कल रविवार को सुबह असोला भट्टी वन्य जीव संरक्षण स्थान या wildlife sanctuary में जाने का पिरोगराम था। तो सुबह सुबह तड़के यानि कि सवा छह बजे अंधेरे में ही अपनी मोटरसाइकल पर मैं निकल लिया संतोष के घर की ओर। वैसे तो सात बजे संतोष के घर से निकलने का पिरोगराम था परन्तु जब पौने सात बजे मैं संतोष के घर पहुँचा तो महाशय अभी सोकर भी नहीं उठे थे। कई घंटियाँ बजाने पर वो नींद में डूबे द्वार खोलने आए, मेरे को स्वागत कक्ष में बिठा तैयार होने गए, अपन टीवी खोल खामखा की खबरें देखने लगे। थोड़ी देर बाद पता चला स्निग्धा भी अभी अभी सोकर उठी है और इधर संजुक्ता का कोई पता नहीं था जबकि मेरे को पिछले दिन फ़ोन पर चेतावनी दी गई थी कि मैं समय पर सुबह पहुँच जाऊँ!! 😉 उधर मोन्टू का फ़ोन आया कि वो तैयार बैठा है और पूछ रहा है कि कब चलना है!! तौबा!!! लोग नहीं सुधरने वाले!! बहरहाल संतोष ने स्निग्धा को बोला कि संजुक्ता से अपने घर आने को बोले, हम लोग तो निकल रहे हैं। मैं और संतोष निकल पड़े अपनी अपनी मोटरसाइकलों पर, निकलने से पहले मोन्टू को पहुँचने को बोल दिया गया।

सड़कों पर अब वाहनों की संख्या बढ़ गई थी, जिस समय मैं संतोष के घर आया था उस समय तो कोई इक्का दुक्का वाहन ही था इसलिए आराम से 90 की गति से चलाता हुआ आया था। 🙂 खैर, हम लोग असोला की ओर बढ़ चले जो कि तुग़लकाबाद के किले के पास है। रास्ते में हमने कुछ खाने-पीने को ले लिया क्योंकि आशा नहीं थी कि कोई नाश्ता वगैरह करके आया होगा, कम से कम हम लोग तो नहीं आए थे। निश्चित स्थान पर पहुँचे तो देखा कि दो अन्य लोग जिनके आने की अपेक्षा थी वे हम लोगों की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनसे परिचय हुआ तो पता चला कि उनके नाम प्रदीप और हितेश हैं। मोन्टू भी कुछ मिनट में आ गया। कुछ देर प्रतीक्षा के बाद हम लोगों ने असोला जाने का निर्णय लिया, संजुक्ता को बता दिया गया कि वे लोग वहीं पहुँचे। असोला में पहुँच हमारी मुलाकात सजीव से हुई जो वहीं Conservation Education Center में कार्य करते हैं। वे हम लोगों को आसपास के इलाके के भ्रमण पर ले गए जहाँ हमने कई तरह की तितलियाँ और कुछेक पक्षी आदि देखे। सजीव बताते हुए चल रहे थे हर चीज़ के बारे में। एक वॉच टॉवर पर पहुँच हमने कुछ दूर खड़ी एक नील गाय और उसके बच्चों को देखा।


फ़िर हमने वापस पहुँच संजुक्ता और स्निग्धा के आने का इंतज़ार करने की सोची। वापसी में एक सुंदर तितली दिखाई दी जिसको ब्लू पैन्सी कहा जाता है।


कुछ देर बाद संजुक्ता और स्निग्धा पहुँच गए तो आगे का पिरोगराम शुरू हुआ। सजीव हमको ब्लैक बक दिखाने ले गए। रास्ते में हमने सियारों के रहने का स्थान देखा। कुछ आगे पहुँच हमें एक ब्लैक बक दिखाई दे गया, उसके साथ और भी दिखे। अभी उसका फ़ोटो ले ही रहा था कि पीछे से यार लोग उँची आवाज़ में बात करते आ गए और सभी ब्लैक बक डर कर भाग गए। 🙁 सोचा कि पास मौजूद वॉच टॉवर से शायद दिख जाए लेकिन वहाँ से भी नहीं दिखे। थोड़ी देर और घूमे आजू बाजू, और फ़िर वापस सजीव के ऑफ़िस की ओर चल दिए चाय-पानी के लिए, अब गर्मी बढ़ रही थी और गर्म जैकेट में बुरा हाल था लेकिन उसे उतार नहीं सकता था और ना ही उसको खोल सकता था क्योंकि फ़िर आसपास की झाड़ियों आदि में फ़ंसने का डर था। वापस पहुँच सभी कुर्सियों पर पसर गए, थोड़ा हंसी-मज़ाक हुआ और फ़िर चलने की तैयारी हुई। भूख लग रही थी, इसलिए थोड़ी दूर पर मौजूद एक रेस्तरां में जाना तय हुआ, सजीव की दोनों मातहत भी हमारे साथ थीं।

खाने के बाद तुग़लकाबाद के किले में जाने का तय हुआ। लगभग सभी ने मना कर दिया क्योंकि वे थक गए थे। मैं, मोन्टू, स्निग्धा और संजुक्ता तैयार थे तो हम ही चल दिए। तुग़लकाबाद किला सन्‌ 1324-1325 में दिल्ली के तुग़लक बादशाह घियासुद्दीन तुग़लक ने बनवाया था। आज 780 वर्ष बाद यह किला रखरखाव के अभाव में सूने खंडहर के रूप में अलग थलग पड़ा है। यहाँ पर भी सरकारी टिकट काऊंटर है और अपनी आदत के अनुसार हमने टिकट ली लेकिन मुझे नहीं लगता कि यदि हम बिना टिकट लिए अंदर जाते तो कोई मना करता।


हांलाकि एकाध विदेशी पर्यटक भी दिखे यहाँ पर नहीं तो मैं नहीं समझता कि यहाँ कोई पर्यटक आते होंगे यदि किसी ट्रैवल पैकेज में यहाँ आना तय ना हो तो।


किसी ज़माने में आलीशान रहे उद्यान आज झाड़ आदि के जंगल से हैं और कभी जगमग रहे हॉल और कमरे आज पत्थरों के ढेर मात्र हैं। यह हालत देश की बहुत से ऐतिहासिक धरोहरों की है।

हम लोग भी एक ऊँचे वॉच टॉवर जैसी इमारत के खंडहर के पास पहुँच बैठ गए, कुछ और देखने को नहीं था, तो थोड़ी देर बैठ बतियाने लगे, इधर उधर की बातें की। शाम हो आई तो हमने भी चलने की सोची और अपने अपने रास्ते लग लिए।