सभी जानने के लिए बेताब हैं कि क्या हुआ जयपुर की उस तथाकथित ब्लॉगर भेंटवार्ता में, जिसे कि यदि अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी ब्लॉगर भेंटवार्ता कहा जाए तो भी अतिश्योक्ति न होगा। पर क्या बताऊँ यह समझ नहीं आ रहा? क्या यह बताऊँ कि कदाचित जो आसार नज़र आ रहे थे उसके अनुसार तो यह ब्लॉगर भेंटवार्ता होनी ही नहीं थी, और एक गाँठ सी पड़ने का भी अन्देशा था!! 5 जुलाई तक सब ठीक ठाक था लेकिन गड़बड़ तो ऐन मौके पर ही होती है ना। पहले पहल जगदीश जी का फ़ोन आया और वे बोले कि वे नहीं जा सकेंगे क्योंकि उनकी मौसी की मृत्यु हो जाने के कारण उनका मौसी के घर जाना आवश्यक है। उन्होंने बड़ा अफ़सोस व्यक्त किया कि वे भेंटवार्ता में नहीं जा पाएँगे, परन्तु आखिर ऐसी स्थिति पर किसी का ज़ोर नहीं चलता, इसलिए कुछ कहा भी नहीं जा सकता। फ़िर प्रतीक बाबू को फ़ुनवा लगाया यह पूछने के लिए कि भाई चल रहे हो कि नहीं। इन्होंने 4 दिन पहले देर रात फ़ोन (और मुझे नींद से जगा) कर कहा था कि ये भी चलना चाहते हैं और दिल्ली से साथ चलेंगे। अब इन्होंने कहा कि सांय कुछ आवश्यक कार्य है आगरा में इसलिए दिल्ली से नहीं चलेंगे, जयपुर सीधे ही पहुँचेंगे!! मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ, मुझे लगा कि लो एक और बन्दा मुकर गया, ऐसा सोचा कि अब ये महाशय भी आने वाले नहीं और हमें गोली दे रहे हैं। हमने सोचा चलो कोई नहीं, देख लेंगे सबको!! 😉 पर अभी बस कहाँ थी, सांय काल होते होते पता चला कि संजय जी भी नहीं आ रहे अहमदाबाद से, क्योंकि उनके पिताजी का बुलावा आ गया था सूरत से और उनको वहाँ हाज़िरी देनी थी। अब तो वाकई टेन्शन हो गई, मिश्रा जी और नीरज भाई से फ़ोन पर पूछ डाला कि वे लोग तो चल रहे हैं ना या उन्हें भी कोई समस्या है!! शुक्र था कि उन लोगों को कोई समस्या नहीं थी। जीतू भाई ने एक बार सुझाव दिया कि जब वे लोग ही नहीं आ रहे जिनके लिए जयपुर में भेंटवार्ता रखी गई थी तो फ़िर इतनी गर्मी में वहाँ जा कर क्या करेंगे, इसके बजाय कहीं और चला जाए जैसे ऋषिकेश अथवा मसूरी आदि। पर मैंने कहा कि नहीं, हम तो जयपुर ही जाएँगे चाहे कुछ भी हो जाए और फ़ुल मजे ले उनको अपने छायाचित्रों में उतार ना जाने वाले लोगों को चिढ़ाएँगे कि देखो आप लोगों ने क्या छोड़ दिया!! 😉
तो ब्लॉगर भेंटवार्ता की बजाय एक घूमने फ़िरने वाली यात्रा पर मैं निकला। गाड़ी ठीक समय पर मेरे द्वार पहुँच गई। निश्चित समय पर मैं नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँच गया जहाँ रा.च.मिश्रा जी पहले से ही पहुँचे जीतू भाई का इंतज़ार कर रहे थे। आदतानुसार गाड़ी लेट आई, पर आई तो सही। साढ़े ग्यारह बजे मिश्रा जी ने मुझे फ़ोन लगाया कि वे लोग बाहर आ गए हैं तो मैं गाड़ी से उतर उन्हें लेने पहुँच गया। मिश्रा जी से मिले, जीतू भाई से हाथ मिलाया और गाड़ी की ओर बढ़ गए। मिश्रा जी ने खाना नहीं खाया था, इसलिए उनके लिए कुछ लेने डोमिनोस पहुँचे पर वह बन्द हो चुका था। मैंने कहा कि चलो शिवाजी स्टेडियम पर जो मैक्डॉनल्ड है वहाँ देख लेते हैं, पर वह भी बन्द। तो फ़िर हम नोएडा की ओर बढ़ चले अपने इंडिया टीवी के सितारे नीरज भाई को लेने। जैसे तैसे रास्ता पूछते उनके घर के निकट पहुँचे। वे अपना सामान ले बाहर आ चुके थे, सो उन्हें गाड़ी में बिठाया और अपना सफ़र आरम्भ किया। पता नहीं कितनी देर गाड़ी चली, उसके बाद सड़क किनारे गाड़ी रूकी और मेरे अतिरिक्त सभी ने चाय ली और मिश्रा जी ने यहीं पेट पूजा भी कर ली।
वाह उस्ताद वाह!! घंटों बाद कुछ खाने को मिले तो मज़ा ही कुछ और है!!
