अस्वीकरण: यह लेख एकाध अन्य लेखों और वैसी मानसिकता रखने वालों को धरातल पर लाने का प्रयास है। इसमें आलोचना भी है, कटाक्ष भी है, और व्यंग्य भी है, लेकिन किसी का अपमान करने का इरादा नहीं है। यदि आप इस सबको सही भावना से नहीं ले सकते तो कृपया आगे नहीं पढ़ें। कोई भी असभ्य टिप्पणी तुरंत मिटा दी जाएगी। आपको सावधान कर दिया गया है, आगे जो हो उसके ज़िम्मेदार आप स्वयं हैं।

यह कोई नई बात नहीं, ऐसे मुद्दे पहले भी उठते आए हैं, आगे भी उठते आएँगे। सवाल यह है कि इन बेकार के मुद्दों पर हम अपना कितना समय व्यर्थ करने के लिए तैयार हैं? आज दो व्यक्तियों के विचार पढ़ लगा कि थोड़ा समय मुझे भी निकालना चाहिए इस व्यर्थाग्नि में आहुति देने के लिए।

यहाँ इस मुद्दे की शुरुआत हुई सृजनशिल्पी जी के लेख “सत्ता की साजिश और भूमंडलीकरण” से जिस पर संजय भाई की टिप्पणी से तथाकथित हलचल हुई, कुछ लोगों के पंख हिले। ज़्यादा कुछ नहीं संजय भाई ने बस इतना ही कहा था:

मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ की पेप्सी का विरोध करने से क्या सबको पानी मिल जाएगा या फिर पाँच सितारा स्कुलो को रोक कर सबको शिक्षा मिलना तय हो जाएगा?

बात तो उनकी तर्कसंगत है, परन्तु यहाँ ज़रा तर्क को हम साईड में लगा देते हैं, उससे हर किसी का पाला नहीं पड़ता। 😉 तो हम आगे बढ़ते हैं। सृजनशिल्पी जी ने एक अन्य पोस्ट इस विषय पर लिखी जिसमें उन्होंने दो बातें बताई।

  1. संजय भाई की टिप्पणी से कुछ चिट्ठाकार लोग क्षुब्ध हुए लेकिन अपनी प्रतिक्रिया उन्होंने इसलिए व्यक्त नहीं की ताकि संजय भाई को बुरा न लगे।
  2. संजय भाई की और उनके जैसी मानसिकता रखने वाले लोगों को लाईन पर लाने के लिए किसी प्रोफ़ेसर साहिब का लेख छापा।

तो भई पहली वाली बात पर तो संजय भाई अपना मत ज़ाहिर कर ही चुके हैं, उसमें कहने को कुछ खास है नहीं, इसलिए उस व्यर्थाग्नि में मैं कोई आहुति नहीं दे रहा। अनूप जी ने जो अपनी टिप्पणी में सहमति असहमति वाली बात कही उससे मैं भी सहमत हूँ। प्रजातंत्र है भई, हर कोई अपनी अपनी सोच रखने के लिए स्वतंत्र है। क्या वे क्षुब्ध चिट्ठाकार यह समझते हैं कि जिस बात से वे सहमत हैं उससे सभी को समहत होना आवश्यक है?? यदि ऐसा समझते हैं तो कम से कम इस बात को कहने का जिगरा भी होना चाहिए, नहीं तो जो समझना है समझते रहो, समझने पर अभी हमारी सरकार ने कोई टैक्स नहीं लगाया है!! 😉 दूसरी वाली बात पर आते हैं, वो व्यर्थता के मापदण्ड पर अधिक महत्व रखती है इसलिए आहुति उसी को मिलनी चाहिए। 😉

हाँ तो साहबान, बात यह है कि सृजनशिल्पी जी ने जिन प्रोफ़ेसर साहब का लेख छापा वे दिल्ली विश्वविद्यालय के गणित विभाग के विभागाध्यक्ष रह चुके हैं। खैर हमें उनकी जॉब प्रोफ़ाईल से क्या करना, हमें तो केवल उनके विचारों से आपत्ति है क्योंकि वे बहुत ही सीमित ज्ञान पर आधारित मालूम पड़ते हैं और बड़ा निष्कर्ष निकालते हैं।

तो प्रोफ़ेसर साहब लिखते हैं:

