौज )



पानी को देख काकन का मन भी मचल गया, वह तुरंत अपने कपड़े बदलने गई ताकि पानी में वो भी मौज ले सके। वापस आकर यकायक उसे तैरने की सूझी। मैंने सावधान करते हुए कहा कि तरणताल में तैरने और बहती नदी में तैरने में बहुत अंतर है और वैसे भी मन्दाकिनी तेज़ बहाव पर है इसलिए वो ऐसी कोई कोशिश ना करे। बात उसे ठीक लगी और वह भी पत्थर पर स्निग्धा के पास आकर बैठ गई। मोन्टू और मैं दूसरे पत्थर पर बैठे थे। अगली बार जब मेरा ध्यान गया तो देखा कि काकन ने थोड़ा आगे जाकर पानी में तैरना आरम्भ कर दिया था और अब वह नदी के मध्य की ओर बही जा रही थी। उसने पीछे मुड़कर देखा तो मैंने हाथ हिला उससे पूछा कि वह ठीक है कि नहीं, लेकिन कोई उत्तर नहीं आया और वह आगे बहने लगी। मैं समझ गया कि अब वो तैर नहीं रही बल्कि नदी के तेज़ बहाव में बही जा रही है और शीघ्र ही डूब जाएगी। स्निग्धा तुरंत ऊपर यात्री निवास वालों को बुलाने भागी, मैं और मोन्टू काकन को पुकार रहे थे क्योंकि अब वह दिखाई नहीं दे रही थी।

तुरत फ़ुरत हम भी ऊपर पहुँचे जहाँ अब यात्री निवास वाले आ चुके थे और उधर देख रहे थे जिधर काकन आखिरी बार दिखाई दी थी। यात्री निवास के एक कर्मचारी के साथ स्निग्धा तुरंत गाड़ी में आगे की ओर देखने गई, पुलिस को मैनेजर द्वारा सूचना दे दी गई। स्निग्धा वापस आ गई, उसे कोई सफ़लता नहीं मिली, लगभग एक घंटा होने को आया था लेकिन पुलिस अभी तक नहीं आई थी। हम सभी तुरंत गाड़ी में बैठ पुलिस थाने की ओर बढ़ चले जो कि तकरीबन 7 किलोमीटर दूर था। अभी हम अगले कस्बे चन्द्रपुरी के गढ़वाल मण्डल के यात्री निवास के करीब पहुँचे कि हमने पुलिस की जीप वहाँ खड़ी देखी। पता चला कि वे हमारी ओर ही आ रहे थे, तो उनके साथ हम लोग वापस अपने वाले यात्री निवास पर आ गए।

यात्री निवास पर पहुँच पुलिस ने वह जगह देखी जिधर काकन डूबी थी, हम सब लोगों का बयान लिया, पूरा विवरण लिया कि कब कैसे क्या हुआ। उन्होंने तुरंत कह दिया कि बचने की कोई उम्मीद ना लगाई जाए, पानी के इस बहाव में तो वहाँ के गाँव में मौजूद गोताखोर आदि भी नदी में नहीं जाते। यह सुन मोन्टू और स्निग्धा सकते में आ गए, मैंने अपने ऊपर फ़ौलादी नियंत्रण रखा हुआ था, क्योंकि मुझे पहले से पता था कि पुलिस ने यही कहना है, पानी का बहाव देख कोई मूर्ख भी कह सकता है कि इसमें जाना सीधे सीधे यम को पुकारना है। अपनी पूछताछ आदि कर पुलिस वापस चली गई, यात्री निवास में जो अन्य लोग ठहरे हुए थे, उनके लिए मानों यह एक तमाशा था, हर कोई बार बार अलग अलग पूछ रहा था कि क्या हुआ कैसे हुआ। मुझे तो उन पर गुस्सा आ रहा था, मन कर रहा था कि पूछने वालों के मुँह तोड़ दूँ, क्या वहाँ तमाशा हो रहा था, क्या उन्हें पता नहीं था, यह पूछ कि कैसे हुआ, पूरी जानकारी तफ़सील से लेकर उन्हें क्या करना था, कुछ कर तो वे सकते नहीं थे किसी के लिए, ना हमारे लिए ना काकन के लिए। हम लोगों ने अपने अपने गीले कपड़े बदले और गाड़ी में बैठ आगे के कस्बे में पहुँचे ताकि काकन के घर पर सूचित कर दें, क्यों कि सियालसौर में हम में से किसी का मोबाईल काम नहीं कर रहा था, यहाँ तक कि बीएसएनएल का तगड़ा नेटवर्क भी गायब था।

