गतांक से आगे …..

अब फ़ूलों इत्यादि की तस्वीरें ले चुके तो सोचा कि थोड़ा आराम किया जाए, लगभग आठ घंटे गाड़ी में सफ़र किया था, हाल थोड़े ढीले ढाले ही थे। तो वापस ऊपर पहुँचे, अरे अपने कमरों में भई, उससे ऊपर जाने का अभी टैम नहीं आया!! 😉 तो ऊपर पहुँच देखा कि यार लोग सुस्ता रहे हैं, हम सोचे कि हम भी थोड़ा सुस्ता लें। पर सुस्ता नहीं पाए, निश्चय किया कि तुरत फ़ुरत नहा धो तैयार हो लिया जाए और फ़िर घूमने फ़िरने का पिरोगराम सैट किया जाए। लेकिन उससे पहले पेट-पूजा का प्रश्न था, तो यात्री निवास में ही नाश्ते का निश्चय किया गया। तो दो कुड़ियाँ खटिया तोड़ अंदाज़ में अपने कमरे में सुस्ता रही थी, संतोष नाश्ता करने के आदि नहीं, तो हम बाकी के पाँच जन नीचे डाईनिंग हॉल में आ गए और पूरी-छोले तथा ब्रेड ऑमलेट के मजे लिए। तभी हमारी वार्ता यात्री निवास के मैनेजर साहब से हुई, सरल से व्यक्ति लगे। हम लोगों से पूछा कि हमारा कहाँ जाने का कार्यक्रम है, तो हमने उनसे पूछा कि हमें कहाँ जाना चाहिए। उन्होंने कई जगह बताई, कलसी में उपस्थित इतिहास की धरोहर के बारे में भी बताया(अरे बताते हैं, सब्र रखो भई), और बताया कि हम चक्राता पहाड़ पर भी जा सकते हैं, लेकिन चूंकि उसका एक तरफ़ा रास्ता लगभग 40 किलोमीटर के करीब है, तो सांय काल तक ही लौटना होगा। गर्मी कुछ बढ़ सी गई थी, तो हमने सोचा की पहाड़ की सैर कर ली जाए, बाकी जगह समय होने पर देख लेंगे। मैनेजर साहब हमारे साथ चलने को तैयार थे। तो पेट पूजा के बाद नहाने आदि की सुध ली, इतने में बाकी की दोनों देवियों ने भी अपना काम निबटा लिया और सज धज सभी नीचे पहुँचे। पर वहाँ तो एक नया सीन खड़ा हो गया था, हमारे सरदारजी, अरे ड्राईवर साहब, नदारद थे। कहाँ गए किसी को पता नहीं। मैं और दीपक बाहर आस पास की दुकानों और “शेर-ए-पंजाब” ढाबे पर भी देख आए कि कहीं बैठे मुर्गे वगैरह तो नहीं पाड़ रिये, पर वो तो गधे के सिर से सींग और सरकार की देशभक्ति की तरह गायब थे। हम लोग यात्री निवास के द्वार पर खड़े टेन्शन ले ही रहे थे कि दीपक को एक कर्मचारी ने कहा कि पीछे मौजूद खाली हॉलों में देख लें, सो हम उधर ही लपक लिए। एक हॉल के द्वार के बाहर दो कुत्ते बैठे रखवाली कर रहे थे, उसके अन्दर एक बिस्तर पर ड्राईवर साहब मौज से सो रहे थे, हमने उन्हें हिला-डुला के जगाया और चलने के लिए कहा। फ़ौरन पगड़ी बाँध वो तैयार हुए और हम निकल पड़े।

मार्ग में मौसम बहुत ही सुहावना सा हो आया था, धूप चली गई थी और काली घटा घिर आई थी, तो तस्वीरें लेने से कैसे चूकते!! तुरंत गाड़ी रुकवाई और तस्वीरें ले डाली!!