भारतीय बाजार में उतरने के बाद एक कोल्ड ड्रिंक कम्पनी की उच्च स्तरीय प्रबंध समिति ने अपने मूल मंत्र की घोषणा की–“हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है, पानी”। बात सीधी थी–गर्म देश में राह चलने वाले को पानी न मिले तो झक मारकर आदमी प्यास बुझाने के लिए कुछ भी लेगा, किसी भी कीमत पर लेगा। रणनीति बनी, योजनाएँ बनाई गई कि सार्वजनिक स्थानों पर पानी कम से कम मिले। सार्वजनिक स्थानों–बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों पर लगे नल सूखने लगे। जब गाड़ियों का समय होता तब विशेष रूप से नल बन्द रहने लगे। रेलों में, बसों में, विशेष रूप से नल बन्द रहने लगे। रेलों में, बसों में बोतलों की टनटनाहट और फेरीवालों की आवाज “कोल्ड ड्रिंक….कोल्ड ड्रिंक” तेज होती गई।

अब गोया कोल्ड ड्रिंक कंपनी की उच्च स्तरीय समिति ने ऐसी बात कही होगी तो ज़ाहिर है कि खुल्लम खुल्ला तो नहीं कही होगी, आपस की बात होगी, तो इन साहब को कैसे पता चली?? क्या राज़ है इसमें मास्टरजी??

खैर वे आगे लिखते हैं कि:

इस नए युग में पानी का ही नहीं, लस्सी, ठंडई, तरह तरह के शरबत और स्वास्थ्यवर्धक फलों के रस का स्थान मोटापा बढ़ाने वाले, दाँत और हड्डी गलाने वाले अल्कोहल युक्त पेप्सी और कोक ने ले लिया।

तो गोया मास्टरजी को यह नहीं पता कि लस्सी, शरबत और स्वास्थयवर्धक फ़लों के रस के सेवन से भी मोटापा और गैस आदि की समस्या होती है। यकीन नहीं आता तो किसी भी डॉक्टर के पास चलिए हम आपको तसल्ली करवाए देंगे। लेकिन किसी सरकारी डॉक्टर के पास नहीं जाएँगे, हम किसी समझदार डॉक्टर की सलाह दिलवाना चाहते हैं मास्टर जी को। 😉

आगे लिखते हुए मास्टर जी कहते हैं:

फिर पानी की बदनामी होने लगी। जी हाँ, सार्वजनिक स्थानों पर उपलब्ध पानी की, नगर निगमों द्वारा वितरित पानी की, रेल प्रशासन द्वारा स्टेशनों पर उपलब्ध कराए गए पानी को गन्दा और पीने लायक न होने की बात फैलाई गई।

तो मास्टरजी, कभी आप रेलवे स्टेशन, बस अड्डे आदि पर बने प्याऊ आदि पर गए हैं? गए होते तो ऐसा नहीं कहते। कोई बात नहीं, हम ज्ञानवर्धन किए देते हैं। बात यूँ है मास्टर जी कि इन स्थानों पर जो प्याऊ होते हैं, उनकी सफ़ाई आदि का कदाचित्‌ ही ध्यान रखा जाता है, तो अस्वच्छ तो अपने आप हो गए। पानी की स्वच्छता को तो एक बार को गोली मारो, लेकिन जिस टूटी से वह निकलता है जब उसपर और आसपास गंदगी पड़ी होगी तो पानी तो अपने आप पीने लायक नहीं रहेगा, चाहे उसमें से बोतलबंद पानी निकल रहा हो!! अब यह मत कह देना मास्साब कि यह प्याऊ आदि की इस दुर्गति की ज़िम्मेदार भी कोला कंपनियाँ हैं। 😉

आगे इन मास्साब का कहना है:

