गतांक से आगे …..
तो हम गाईड लिए किराए की जीप में आगे बढ़ चले। पर थोड़ा रूकें, एक बात तो बताना भूल ही गए!! गाईड और जीप लेकर चलने से पहले नीरज भाई तथा प्रतीक बाबू ने टशन में आ एक एक बीयर की बोतल पकड़ फ़ोटो खिंचवाने की फ़रमाईश की, तो हमने उन्हें निराश नहीं किया, आप भी मत करें और यह फ़ोटो देखें। 😉
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किन्गफ़िशर ज़िन्दाबाद
हाँ तो अब आगे बढ़ते हैं। मिश्रा जी दबादब फ़ोटो लिए जा रहे थे, तो उनको जबरन पकड़ साथ लिया और हम बमय जीप तथा गाईड आम्बेर किले की ओर चल दिए। अंदर का नज़ारा बहुत ही बढ़िया था। गाईड ने बताया कि आम्बेर किला लगभग 350 वर्ष पुराना है तथा जयपुर बसने से पहले शाही परिवार यहीं रहता था। अब यह भारत सरकार की संपत्ति है। आम्बेर किले के भीतर राजस्थानी तथा मुग़ल, दोनों ही तरह की शिल्प-कला के नमूने मौजूद हैं, दीवारों आदि पर दोनों कलाओं का समावेश है।
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आम्बेर के किले के भीतर मुग़ल कला को दर्शाता द्वार
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मार्बल के बने और शानदार हस्तकला के नमूने ये स्तंभ
वहाँ हमने केसर बाग़ का ऊपर से ही नज़ारा किया। गाईड ने बताया कि यहाँ राजा ने कश्मीर से मँगा कर केसर उगाया गया था पर राजस्थान के गर्म मौसम के कारण वह उग नहीं पाया, परन्तु नाम उसका अवश्य टिक गया।
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केसर बाग़ जहाँ केसर तो नहीं टिका पर नाम टिक गया
किले के अंदर बने कमरे आदि देखते हम राजा के रात्रि के कमरे पर पहुँचे जो कि तीन दिशाओं से बंद था और चौथी ओर एक बड़ा सा काले चिकने पत्थर का बरामदा था जहाँ गायन और नृत्य की महफ़िलें लगती थी। पर यहाँ की दीवारों को अंदर से देख बहुत ही कोफ़्त हुई, क्योंकि उन पर यथावत भारतीय लोगों की मोहर लगी थी जो हर जगह देखने को मिल जाती है, आप भी देख लें।
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आधुनिक भारत का शिलालेख
आम्बेर किले में घूम फ़िर कर हमने खूब फ़ोटो आदि लिए, एक दूसरे के भी तथा औरों के भी!! 😉 किला देख दाख के जब हम लोग फ़ारिग हुए तो गाईड से पता चला कि लगभग 5 किलोमीटर की दूरी पर जयगढ़ किला है जो कि 1000 वर्ष से भी पुराना है। लगभग ढाई बजे का समय हो रहा था, जीतू भाई को टेन्शन हो रही थी कि समय से दिल्ली पहुँच पाएँगे कि नहीं, पर अपन जिद पर अड़े रहे कि जयगढ़ का किला भी देखना है। आखिरकार बालहठ हमेशा की तरह विजयी हुई। वापस पार्किंग में पहुँच हमने किराए की जीप को विदा दी पर गाईड को पकड़े रखा और अपनी गाड़ी में जयगढ़ की ओर बढ़ चले।