उसके बाद फ़िर गाड़ी उड़ चली। वातानुकूलित गाड़ी में ठंडक थी, हल्का संगीत चल रहा था और हमारे बीच हल्की फ़ुल्की बातें हो रही थी। पीछे बैठे जीतू भाई, मिश्रा जी और नीरज भाई के बीच कुछ गहन वार्ता चल रही थी, अपने को समझ नहीं थी कि क्या बात हो रही है इसलिए अपन चुपचाप बैठे रहे। चुपचाप बैठने के कारण नींद आने लगती और एकाध झपकी आ जाती, फ़िर हड़बड़ा के उठ बैठता क्योंकि गाड़ी चलाते ड्राईवर के बाजू में बैठ सोना नहीं चाहिए। पीछे बैठे लोग कदाचित् यह सोच जल-भुन रहे थे कि मैं आराम से सो रहा हूँ और वे फ़ालतू की बातें कर रात काली कर रहे हैं!! 😉 इसलिए नीरज भाई ने अपने ब्लॉग पर एडवांस रिपोर्टिंग के बारे में मेरी राय माँगी तो मैंने उन्हें अपने विचार बताए, मिश्रा जी टेक्नॉलोजी सम्बन्धित किसी विषय को लेकर बैठ गए तो अपन उस पर प्रवचन करने लगे, नींद सारी भाग गई थी अब और जयपुर निकट आता जा रहा था। दिन का उजाला फ़ैलने लगा और हम रास्ता पूछते पूछते शनिवार सुबह साढ़े पाँच बजे आखिरकार जयपुर क्लब पहुँच गए। क्लब हमें बन्द सा दिखा तो सोचा कि कहीं यह बन्द तो नहीं हो गया!! पर तभी एक गार्ड आता दिखाई पड़ा और उसे जब बताया कि हम लोगों की बुकिंग है तो वह हमें रिसेप्शन पर ले गया जहाँ से हमने अपना नाम आदि भर कमरे की चाबी ली और अन्दर जाकर पलंग पर पसर गए। अभी 5 मिनट भी नहीं बीते होंगे कि मुस्कुराते हुए हीरो बने प्रतीक बाबू ने कमरे में कदम रखा और सभी से हाथ मिला परिचय पाया। मैंने कमरे में मौजूद फ़्रिज खोल देखा तो उसमें एक ठंडी बीयर की बोतल पड़ी थी, पर किसी का बोतल लगाने का मूड नहीं था इसलिए चाय मंगाई गई जिसे आने में घंटे लग गए। और तभी प्रतीक बाबू ने हमें आगरे के मशहूर पंछी पेठा वाले के पेठे का डिब्बा दिया, तो सभी ने तबियत से उसका भोग लगाया। 😀
एक चाय पी जीतू भाई का मन नहीं भरा, देखा कि बिजली से चलने वाली एक केतली कमरे में है, टी-बैग भी थे और पानी भी। पर उस केतली का बिजली से जोड़ने वाला प्लग नहीं था, परन्तु हमने वह भी ढूँढ निकाला और रख दिया पानी उबलने। पानी ऊबल गया तो उसे उतारा गया और कप आदि तैयार थे ही। चाय पीने की लत ना होने के कारण मैं इन लोगों को आश्चर्य से देखे जा रहा था(कि ऐसी क्या बात है जो सभी बारंबार चाय सुड़कना पसंद करते हैं)। जीतू भाई से हमारा आश्चर्य कदाचित् सहन नहीं हुआ और उन्होंने मुझसे कहा कि यदि मैं कॉफ़ी पीता हूँ तो ले लूँ वह भी उपलब्ध थी। तो बस फ़टाफ़ट एक कॉफ़ी का पाऊच, एक दूध के पाउडर का पाऊच और 2 चीनी के पाऊच ले हम भी अपना कप तैयार किए और सुड़क सुड़क के कॉफ़ी पिए।