गाँधीजी ने एक बार ही पानी पीकर कुल्हड़ को तोड़ देने को मनुष्य के श्रम का अपमान बताया था। सन्त तिरुवल्लुवर ने साड़ी को नष्ट करके, पैसा देकर उसकी भरपाई करने वाले की मूर्खता की कथा सुनाई थी। पानी पीकर बोतल तोड़ते हुए जब लोगों को देखता हूँ तो लगता है कि गाँधी-तिरुवल्लुवर की गर्दन मरोड़ी जा रही है। एक लीटर पानी पीकर तीन रुपये की प्लास्टिक की बोतल तोड़ना यूज एंड थ्रो संस्कृति में ढालने का बेजोड़ उदाहरण है। रेलवे लाइन पर सभी जगह टूटी हुई प्लास्टिक की बोतलों की सजावट देखी जा सकती है। फटेहाल बच्चे इन बोतलों को उठाकर बेचने न ले जाते तो सुप्रीम कोर्ट को इस अम्बार की सफाई करने का आदेश रेलवे प्रशासन को देने के लिए मजबूर होना पड़ता। वैसे, वैष्णो देवी की यात्रा के रास्ते में टूटी प्लास्टिक की बोतलों का भक्तों द्वारा चढ़ाया जा रहा अम्बार यदि ऐसे ही बढ़ता रहा तो कुछ वर्षों बाद वैष्णो देवी यात्रा को भी बन्द करना पड़ेगा, जैसा कि फूलों की घाटी को बंद करना पडा था।

मास्साब, एक बात कहना चाहूँगा। कभी कोई कार्य करने से पहले आप सोचते हैं कि ऐसा क्यों किया जा रहा है? या भेड़चाल के तहत बस कर देते हैं क्योंकि सभी ऐसा कर रहे हैं?? यह 2 + 2 वाला फ़ंडा नहीं है जहाँ हमेशा उत्तर 4 ही आएगा। पुनः ज्ञानवर्धन हम किए देते हैं। पानी पीकर बोतल तोड़ने को इसलिए कहा जाता है ताकि बिना पुनर्चक्रण के वे बोतलें प्रयोग ना हो सकें। अब उनका पुनर्चक्रण करना हर किसी के बस का रोग नहीं, तो इसका यह लाभ कि कुछ असमाजिक तत्व उन बोतलों को इकट्ठा कर उसमें नल का पानी भर उसे दोबारा पैक कर न बेच सकें। अब आप कहने लगेंगे कि भई यह तो गलत बात है, गरीब लोगों का रोज़गार मारा जा रहा है उन्हें बोतलें दोबारा पैक कर बेचने से रोक कर, तो मास्साब, कल को यह नहीं कहना कि चोर को पकड़ क्यों उसके पेट पर लात मारी जा रही है, आतंकवादी को मारते क्यों हो वो तो अपना काम ही कर रहा था बेचारा गरीब!! और रही बात बोतलों के बढ़ते ढेर की, तो मास्साब, आप सरकारी सफ़ाई विभाग का आलस्य क्यों नहीं देखते, लोगों की जेब तुरंत साफ़ कर देने वाले अपने काम यानि कि असली साफ़ सफ़ाई से मुँह मोड़े खड़े हैं, तो कूड़े का ढेर तो अपने आप ही लगेगा ना?? 😛 बस…..बस…..मास्साब, हम समझ सकते हैं आपकी मनोस्थिति, कुछ मत कहिए!! 😉

बहरहाल, आगे मास्टर जी लिखते हैं:

घर में खरीदकर पानी पीने वाले नौकरों और सामान्य अतिथियों के लिए सरकारी पानी ही प्रयोग करते हैं। खरीदे हुए पानी को नौकर-चाकरों से बचाकर रखने की रणनीति अपनाई जाती है।

क्या “खरीदा हुआ” पानी लगा रखा है? घर में जो पानी आता है वो मुफ़्त में आता है?? आपका तो पता नहीं मास्टर जी पर हमारे यहाँ और लाखों अन्य लोगों के घरों में वरुण विभाग ने मीटर लगा रखे हैं जिस पर दर्ज होता है कि वह घर एक माह में कितना पानी इस्तेमाल करता है और उसके अनुसार उस घर के लोगों को वरुण विभाग को प्रयोग किए गए पानी का नकद भुगतान करना पड़ता है। तो नल में आने वाला पानी मुफ़्त तो कहीं से नहीं हुआ!! और हमने अभी एक्वागार्ड और फ़िल्टर आदि द्वारा पेयजल के शुद्धिकरण में लगने वाली बिजली को तो गिना भी नहीं। तो क्या “खरीदा हुआ पानी” का रट्टा लगा रखा है? हम मुफ़्तखोर नहीं है, आपकी कह नहीं सकते!! 😉 और पानी पिलाना यदि पुण्य का कार्य है तो ये जाकर वरुण विभाग वालों को बताओ जो पैसे लेने के बावजूद सड़ा गंदा पानी सप्लाई करते हैं!! फ़िर वो बताएँगे आपको कि क्या और कितना पुण्य का कार्य है। 😉