चन्द्रपुरी पहुँच काकन के घर का फ़ोन मिलाया परन्तु किसी ने फ़ोन नहीं उठाया। कदाचित्‌ कोई घर पर नहीं था और काकन के घरवालों में से किसी के मोबाईल का नंबर हमारे पास नहीं था। दिल्ली में एक दो दोस्तों को जो कि काकन को जानते थे उनको फ़ोन किया ताकि उसके घर पर वे सूचित कर सकें। उसके बाद हम लोग वापस यात्री निवास लौट आए। थानेदार ने हमें अगले दिन सुबह साढ़े आठ बजे थाने में बुलाया था। खाना आदि खा हम लोग एक बार पुनः चन्द्रपुरी पहुँचे। इस बार काकन के घर पर उसका छोटा भाई मिल गया। रात्रि के नौ बजे थे और अभी तक उन लोगों को किसी ने नहीं बताया था, हो सकता है वह अभी अभी घर पहुँचा था। कम से कम शब्दों में आधा अधूरा उसे समझाया और तुरंत सियालसौर पहुँचने के लिए बोला, पहुँचने का मार्ग आदि भी समझा दिया और हम वापस यात्री निवास पर आ गए। मन में शंका थी, आशा थी, शोक भी था, पर स्निग्धा और मोन्टू यह मानने को तैयार नहीं थे कि काकन अब नहीं रही। स्निग्धा अकेले रहने से डर रही थी, इसलिए शोकग्रस्त हमने वह रात एक ही कमरे में आँखों में काटी। मन में निश्चय किया सभी ने कि हम तब तक यहाँ से हिलने वाले नहीं जब तक काकन या उसका शव नहीं मिल जाता। उसके घरवालों के आने तक तो वैसे भी रूकना हमारा फ़र्ज़ था।

अगले दिन सुबह ठीक साढ़े आठ बजे हम पुलिस स्टेशन पहुँच गए। वहाँ दारोगा ने हमें बताया कि खोजकों की टोली रूद्रप्रयाग से अपने कार्य पर निकल चुकी है, शायद हवाई खोज भी की जाए। काकन के पिताजी नामी डॉक्टर हैं जिनकी कई मंत्रियों आदि से पहचान है और उन्होंने ही पहचान निकाल यह मुमकिन करवाया था कि एक खोजी दल रूद्रप्रयाग से किनारे किनारे आगे बढ़ता काकन को ढूँढता ऊपर आ रहा था। दारोगा ने हमें कुछ आगे एक जगह के बारे में बताते हुए कहा कि हम लोगों को वहाँ भी देख आना चाहिए क्योंकि वहाँ पानी थोड़ा ठहर जाता है। परन्तु समस्या यह थी कि रात को तेज़ बारिश होने के कारण नदी में पानी का स्तर और बहाव की गति अधिक हो गई थी। खैर फ़िर भी हम लोगों ने अपनी भाग-दौड़ ज़ारी रखी, दारोगा की बताई जगह पर भी देख आए, उससे आगे भी देख आए लेकिन नतीजा सिफ़र ही रहा।