अब कलसी पहुँच हमें पता चला कि यह इलाका भारतीय सेना के नियंत्रण में है(बाद में ज्ञात तथ्यों से पता चलता है कि यह इलाका सेना की establishment 22 ने नाम से जानी जाने वाली टुकड़ी के नियंत्रण में है जो कि तिब्बती मूल के लोगों को भर्ती कर बनाई गई है जिसे रॉ जैसी संस्था प्रशिक्षण देती है)। साथ ही यह भी पता चला कि रास्ता एक तरफ़ा है, इसलिए एक समय सारिणी बनी हुई है, फ़लां-से-फ़लां समय तक यहाँ से यातायात चलेगा और फ़लां-से-फ़लां समय के दौरान वहाँ ऊपर से नीचे की ओर आने वाला यातायात आएगा, तीन तीन घंटे के खंड थे। तो अभी अपना नंबर आने में लगभग एक घंटे से ऊपर था, मैनेजर साहब ने कहा कि हम “वो” देख आएँ, अरे वही इतिहास की धरोहर!! वैसे किसी को उसमें अधिक रूचि न थी, जो थी वो हम ही जागृत किए थे। 😉 तो अपनी गाड़ी लाईन में सबसे आगे खड़ी कर हम पैदल ही निकल लिए ढलान की ओर। यमुना किनारे, एक बहुत ही अच्छे से बने हरी घास वाले भूमि के टुकड़े पर एक छोटा सा कमरा सा बना हुआ, जिसमें प्रसिद्ध मौर्य सम्राट और बौद्ध धर्म के प्रचारक, सम्राट अशोक का शिलालेख रखा है जो कि दो हज़ार वर्ष से भी अधिक पुराना है और अभी तक के भारत और पाकिस्तान में मिले शिलालेखों के मुकाबले काफ़ी अच्छी हालत में है। इस पर प्राकृत भाषा में कुछ लिखा है जो कि भाषा ज्ञान ना होने के कारण अपनी समझ में नहीं आया। 😉



शिलालेख देख लिया, उसके बारे में जितना पता था उससे बस थोड़ा अधिक ही वहाँ उपस्थित एक परिचय-पत्थर पर लिखा था जो फ़टा फ़ट पढ़ डाला। अब इस जगह की ओर अधिक तवज्जो गई तो महसूस हुआ कि यह जगह कितनी शांत है और कितनी शांति अन्दर मन को देती है, बहुत ही सुहावना सा मौसम हो रहा था और जैसे ही वापस चलने को हुए, हल्की सी बूंदा-बांदी भी आरम्भ हो गई। वापस गाड़ी के पास पहुँच लोगों को भूख लग आई थी, संतोष ने नाश्ता भी नहीं किया था, जबकि हम में से कुछ ने नाश्ता डट के किया था, तो एक ढाबे में प्रवेश कर गए और कुछ ने खाना खाया और बाकियों ने शीतलपेय ले उनका साथ दिया। आखिर जैसे तैसे समय कट ही गया और हमारे लिए मार्ग अवरोध हट गया, जाने का संकेत मिल गया और गाड़ी में ठुस हम लोग चल दिए।

पहाड़ी सड़क बहुत ही संकरी थी, पर दृश्य इतना जबरदस्त नज़र आ रहा था सारे रास्ते कि बस पूछो मत। जगह जगह सड़क के बाजू में ही सफ़ेद ठण्डे पानी के झरने से बह रहे थे, मौसम एकाएक इतना बढ़िया हो गया था कि लगा उतना ही विश्वास हुआ अपनी किस्मत पर जितना सरकारी बाबुओं के समय पर दफ़्तर आने पर होता है!! 😉 अब लेकिन जब मौसम इतना बढ़िया था और नज़ारा लाजवाब था तो फ़िर तस्वीरें लेने से कैसे चूकते?? इसलिए नहीं चूके ना, और बीच बीच में एकाध बार गाड़ी रूकवा तस्वीरें ले डाली!! 😀