अजी अभी कहाँ जाते हैं, मास्टर जी के पास अभी मसाला समाप्त नहीं हुआ। वे आगे फ़रमाते हैं:

पहले सार्वजनिक शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के साथ भी यही किया गया। फलस्वरूप, अमीरों के स्कूल अलग और गरीबों के अलग, अमीरों के अस्पताल अलग और गरीबों के अस्पताल अलग हो गए। अब बँटवारा हो रहा है, अमीर का पानी और गरीब का पानी।

वैसे इसका उत्तर भी संजय भाई ने सही तरीके से दिया है, लेकिन ताबूत में एकाध कील मैं भी ठोक देता हूँ। मास्टर जी को कदाचित्‌ यह ध्यान नहीं रहा कि पुरातन समय में भी ऐसा होता था, राजबालकों के गुरुकुल अलग भी होते थे जहाँ आम जनता के बालकों को शिक्षा नहीं दी जाती थी। राजसी खाने और आम जन के खाने में पहले भी ज़मीन आसमान का अंतर होता था, अब पानी को फ़िल्टर करने आदि की तकनीक और मशीने नहीं थी उनके पास वरना राजसी पानी भी आम जन के पानी से अलग हो जाता!!! 😉

तो गौरतलब बात यह है कि यहाँ किस चीज़ पर बहस हो रही है? यहाँ बहस की जड़ अमीर-गरीब के बीच का फ़ासला है। अब कुछ लोग इसको बदल देना चाहते हैं, ऐसे घाट बनाना चाहते हैं कि जहाँ शेर और बकरी एक साथ पानी पिएँ। अच्छी बात है, लगे रहो, यही कह सकते हैं हम, क्योंकि हम जैसे खुले विचारों की मानसिकता रखने वाले जानते हैं कि ये लोग एक भ्रम में जी रहे हैं, जीवन की सच्चाई से अभी अवगत नहीं हैं। जीवन की सच्चाई यह है कि अमीर-गरीब का फ़ासला आज का नहीं है, जब से मानव सभ्यता जन्मी है तभी से है, हज़ारों वर्षों से यह फ़ासला बना रहा है, यह एक ऐसा सत्य है जिसे आप क्या कोई नहीं बदल सकता। समाज के अस्तित्व के लिए यह फ़ासला आवश्यक है, जिस दिन किसी ने इस फ़ासले को समाप्त कर दिया उस दिन समाज के नाश का समय आ जाएगा। परन्तु अभी आने वाले समय में ऐसा होता नहीं नज़र आता। सोवियत संघ के संस्थापक लेनिन और अन्य समाजवादी लोगों का यही प्रयास था, नतीजा सभी को पता है।

पर यह बात इन प्रोफ़ेसर साहब जैसे लोगों को समझ नहीं आती, वे इस मृगतृष्णा के पीछे निरंतर भागते रहते हैं इस भ्रम को पाले कि उनकी सोच सही है और एक दिन वे इस सोच को पूरा कर दिखाएँगे। इनको चाहिए कि वापस अपने काम धंधे पर लगें, विद्यार्थियों को 2 + 2 पढ़ाएँ, ये जीवन शास्त्र की बातें हैं, गणित वाले मास्साब के लेवल की नहीं हैं। 🙂

गौर किया जाए तो यह निष्कर्ष भी निकलता है कि बात यहाँ कोला या बोतल बंद पानी की नहीं है, बात है बहुराष्ट्रीय कंपनियों का विरोध करने की, चाहे वह कैसे भी तर्कों या कुतर्कों से किया जाए। कोला को लेकर इतना उखड़ रहे हैं, क्या अपनी देसी कैम्पा कोला को भूल गए?? बोतल बंद पानी के पाप में मग्न देसी पानी की कंपनियों को भूल गए??

खैर छोड़ो यार, इस व्यर्थाग्नि में आहुति देने का मन हो आया, इसलिए हमने भी अपना कुछ समय बर्बाद कर लिया, इसी बहाने ब्लॉग पर एक नई पोस्ट आ गई, बल्ले भई!! 😉 😀