दोपहर लगभग तीन बजे तक काकन के माता-पिता और भाई रूद्रप्रयाग ज़िले के एसपी के साथ यात्री निवास पर पहुँचे। पीछे पीछे थाने के दारोगा की जीप भी आ गई। हमने उन्हें सभी कुछ शुरू से लेकर आखिर तक बताया, कब कैसे क्या हुआ। काकन की माताजी से रहा ना गया और उनके सब्र का बाँध टूट गया। दारोगा से भी उनकी बात हुई, हमें बुलाकर फ़िर पूछा गया कि हमें नीचे जाने को किसने बोला था। अब मुझे यह याद नहीं था कि यह किसने बोला था और यात्री निवास की रसोई का प्रत्येक कर्मचारी, जो पिछले दिन उस समय उपस्थित जब हमने खाना खाया था, साफ़ मुकर गया कि उनमें से किसी ने नहीं कहा था। बात समझ में आ रही थी मेरी, जो कोई कह देता कि उसने कहा था, थानेदार ने उसकी ऐसी कि तैसी कर देनी थी। सबकी आँखों में भय की छलक थी कि मैं किसी का नाम ना ले दूँ, पर जब मुझे स्वयं यह नहीं याद था कि किसके मुँह से वे शब्द निकले थे तो मैं कैसे किसी का नाम ले सकता था।

सभी कुछ पूछने आदि के बाद थानेदार ने कहा कि शव मिलने में 2-3 दिन से 15 दिन तक लग सकते हैं और ऐसा भी हो सकता है कि वह मिले ही नहीं। काकन के परिवार-वाले रूद्रप्रयाग में रूके हुए थे जो कि वहाँ से 22 किलोमीटर आगे था और अगले रोज़ सुबह उनका भी वापस दिल्ली लौटने का विचार था, तो हमने तय किया कि हमें भी वापस चल देना चाहिए, रूकने का कोई लाभ ही नहीं था, जब परिवार वाले नहीं रूक रहे तो हम रूक कर क्या करते। चलने से पहले काकन की माताजी स्निग्धा को और आम रूप में हम सभी को कड़े शब्द कहना ना भूलीं, जैसे काकन की मृत्यु के ज़िम्मेदार हमीं लोग थे!! कहा तो उन्होंने बंगाली में जो कि स्निग्धा और मोन्टू को समझ आ रही थी परन्तु भाषा का ज्ञान ना होने के बावजूद बोलने के लहज़े से मैं समझ गया कि उनका अभिप्राय क्या है। लेकिन हम उनकी मानसिक हालत समझ रहे थे, इसलिए कुछ कह नहीं सकते थे, केवल मुँह लटकाए सुनते रहे।

उन लोगों के जाने के बाद हमने अपना अपना सामान बाँधा और यात्रि निवास का भुगतान कर वापसी के रास्ते लगे। काकन का सामान उसके घरवाले ले जा चुके थे। अब हमारा मकसद था कि जितना जल्द हो सके, वापस दिल्ली पहुँच जाएँ। हम में से किसी ने नहीं सोचा था कि कभी हमारे साथ ऐसा हादसा भी पेश आ सकता था। लेकिन अधिकतर जीवन में वहीं होता है जो मनुष्य सोचता नहीं है। हम चार लोग गए थे और अब केवल तीन ही लौट रहे थे। कहाँ तो हम चारों वापस आकर पिज़्ज़ा पार्टी करने की सोच रहे थे और कहाँ अब ये हाल था कि कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था।

अपनी sense of adventure, ज़रूरत से अधिक आत्मविश्वास और प्रकृति को कम आंकने के कारण काकन ने अपना जीवन गंवाया और अपने घरवालों और मित्रगण के शोक-संताप का कारण बनी। यदि उसने हमारी बात मान ली होती और अपने तैराकी के शौक को मन्दाकिनी की बजाय किसी तरणताल में पूरा किया होता तो …..। 🙁 उसका शव दस दिन बाद ऋषिकेश में सेना वालों को मिला और 24 अगस्त को उसके परिवार जनों ने हरिद्वार में उसका दाह-संस्कार कर दिया। ये पोस्ट काकन को मेरी अंतिम श्रद्धांजिली है।