आखिरकार हम लोग रूकते चलते ऊपर चोटी तक पहुँच ही गए। वहाँ पर छोटा सा कस्बा बसा हुआ था तथा सेना की छावनी सी बनी थी जिसके द्वार के सामने तस्वीरें लेना वर्जित है। यहाँ हर ओर बादल ही बादल दिखाई दे रहे थे, पहाड़ से नीचे कुछ नहीं दिखाई दे रहा था, सिर्फ़ श्वेत मेघ दिख रहे थे। मौसम ठण्डा था वहाँ, ऐसा लग रहा था कि कोई अच्छी तरह से वातानुकूलित कमरा आदि हो। सुट्टा आदि लगाने के लिए सिगरेट-बीड़ी लोगों की बाहर आ गई, बाजू में से एक राह नीचे जंगल की ओर जा रही थी तो हम बाकी लोगों के साथ उधर ही चल दिए। कुछ कदम ही चले होंगे कि दाईं ओर नज़र गई और वहीं की वहीं थम गई। जो नज़ारा सामने था वह मैंने पहली बार देखा था। हुआ यूँ कि बादलों में घिरे होने के कारण यहाँ सूर्य की किरणे नहीं पड़ पा रही थी, लेकिन बादलों में उपस्थित एक सुराख से सूर्य की किरणें बाजू वाले पर्वत की चोटी पर पड़ रही थी और ऐसा लग रहा था कि वह हिस्सा जहाँ सूर्य की किरणें पड़ रही हैं मानो किसी टॉर्च की रोशनी में नहाया हुआ हो। फ़टाफ़ट कैमरे में इस दृश्य को उतारा गया, पर कुछ दूरी पर होने के कारण और प्रयाप्त प्रकाश ना होने के कारण तस्वीर उतनी बढ़िया तो नहीं आई जितना बढ़िया नज़ारा था परन्तु फ़िर भी देखने और अनुमान लगाने योग्य आ ही गई। 🙂



थोड़ा आगे गए तो एक ओर मौजूद पहाड़ी की साईड में कुछ पत्थर आदि उभरे हुए थे। इन्हें देख संतोष और स्निग्धा को पर्वतारोहण का शौक चर्राया, पहले संतोष और फ़िर स्निग्धा उन उभरी जगहों पर हाथ-पाँव टिका कर किसी तरह थोड़ा उपर चढ़ गए और ऐसे खड़े हुए कि मानो ऐवरेस्ट फ़तह कर लिया हो!! 😉 हमारे पास अधिक समय नहीं था, हम केवल आधा घंटा ही चक्राता पर बिता सकते थे क्योंकि यदि हम आधे घंटे में वापसी की यात्रा नहीं करते तो फ़िर हमें 3 घंटे प्रतीक्षा करनी पड़ती और उस समय तक अंधेरा हो जाता और अंधेरे में पहाड़ी सड़क पर ना चढ़ाई सुगम होती है और ना ही नीचे उतरना। बीच में एक कस्बे में हम लोग रूके जहाँ सभी ने चाय आदि पी और गर्मा-गर्म कऱारे पकौड़ों का नाश्ता करा। वहीं से यात्री निवास के मैनेजर बाबू ने यात्री निवास में फ़ोन कर कह दिया कि मुर्गे आदि का इंतज़ाम रखा जाए हम लोगों के रात्रि भोजन के लिए। वापसी के मार्ग में हमने एक और बहुत ही बढ़िया दृश्य देखा जिसे अपने कैमरे में उतारना कोई नहीं भूला।


पहाड़ी से नीचे उतर हम यात्री निवास के मार्ग पर थे कि यमुना के उपर बने पुल पर रूक गए और सभी ने पुल से नीचे उतर यमुना के किनारे जाने की सोची। तो फ़िर क्या था, हम भी सभी के साथ चल दिए। पानी के पास पहुँच सभी ने तीव्र बहाव देखा, तस्वीरें आदि ली। तभी मेरी नज़र उपर आकाश में गई और एक अजीब सा छोटा बादल देखा, अष्टभुज यानि कि ऑक्टोपस के आकार का, तो क्या था, तुरंत तस्वीर ले डाली।


जब तक हम औरों को बता पाते, तब तक वह बादल बीकानेर वाले के मलाई घेवर के माफ़िक गायब हो चुका था!! तो यानि कि इकलौती तस्वीर हमारे कैमरे में ही थी, यह सोच मन में लड्डू फ़ूट पड़े, सोचा कि चलो हमने कोई तो ऐसी तस्वीर ली जो समूह में किसी और ने नहीं ली!! 😉 यात्री निवास पर वापस आ सभी ने सबसे पहले नहा-धो तरोताज़ा होने की सोची, और उसके बाद रमित और संतोष ने लैपटॉप-स्पीकर आदि तामझाम लगा संगीत का जुगाड़ किया, उधर दीपक और मैं मौज से बैठे बाकि लोगों को टेबल-बोतल आदि सजाते देख रहे थे। पहली मंज़िल पर मौजूद हमारे कमरों के बाहर का बारामदा थोड़ा बड़ा सा था, इसलिए सभी इंतज़ाम वहाँ खुले में किया गया। बस समय हो रहा था, संगीत आदि चलाया गया और महफ़िल आरम्भ हुई, बीयर, वोदका और व्हिस्की की बोतलें खुल गई, और शाम रंगीन होने लगी। 😎

