परसों मैं टीडीआई मॉल में स्थित प्लैनेट एम से फ़िल्मों की कुछ वीसीडी और डीवीडी लाया था, परन्तु कल जब “क्राऊचिंग टाईगर हिड्डन ड्रैगन” की डीवीडी चलाई तो वह चली नहीं। यानि कि उसमें कुछ लोचा था इसलिए आज उसे वापस दे दूसरी लाने की सोची। लेकिन सप्ताहांत होने के कारण देर से सोया सुबह को जिस कारण दोपहर में देर से उठना हुआ। प्लैनेट एम के लिए निकलने तक सांय हो चुकी थी। (आने वाले)परसों यानि कि सोमवार को क्रिसमस है, लेकिन बहुत सी बड़ी बड़ी दुकानों में 2-3 हफ़्ते पहले से ही चहल-पहल आरंभ हो जाती है। बहरहाल जब मैं मॉल में पहुँचा तो देखा कि उसके मध्य भाग में कुछ हो रहा है, मतलब ऑरकेस्ट्रा आदि बज रहा था, गाने वगैरह चल रहे थे और भीड़ जमा थी। लेकिन मैंने पहले जिस कार्य से आया था उसे निबटाने की सोची और प्लैनेट एम में चला गया। वहाँ उनके पास उसी फ़िल्म की दूसरी डीवीडी नहीं थी, तो उतनी कीमत की मैंने दो फ़िल्मों की वीसीडी ले ली और बाहर आ पहली मंज़िल की बाल्कनी के मध्य में पहुँच गया यह देखने कि काहे का मज़मा लगा हुआ था।

देखने पर पता चला कि किसी प्रकार का कार्यक्रम हो रहा है जिसे कुछ कंपनियाँ आदि प्रायोजित कर रही हैं जैसे शहनाज़ हुसैन की सौंदर्य प्रसाधन कंपनी, 94.1FM वगैरह। यह सब क्रिसमस के अवसर पर हो रहा था और अगले दो दिन भी चलना था। मॉल को सजाया हुआ था। कार्यक्रम का मेज़बान अलग अलग तरह के खेल आदि करवा रहा था और जीतने वालों को पुरस्कार दिए जा रहे थे।

लोग इन खेलों आदि का खूब मज़ा ले रहे थे, वाकई अच्छा मनोरंजन हो रहा था। पर कुछ देर बाद लगा कि अब चलना चाहिए। चलते समय सजे धजे क्रिसमस ट्री पर भी नज़र पड़ी।

यह सिर्फ़ यहाँ ही नहीं वरन्‌ आस पास के अन्य दो मॉल सिटी स्क्वेयर और वेस्ट गेट का भी है। इसे देख मन में ख्याल आया कि क्या हमारा समाज इस तरह के बदलाव पर भी है? क्रिसमस और वेलेन्टाईन डे पर बड़ी दुकाने और बाज़ार सज जाते हैं, चहल पहल होती है, परन्तु दीपावली और ईद जैसे त्योहारों पर ऐसी कोई खासी चहल पहल नहीं होती इन बड़ी दुकानों और बाज़ारों में। या केवल मुझे ही ऐसा लग रहा है? क्योंकि मुझे अच्छी तरह याद है कि दीपावली और ईद के दिनों में भी मैं एकाध बार इन मॉलों में गया लेकिन त्योहार वाली चहल पहल मुझे न दिखाई दी जो आज दिखाई दी।

मुझे क्रिसमस पर कोई आपत्ति नहीं है, त्योहारों का मकसद खुशियाँ मनाना होता है, और खुशियाँ किसी एक संप्रदाय या धर्म आदि की जाग़ीर नहीं। उन पर सभी का अधिकार है। इसलिए चाहे दीपावली हो या ईद या क्रिसमस, अपन तो हर वक्त खुशी मनाते हैं। लेकिन यह बर्ताव थोड़ा अजीब सा लगा कि ये तथाकथित हाई-फ़ाई बड़ी दुकानें केवल पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण करते हैं। जिस बाज़ार में हैं वहाँ के लोकल ज़ायके का भी ख़्याल रखना चाहिए। या केवल मुझे ऐसा लग रहा है? मैं निश्चय नहीं कर पाया और घर वापसी के दौरान सारे रास्ते इसी उधेड़बुन में रहा।