तत्पश्चात मैं और जीतू भाई नीचे ड्राईवर को ढूँढने गए और वहाँ विभिन्न खेल-कूद के बारे में जान सोचा कि क्यों ना थोड़ी देर टेबल टैनिस खेला जाए। ऊपर कमरे में फ़ोन किया तो बाकि लोग भी नीचे आ गए। परन्तु जीतू भाई की किस्मत ज़ोरों पर थी, टेबल-टैनिस के सामान वाले लॉकर की चाबी नहीं मिली रिसेप्शन वाले को और जीतू भाई मेरे से बुरी तरह हारने से बच गए!! 😉 😛 उसके बाद हमने उससे पूछा कि और क्या क्या है तो उसने कई खेलों के नाम बताए। स्विमिंग पूल के बारे में सुन जीतू भाई की बांहें तैरने के लिए फ़ड़क उठी और नीरज भाई तथा प्रतीक बाबू साथ देने के लिए तैयार हो गए। तुरंत तैराकी के वस्त्र उपस्थित हुए और उन्हें पहन तीनों भीड़ू लोग पानी में उतर गए। उसमें पहले से 2 लड़कियाँ और 3 लड़के तैर रहे थे, पर इन तीनों महापुरूषों के जाते ही दोनों लड़कियाँ पतली गली से कट ली और फ़िर दो लड़के भी निकल लिए। बस एक छोटा लड़का कुछ हिम्मत वाला था इसलिए वह मैदान छोड़ नहीं भागा। इधर प्रतीक बाबू नीरज भाई को तैरना सिखाने लगे कि किस प्रकार हाथ-पाँव मारे जाते हैं। ये लोग इसी तरह पूल में हुड़दंग मचाते रहे और मैं तथा मिश्रा जी इनकी हरकतों के गवाह बने फ़ोटो आदि उतारते रहे।
देखो मेंढक ऐसा होता है
(नोट: इन लोगों के हुड़दंग को हमने वीडियो पर उतार लिया था जो कि एक्सक्लूसिवली आपको हमारे यहाँ ही मिलेगा। उसके लिए थोड़ी प्रतीक्षा करें। अब वे वीडियो आप यहाँ पर देख सकते हैं।)
फ़िर तय हुआ कि इतने ये लोग खुले में स्नान का आनंद लें इतने में मिश्रा जी और मुझे भी नहा-धोकर तैयार हो जाना चाहिए। तो हम लोग भी शीघ्र तैयार हो गए और बाकी जने भी तैराकी का आनंद ले कमरे में वापस लौट आए।
अब हम लोग गाड़ी में बैठ क्लब से बाहर निकले और पेट पूजा का पिरोग्राम बनाया। तो फ़िर पूछते पूछते पहुँच गए रावत मिष्ठान भंडार, उसकी मशहूर प्याज़ कचौड़ी खाने। उसे खा मिर्च से मुँह जल गया, तो फ़टाफ़ट शीतलपेय की बोतलें लीं। दाल-बाटी का ऑर्डर देने पर जब बताया गया कि उसमें आधा घंटा लगेगा तो हम लोगों ने निर्णय लिया कि अभी निकल लेते हैं, बाद में देखेंगे दाल-बाटी को। हम रास्ते से निकल रहे थे कि एक गाईड हमारे पीछे पड़ गया, पूछने पर बोला कि 50 रूपये में जयपुर घुमा देगा, तो हमने उसे गाड़ी में खींच लिया। मुझे कुछ संदेह हो रहा था पर उसे नज़रअंदाज़ कर दिया। उस गाईड ने हमें झूलेलाल का प्रसिद्ध मन्दिर दिखाया और फ़िर हमें महारानी गायत्री देवी की फ़ैक्टरी में ले गया जहाँ हमने चादरों पर हाथ द्वारा प्रिंटिंग होते देखी। उसके बाद गाईड महोदय हमें दुकान में ले गए जहाँ 100 ग्राम आदि की गर्मी-सर्दी में चलने वाली रजाई आदि दिखाई गई। पर अब हम उस गाईड का इरादा समझ गए थे और रजाई बेचने वाले