गाईड ने बताया कि यह किला करीब 1000 वर्ष पूर्व दोसा नामक गाँव में रहने वाले राजपूतों ने बनाया था। उस समय यहाँ मीणा जाति के लोग रहते थे जिन्हें मार भगाया और यह किला बनाया। आम्बेर किले के बनने तक जयपुर का शाही परिवार इसी जयगढ़ के किले में रहता था। यह किला अभी भी शाही परिवार की निजि संपत्ति है। गाईड के कहे अनुसार हम लोगों ने अपने साथ साथ अपनी गाड़ी का भी टिकट कटाया और गाड़ी अंदर ले चले। इसी किले के सबसे ऊँचे बुर्ज पर दुनिया की सबसे बड़ी पहियों वाली तोप “जयवाण” रखी है, तो सबसे पहले हम उसी को देखने पहुँचे। गाईड ने बताया कि इस तोप की नली अष्ट धातु की बनी है जिसका वज़न लगभग 40 टन है!! इसमें 50 किलो का गोला डलता था और इसे केवल एक बार जाँचने के लिए चलाया गया था तो इसका गोला लगभग 35 किलोमीटर दूर जाकर गिरा था। उस जगह पर आज एक गाँव है और लगभग 300 वर्ष पहले चली इस तोप के गोले से बना गड्ढा आज भी मौजूद है।
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पहियों पर मौजूद दुनिया की सबसे बड़ी तोप "जयवाण"
गाईड ने आगे बताया कि इस तोप को हिलाने और घुमाने के लिए दो हाथियों का प्रयोग किया जाता था, तोपची को इसे अग्नि दिखाते ही पानी के एक कुन्ड में डुबकी लगानी होती थी क्योंकि इसके चलने की ध्वनि इतनी तीव्र होती थी कि वह बहरा हो सकता था या कदाचित् हृदयाघात भी हो सकता था। गाईड ने बताया कि जब इसे परीक्षण के लिए चलाया गया था तब इसकी अति-तीव्र ध्वनि के कारण किले में उपस्थित सभी गर्भवती महिलाओं का गर्भपात हो गया था!! इस तोप का नक्शा आदि मुग़ल बादशाह अक़बर के सिपहसालार राजा मानसिंह अफ़गान लड़ाई से लौटते समय अफ़गानिस्तान से लाए थे परन्तु इसे लगभग 350 वर्ष पूर्व सवाई राजा जयसिंह ने बनाया था, वही जिन्होंने जंतर-मंतर बनवाया, जयपुर बसाया। इसी कारण इस तोप का नाम उनके नाम पर पड़ा। वाकई, यह राजा जयसिंह बड़े कारीगर बन्दे थे!! 😉
एक बात जिस पर मुझे आश्चर्य नहीं हुआ वह यह कि यहाँ इस तोप के बाजू में भी कोका-कोला और पेप्सी पहुँच गई, यकीनन जिस समय तोप बनी उस समय तो यह उपलब्ध नहीं थी!! 😉 😛
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यकीनन कोका कोला किले के प्रयोग के समयकाल में नहीं थी
इसके बाद गाईड ने हमें किले की पानी की टंकियाँ दिखाई जिनमें बारिश के पानी को एकत्र कर पीने और अन्य कार्यों के लिए प्रयोग किया जाता था। यहाँ तीन टंकिया उपस्थित थी, दो छोटी तथा एक बड़ी। छोटी टंकियों में पानी सीधे जाता था तथा उससे साफ़ हो बड़ी टंकी में जाता था जो कि काफ़ी बड़ी थी। ऊपर तो उसकी छत का ही भाग दिख रहा था, बाकी ज़मीन के भीतर था। उसकी छत लगभग 85 स्तंभों पर टिकी हुई थी और गाईड ने बताया कि सन् 1975 में जब इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री थीं, उस समय यहाँ इसी टंकी के फ़र्श के नीचे से कई सदियों पुराना खज़ाना निकला था। गाईड ने खुलासा करते हुए बताया कि इस टंकी में मौजूद हज़ारों लाखों गैलन पानी को निकाल लगभग डेढ़ महीने तक खुदाई चली थी जिस दौरान जयपुर में फ़ौज का घेरा था जिस कारण न कोई आ सकता था और न जा सकता था। बाद में खबर को दबा दिया गया और सरकार ने इस बात से इन्कार किया कि कोई खज़ाना मिला है। गाईड के अनुसार कांग्रेस सरकार और इंदिरा गाँधी सब डकार गए। वैसे इस बात से तो मैं भी इन्कार करना पसन्द नहीं करूँगा, पर वह फ़िर कभी, अभी जयपुर यात्रा का हाल-ए-बयान ज़ारी रखते हैं। 😉