पता नहीं कब रात्रि के दस बज गए और तब यात्री निवास के एक कर्मचारी ने आकर कहा कि बहुत रात हो गई है, हमे खाना खा लेना चाहिए। तो सभी ने सोचा कि बस बहुत हुआ, अब पेट पूजा की जाए। सभी नीचे पहुँचे और भोजन आरम्भ किया। क्या खाना बनाया था बावर्ची ने, मज़ा ही आ गया। तृप्त हो हम थोड़ी देर रिसेप्शन हॉल में बतियाने बैठे, कोई बच्चा कहीं किसी संकरे कुएँ में गिर गया था और उसका बचाव कार्य ज़ोरों पर था, विशेषज्ञ आए हुए थे और पूरा कांड ज़ी न्यूज़ वाले भारत पाकिस्तान के क्रिकेट मैच की तरह लाईव दिखा रहे थे। मुझे और दीपक को नींद आ रही थी, हम दोनों ने ही बोतल वगैरह लगानी नहीं थी, इसलिए हम दोनों सोने चले गए, बाकी लोगों का पुनः बोतल वगैरह लगाने का पिरोगराम था।

ऐसा लगा कि अभी अभी सोया था और पाँच मिनट में ही अलार्म बज उठा। देखा तो सुबह के 6 बज रहे थे और कमरे की बाल्कनी के आती आवाज़ से पता चला कि खूब ज़ोरों पर बारिश हो रही है। हमारा सुबह सुबह आसन बैराज जाने का पिरोगराम था, पर अब मामला खटाई में पड़ता दिखा। मन किया कि फ़िर सो जाऊँ और सो गया। थोड़ी देर बाद दीपक को उठाया और पता लगाने को बोला कि बारिश रूकि कि नहीं, आवाज़ नहीं आ रही थी। नहीं रूकी थी, सो अपन ही उठ लिए और कमरे से बाहर गैलरी में आ गए जहाँ कुछ लोग बैठे बारिश का आनंद ले रहे थे। हमने पकौड़ों की फ़रमाईश की और पता चला कि उन्हें बनाने का आदेश रसोई में भिजवा दिया है, आते ही होंगे। यह सुन अपना मन कुछ प्रसन्न हुआ। पकौड़ों का नाश्ता कर हमने सोचा कि ऐसे ही, जिस हाल में हैं, आसन बैराज देख आते हैं, बारिश रूक गई थी। सबसे पहले हम बैराज के निकट मौजूद गढ़वाल मण्डल विकास निगम के वॉटर स्पोर्ट रिसॉर्ट में पहुँचे, मॉनसून होने के कारण पानी के सभी खेल आदि बन्द थे, हमने यहाँ नाश्ता करने की सोची, परन्तु पता लगा कि समय लगेगा। तो हमने बैराज देख आने की सोची। बैराज भी सेना के कब्ज़े में लगा, और उधर तस्वीरें आदि लेना वर्जित था। पानी अपने उफ़ान पर था, बैराज के सभी द्वार खुले हुए थे। पास ही भूमि के एक टुकड़े पर पेड़ लगे हुए थे और घास आदि थी। वहाँ कुछ बन्दर धूम मचा रहे थे और एक ट्रक के पास खड़े काँवड़ ला रहे कुछ भक्तजन उन बन्दरों की ओर केले आदि फ़ेंक रहे थे।