सेल्समैन को सिखा पढ़ा के बिना कुछ खरीदे(और उस गाईड की कमीशन बनाए) बाहर आ गए। हस्तशिल्प आदि के नमूने भी देखे, फ़ोटो सारी जमकर उतारी पर बिना खरीदे बाहर आ गए। अब तक गाईड के चेहरे पर थोड़ी निराशा आ रही थी। भरे मन से वह हमें एक और दुकान में ले गया जहाँ उसके कहे अनुसार ढाई तोले(लगभग 25 ग्राम) की जूती मिलती थी। यहाँ पर हम दुकान के द्वार से ही वापस आ गए(पर फ़ोटो आदि लेना ना भूले)। अब गाईड के चेहरे पर वाकई निराशा थी। उसके भाव से तो लग रहा था कि हमें और कुछ नहीं दिखाएगा लेकिन हमने भी सोच लिया था कि यदि उसने राजमहल आदि नहीं दिखाया तो उसे एक पैसा नहीं देना। शायद वह भी यह भाँप गया था, इसलिए बेमन से हमें जंतर-मंतर तक ले गया और वहाँ हमसे विदा माँगी। पूछने पर उसने बताया कि वह तो मात्र रोड-गाईड है जो कि रास्ते आदि दिखा देता है। मन तो कर रहा था कि आगे यह भी कह दूँ कि असल में ठग है जो कि कमीशन की खातिर गाईड बन जयपुर दिखाने के बहाने दुकानों पर ले जा सामान खरीदवाने के चक्कर में रहता है। गलती हमारी थी, हमें ही सरकार द्वारा ज़ारी किया उसका पहचान-पत्र देखने की माँग करनी चाहिए थी।
बहरहाल, उस तथाकथित रोड-गाईड को पैसे दे हम लोग जंतर-मंतर के अंदर गए, वहाँ एक सही गाईड लिया जिसने हमें जंतर-मंतर के प्रत्येक यंत्र के बारे में तफ़सील से इतिहास की तारीखों के साथ बताया। तत्पश्चात हम लोग बगल में मौजूद राजमहल की ओर चल दिए। प्रवेश शुल्क दे हम अंदर गए और सबसे पहले संग्रहालय देखा जिसमें राजा की 18वीं शताब्दी की पोशाक भी रखी थी। और भी कई ऐतिहासिक वस्तुएँ वहाँ रखी थी। फ़ोटो लेना मना था इसलिए उन्हें केवल देख कर ही संतोष किया। उसके बाद हमने शस्त्रागार देखा, वहाँ रखी पुरानी तलवारें, कटारें आदि देखी और कई बड़ी बड़ी बन्दूकें भी देखी। एक छोटी नाल वाली बंदूक मुझे इताल्वी माफ़िया द्वारा प्रयोग की जाने वाली शॉटगन “लूपो” की तरह लग रही थी(“लूपो” मैंने एक फ़िल्म में और एक तस्वीर में देखी है, कहाँ यह याद नहीं)। महल के और भी कई भाग देखे, तत्पश्चात हम थके-मांदे वापस क्लब आ गए। आते ही बोतलें खुल गई और घूँट पर घूँट लगने लगे। मिश्रा जी तो आते ही सो गए और मैं भी सुस्ताने लगा, पर सोया इसलिए नहीं क्योंकि मुझे जयपुर में एक मित्र के घर भी होकर आना था, मित्र तो फ़िलहाल मुम्बई में है इसलिए परिवार से ही मिलकर आना था। इधर नीरज भाई और प्रतीक बाबू, तरन्नुम में झूमते दूसरे कमरे में सुस्ताने चले गए। पाँच बजे मैं अपने मित्र के घर जाने के लिए निकल पड़ा, पर घर का पता थोड़ा अधूरा होने के कारण बहुत दिक्कत हुई। फ़िर मित्र को फ़ोन लगाया, तत्पश्चात जयपुर में उसके घर से उसके पिताजी