इसके पश्चात किले में मौजूद जयगढ़ रेस्तरां से ले (मेरे अतिरिक्त)सभी ने चाय सुड़की। बहरहाल हम लोग आगे बढ़े और किले में मौजूद राम-हरि के मंदिर पहुँचे जिसकी स्थापना करीब सन् 1225 में हुई थी।
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लगभग 900 वर्ष पुराना "राम हरि" का मंदिर
तत्पश्चात लगे हाथों इस मंदिर के बाजू में मौजूद भैरव के मंदिर को भी देखा जो कि इस किले जितना ही पुराना है, यानि कि 1000 वर्ष पुराना।
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1000 वर्ष से भी पुराना भैरव का मंदिर
तत्पश्चात हमने किले की सबसे ऊपर की मंज़िल से किले के पीछे मौजूद सरोवर आदि देखा, राजा मानसिंह द्वारा बादशाह अक़बर की शान में बनवाई गई अक़बरी मस्जिद के दूर से दर्शन किए, भिन्न भिन्न मुद्राओं में अपने फ़ोटो खिंचवाए, औरों के खींचे। अब हमें देर भी हो रही थी, इसलिए वापस लौटने का निर्णय लिया। गाईड को नीचे आकर जहाँ से लिया था वहीं छोड़ दिया और अपने रास्ते लग लिए। प्रतीक बाबू हमारे साथ ही दिल्ली चल रहे थे। जयपुर से बाहर निकल सड़क किनारे सभी भाई लोगों ने भोजन किया और हमने केवल वेजिटेबल रायते का भोग लगाया, दही एकदम ताज़ा, मीठा और ठंडा था, भई फ़ुल मज़ा आया!! 😀
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उसके बाद कहीं ना रूके, सीधे गाड़ी भगाए रहे। गुड़गाँव तक पहुँचते पहुँचते बरसात होने लगी थी और जीतू भाई अपने साथ जवानी के दिनों में बीते एक भूतिया हादसे का वर्णन कर हमारी हवा टाईट करने का प्रयत्न कर रहे थे। बड़े बुजुर्ग हैं इसलिए इज़्ज़त देते हुए अपन ने भी कहानी में थोड़ी दिलचस्पी दिखा दी वरना अपन ऐसी चीज़ों को ज़्यादा भाव नहीं देते। 😉
दिल्ली पहुँचते पहुँचते रात गहरा गई थी, इसलिए जीतू भाई ने पहाड़गंज जाकर अपने मित्र के घर से अपना सामान उठाने का विचार त्याग दिया और मालवीय नगर में हमसे विदा ली। तत्पश्चात हमने नोएडा में नीरज बाबू को छोड़ा और फ़िर तेज़ होती बरसात में बढ़ चले गाज़ियाबाद की ओर जहाँ पहले प्रतीक बाबू से और तत्पश्चात मिश्रा जी से विदा ली। इन साहबान की मंज़िलें ढूँढने में बहुत समय लगा, रात्रि का एक बज रहा था जब वापस दिल्ली में प्रवेश किया और गाड़ी हमार घर की ओर उड़ चली और लगभग डेढ़ बजे बरसात में अपन घर पहुँचे।
जयपुर यात्रा का यह अनुभव बहुत अच्छा रहा। मैं पहली और आखिरी बार जयपुर दूर के रिश्ते की बहन के विवाह में लगभग 5-6 वर्ष की आयु में गया था और उस समय जयपुर भ्रमण नहीं किया था। दूसरी बात यह कि अभी तक जिन भाई लोगों से(जीतू भाई, मिश्रा जी और प्रतीक बाबू) केवल इंटरनेट द्वारा बातचीत होती थी उनसे पहली बार मिलना हो रहा था। सभी बन्दे बड़े फ़ंडू टाईप के निकले और यात्रा का पूरा मज़ा लिया गया। आशा है ऐसा जल्द ही पुनः करने का अवसर मिलेगा। 🙂
और नीरज भाई तथा प्रतीक बाबू के कारनामों से लैस जयपुर क्लब के तरणताल में फ़िलमाया गए वीडियो यहाँ उपलब्ध हैं। इन वीडियो में जीतू भाई ने स्पैशल अपीयरैन्स दी है, तथा स्पॉट ब्वॉय का कार्य मिश्रा जी ने किया। निर्माता-निर्देशक तथा कैमरामैन अपन थे!! 😉
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