एक छोटे से उभरे हुए पत्थर पर बड़ा सा बन्दर बैठा केला खा रहा था, मैंने सोचा कि उसकी तस्वीर थोड़ा निकट से ली जाए, पर उसने सोचा कि मैं उसका केला लेने आ रहा हूँ, इसलिए उसने मुझ पर यलग़ार का ऐलान कर दिया। अब मेरा साहस देखिए, मैंने एक्शन के दौरान उसकी तस्वीर ले डाली और फ़िर वहाँ से हटा। अब इस साहस के लिए कम से कम पुलिट्ज़र तो मिलना ही चाहिए!! 😉


तत्पश्चात हम लोग वापस वॉटर स्पोर्ट रिसॉर्ट पहुँचे, जहाँ घंटों प्रतीक्षा करने के बाद हमारा नाश्ता आया, सर्विस बहुत ही बेकार, करीब आठ परांठे सेकने में उस रसोईये को एक घंटा लग गया, पर कुछ भी हो, नाश्ता स्वादिष्ट था जिसके कारण हम सभी का गुस्सा काफ़ुर हो गया। वापस यात्री निवास पहुँच हम लोगों ने तैयार हो चेकआऊट किया और वापसी की राह पकड़ी। अब हमारा इरादा कतई उस मार्ग से जाने का नहीं था जिससे हम आए थे। तो सबसे पहले हम पहुँचे पांवटा साहिब, जिसे दसवें सिख गुरू गोबिन्द सिंह जी ने सन्‌ 1685 के आसपास बनवाया था। गुरुद्वारे में हमें तस्वीरें लेने की आज्ञा मिल गई तो हमने फ़िर कोई विलम्ब नहीं किया!! 😀




यहाँ हमने लंगर में खाना भी खाया और गुरुद्वारे में ही बना हुआ संग्रहालय भी देखा जिसमें तस्वीरों द्वारा गुरु तेग़बहादुर की भी जीवनी दर्शायी हुई है। समय तेज़ी से बीतता जा रहा था, हम लोगों ने अपनी राह पकड़ी, और यमुनानगर तथा करनाल होते हुए दिल्ली की ओर बढ़ चले। यह मार्ग बहुत ही बढ़िया था और उस पर हमारी गाड़ी मस्त तरीके से भाग रही थी। एक ढाबे पर रोक सभी ने चाय आदि पी और मैंने डूब चुके सूर्य के पीछे आकाश में रह गए रंगों की तस्वीरें ले डाली।


चाय पी किसी को मज़ा नहीं आया, बुरा सा मुँह सभी उठे और निश्चय किया कि अब बस एक बार किसी अच्छी सी जगह खाना खाने के लिए ही रूकेंगे। मूर्थल पहुँच सुखदेव के प्रसिद्ध ढाबे पर हम भोजन करने को रूके। बाहर गर्मी थी, इसलिए हम अंदर वातानुकूलित जगह पर जाकर बैठे, परन्तु अभी बैठे कुछ मिनट ही हुए थे कि बिजली रानी नाराज़ हो गई और वातानुकूलित हॉल की ऐसी कि तैसी फ़िर गई। परन्तु खाना वाकई बहुत स्वादिष्ट था, इसमें कोई दो राय नहीं। परन्तु एक बात हमको असंजस में डाल रही थी कि बाहर तो लिखा था “सुखदेव ढाबा” और अन्दर की ओर “प्रकाश ढाबा” का बोर्ड लगा था। खैर हमको क्या, खाना बढ़िया था, बस वही बहुत था। यह तस्वीर उस ढाबे की, अपने फ़ुरसतिया जी के लिए, जिन्होंने एक बार कहा था कि किसी और की नहीं तो कम से कम रेस्तरां की फ़ोटो लगा देते। तो लीजिए देखिए, पेश-ए-खिदमत है। 🙂


बस अब देर सी हो रही थी, गाड़ी सरपट भाग ली, एक एक कर सभी को उनके घर छोड़ा गया, आखिर में मैं लगभग डेढ़ बजे वापस घर पहुँचा।

यह यात्रा भी बड़ी सुखमयी और आनंददायी रही, चक्राता पर्वत की अभी भी याद आती है, बहुत ही मनोरम और शांत जगह है, और ठण्डी भी है, बिलकुल बीयर की बोतल के माफ़िक!! 😉 यदि कुछ दिन प्रकृति के बीच शांत वातावरण में बिताने हों तो उसके लिए बहुत सही जगह है।