का फ़ोन आया(मेरे पास उनका नया नंबर नहीं था) और उन्होंने दिशानिर्देश दिए जिसकी सहायता से आखिर घर पहुँच ही गए। वहाँ बैठ थोड़ी देर अंकल-आंटी से बातचीत हुई। वे खाना खाने के लिए रोक रहे थे पर उन्हें यह कह मना करना पड़ा कि अभी चोखी ढाणी जाने का कार्यक्रम है और वहीं खाना खाने का भी। आंटी फ़िर भी मानी नहीं और पेट भर नाश्ता तो करा ही दिया। खैर, मैं फ़टाफ़ट वापस क्लब पहुँचा तो वहाँ पहुँच पता चला कि एक जबरदस्त लफ़ड़ा पीछे से हो गया था। हुआ यूँ कि हम लोगों के पास सुबह एक ही कमरे की बुकिंग थी, नाश्ते पर जाते समय हमने कहा कि दूसरा कमरा यदि बगल ही में दे सकें तो बढिया होगा। वापसी पर चाबी माँगने पर उन्होंने हमें बाजू वाले कमरे की भी चाबी दे दी, बाद में उसी में नीरज बाऊ और प्रतीक जाकर सो गए थे। अब हुआ यूँ कि रिसेप्शन पर किसी ने देखा और तुरंत वो दूसरा कमरा हमसे वापस लिया क्यों कि वह कमरा तो किसी और को दिया हुआ था और उसका सामान भी पड़ा हुआ था जिसे हमारे तेज़तर्रार समाचार चैनल वाले नीरज साहब और भूसे के ढेर में से हिन्दी ब्लॉग चुन लेने वाले प्रतीक बाबू ना देख पाए(लगता है बोतल सिर चढ़ के बोल रही थी)। फ़िर हमें उस कमरे के बाजू वाला कमरा दिया गया जो कि शुक्र है कि खाली था!! 😉 अब वो तो यूँ गनीमत हुई कि कमरे में ठहरा बन्दे ने आकर रेसेप्शन पर चाबी नहीं माँगी थी वरना यह सनसनीखेज खबर बनती कि इंडिया टीवी के स्टॉर टुन्न हालत में क्लब में किसी दूसरे के कमरे में पाए गए!!! 😉 😛
बहरहाल, मामला ज़रा लेट हो रहा था इसलिए बिना किसी लाग-लपेट के सभी चोखी ढाणी जाने के लिए निकल लिए। राजमार्ग पर अपनी वातानुकूलित शेवरलेट टवेरा उड़ी जा रही थी और शीघ्र ही हम लोग मन्ज़िल पर पहुँच गए। अंदर जाने के लिए 225 रूपए का टिकट लगता है और उसके लिए लाईन लगी थी। जीतू भाई को लाईन में लगा हम लोग बाजू में आराम से खड़े हो गए। टिकट ले अंदर प्रवेश किया तो द्वार के बगल में एक व्यक्ति देहाती वेश में बैठा शहनाई बजा लोगों का स्वागत कर रहा था। स्वागत में हम लोगों के मस्तक पर टीके भी लगा दिए।
अंदर तो पूरा राजस्थानी गाँव ही बसा रखा था। प्रवेश करते ही हमें एक लोहार अपना कार्य करता दिखा।
थोड़ा आगे गए तो हमें चंपी(सिर की तेल मालिश) करने वाले दिखे। बस फ़िर क्या था, हमने जीतू भाई को यह कह बिठा दिया कि आप चंपी करा आनंद भोगो, हम आपकी तस्वीर उतार के आनंद लेते हैं। 😉 तो बस फ़िर क्या था, जीतू भाई फ़ौरन चंपी कराने बैठ गए और हमने उनकी तस्वीर उतार डाली। क्या सही पोज़ आया है, ऐसा पोज़ तो सिन्डी क्रॉफ़र्ड भी नहीं दे सकती!! 😉 😛
थोड़ा और ज़ोर लगाओ उस्ताद, अभी तो मज़ा आना शुरू हुआ है!!
उसके बाद हम लोग लोक नृत्य करती नर्तकियों के पास जा उनके नृत्य का आनंद लेने लगे(और फ़ोटो भी)।
तत्पश्चात हमने वहाँ मौजूद कई चीज़े देखी, जादू का खेल देखा, तीर-कमान से निशाना भी लगाया पर सही लगा नहीं। तरकश वाले संजय भाई होते तो लगा लेते, भई आखिर आए दिन बड़े बड़े तीर छोड़ काफ़ी अभ्यास हो गया है, तभी तो अपना चुनाव चिन्ह तीर भरा तरकश रखा है!! 😉 फ़िर हमने पुनः दूध की बनी बढ़िया कुल्फ़ी फ़ालूदा खाया, खाकर मज़ा आ गया, यम यम!! 😀 उसके बाद हम लोग इधर उधर घूमने लगे, दो गुट बन गए, जीतू भाई, नीरज और प्रतीक बाबू अलग घूम मौज लेने लगे तथा मैं और मिश्रा जी तस्वीरें लेने लगे। राजस्थानी लोक संगीत सुना जो कि बहुत मधुर था, पुराने बर्तनों का अजायबघर देखा और जब बहुत हो गया और रात्रि के नौ बज गए तो पेट पूजा करने की सोची। अब वहाँ खाना(उसके पैसे प्रवेश शुल्क में ही जुड़े थे) खाने के दो विकल्प थे, या तो शादी पार्टियों की तरह टेबल पर रखे व्यंजनों आदि में से जो-जो पसन्द हो वह ले आराम से कुर्सी पर बैठ खाया जाए अथवा बगल में बने भोजनगृह प्रकार की जगह पर ज़मीन पर बिछी चटाई पर बैठ छोटी चौकियों पर रख खाया जाए जहाँ भोजन परोसने वाले थे जो आपको प्रेमपूर्वक भोजन कराते। हमने दूसरा विकल्प चुना, अब यह विकल्प लगभग सभी चुन रहे थे इसलिए अपना नंबर आने में थोड़ा समय लगा। नंबर भी आ गया और भोजन भी, भिन्न प्रकार सब्ज़ियाँ, कई प्रकार की रोटियाँ और उन पर लगाने के लिए शुद्ध सफ़ेद माखन, वाह भई वाह, मज्जा ही मज्जा!! और खाना इतना स्वादिष्ट कि बस पूछो ही मत, पेट भर गया पर ना खाने वालों का मन भरा और ना ही खिलाने वालों का जो कि जबरन अधिक रोटी आदि परोसे जा रहे थे। और खाने के साथ यदि छाछ हो तो कहने ही क्या, फ़िर पानी की क्या आवश्यकता, आपका छाछ अथवा पानी का गिलास खाली हुआ नहीं कि वह पुनः भर दिया जाता। खाने के पश्चात नंबर आता है मिष्ठान का, तो उसमें हमें दी गई खिचड़ी जिस पर डाला गया घी और उसके ऊपर बूरा, खाकर मज़ा आ गया। फ़िर आए घी में बने मालपूए, उनकी तो बस पूछो ही मत, बहुत स्वादिष्ट थे। खाना खाकर अंत में जब हम लोग उठे तो पता चला कि कुछ अधिक ही हो गया, अब तो थोड़ा इधर-उधर टहल कर हल्का होना पड़ेगा वरना दिक्कत हो जाएगी। सो हम लोग थोड़ा इधर उधर टहलने के बाद वापस लौट पड़े और वापस आते ही बिस्तर पर पसर गए। बहुत घूम फ़िर लिए थे, अब तो बस तगड़ी नींद आ रही थी(और मैं तो वैसे भी दो दिन से सोया नहीं था)।
अगले दिन सुबह छह बजे अलार्म बजा तो अपन उठ बैठे, ठंड लग रही थी इसलिए एयरकंडीशनर बन्द किया और मिश्रा जी को उठाने लगा। वो उठे तो दूसरे कमरे में फ़ोन लगवाया कि नीरज और प्रतीक बाबू को भी जगा दें पर नहीं लगा, इतने में जीतू भाई भी उठ गए। चाय आदि पीकर और तैयार हो हम लोगों ने क्लब से चेकआऊट किया और निकल पड़े आम्बेर के किले की ओर। मार्ग में जीतू भाई ने राजस्थानी लोक संगीत की कुछ सीडी आदि ली। जल्द ही हम लोग आम्बेर के किले के पास पहुँच गए जहाँ पता चला कि आगे रास्ता खराब है इसलिए यदि जीप कर ली जाए तो बढ़िया रहेगा। जीप के साथ हम लोगों ने गाईड भी किया और आगे चल दिए।
आम्बेर किला जो कि आमेर फ़ोर्ट के नाम से भी जाना जाता है
आगे का वृतांत अगले अंक में ज़ारी …..
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