रजनीश बाबू ने सत्रहवीं अनुगूँज की और विषय है, “क्या भारतीय मुद्रा बदल जानी चाहिए?“। उनका कहना है कि जैसे 2001 में यूरोप में नई मुद्रा यूरो का प्रयोग चालू हुआ था और कई बदलाव आए थे, उसी प्रकार भारत में यदि एक नई मुद्रा चालू की जाए जिसका एक रूपया पुराने पचास रूपयों के बराबर हो, तो यहाँ पर भी क्राँति आ सकती है। उदाहरण वे दे रहे हैं जर्मनी का जिसके मार्क की कीमत से दोगुनी कीमत यूरो की रखी गई और जिसके कारण वहाँ की अर्थव्यवस्था में कई बदलाव आए। रजनीश ने सोच विचार करते हुए कुछ परिणामों को अंकित किया है जो कि सार्थक हो सकते हैं यदि भारतीय मुद्रा का पुनर्मूल्यांकन किया गया तो।
परन्तु बहुत सी अहम बातें हैं जिन पर मैं रजनीश से सहमत नहीं हूँ। पहली और सबसे अहम बात तो यह है कि बेशक मार्क से दोगुनी कीमत होने के कारण यूरो ने जर्मनी की अर्थव्यवस्था पर अपना सद्प्रभाव नहीं छोड़ा है, परन्तु रजनीश एक बात भूल गए कि यूरो केवल जर्मनी में ही नहीं बल्कि लगभग पूरे यूरोप में चलता है, और यूरोप एक देश नहीं बल्कि कई देशों से बना एक महाद्वीप है। हर देश की अपनी एक मुद्रा है और सबकी कीमत अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में समान नहीं है। हालांकि मैं इस विषय में ज्यादा ज्ञान नहीं रखता हूँ परन्तु जहाँ तक मैं जानता हूँ, यूरो का दाम देश के स्वर्ण कोष और उसकी मुद्रा के डॉलर के अनुपात भाव की तर्ज पर रखा गया था। यूरो का प्रस्ताव यूरोप की एकीकृत मुद्रा के तौर पर रखा गया था जोकि यूरोप को संगठित करने के प्रयास का एक महत्वपूर्ण अंश है। तो इसलिए जर्मनी के मार्क और वहाँ की अर्थव्यवस्था का उदाहरण देना उचित नहीं है। दूसरी बात यह है कि चूंकि यूरो का जन्म किसी एक देश की मुद्रा के पुनर्मूल्यांकन के तौर पर नहीं हुआ था, इसलिए उसका उदाहरण यहाँ इस मुद्दे पर अहम रूप से देना पूर्णतया अनुचित है। तीसरी बात यह है कि यूरोपीय संघ के सभी सदस्य देशों ने यूरो को पूर्णतया नहीं अपनाया है। जहाँ जर्मनी जैसे देश हैं जिन्होने यूरो के चलते अपनी मुद्रा रद्द कर दी, वहीं अभी कई देशों में यूरो घरेलू मुद्रा के साथ साथ प्रयोग की जा रही है, परन्तु प्राथमिकता घरेलू मुद्रा को ही दी जाती है।
जहाँ तक मेरा विचार है, अभी ऐसी कोई आफ़त नहीं आन पड़ी है कि भारतीय मुद्रा का पुनर्मूल्यांकन हो और एक नई मुद्रा को स्थापित किया जाए। और वैसे भी किसी भी मुद्रा का मूल्य देश के स्वर्ण भंण्डार के अनुरूप कम अथवा ज्यादा होता है। तो नई भारतीय मुद्रा को पुनर्मूल्यांकित करके उसकी एकाई को पुरानी मुद्रा की पचास(अथवा कम या ज्यादा) एकाईयों के बराबर नहीं मूल्यांकित किया जा सकता।
तो यदि रजनीश के दिए हुए परिणामों का अवलोकन करें तो वे और उनके विरूद्ध मेरी टिप्पणियाँ इस प्रकार हैं।
रजनीश द्वारा कथित फ़ायदे:
- नई मुद्रा को इस्तेमाल करने वाली आटोमैटिक मशीनें बनाईं जा सकती हैं जिनसे लोग टिकटें आदि ख़रीदें। क्या यह काम अब वर्तमान मुद्रा के चलते नहीं हो सकता?
- नेताओं के दबाये हुये ब्लैक के करोड़ों रुपये बाहर आएंगे। किस विश्वास के साथ यह बात कही जा सकती है? और यदि मान भी लिया जाए कि ऐसा हो जाता है, तो क्या हो जाएगा? क्या उन नेताओं का कोई कुछ बिगाड़ लेगा? कोई आजतक यह प्रश्न तो उठा नहीं पाया कि लालू ने अपनी बेटी के विवाह में जो 52 करोड़ रूपये खर्च किए वे कहाँ से आए, और फ़िर यहाँ तो लगभग सभी नेताओं की काली कमाई की बात हो रही है जिसका कुल योग कई हज़ार करोड़ रूपये होगा। यदि हम इस संभावना पर भी विचार कर लें कि हर नेता की काली कमाई का योग पता लग भी जाता है, तो क्या होगा? यह तो ज़ाहिर है कि वह संपत्ति देश में तो गाड़ नहीं रखी होगी, वह तो किसी स्विस बैंक या किसी केयमैन द्वीप के बैंक में सड़ रही होगी और वे लोग तो खातेदार के अतिरिक्त किसी और कि एक भी दमड़ी देने से रहे। स्वयंमेव जयते…
- बाहर जाने की लालसा कम होगी। रुपयों डॉलरों में फ़र्क कम रह जाएगा। डॉलर की तरफ़ आकर्षण कम हो सकता है। यह क्या तर्क हुआ भई? क्या जिन देशों की मुद्रा डॉलर से अधिक कीमती होती है, वहाँ के निवासी विदेश भ्रमण के लिए नहीं जाते? यदि ऐसा है तो अधिकतर यूरोपीय देश इस श्रेणी में आ जाएँगे क्योकि यूरो की कीमत डॉलर से अधिक है। साथ ही गिनती में आ जाएँगे मिड्डल-ईस्ट के कुछ देश जैसे सऊदी अरब जहाँ का दीनार डॉलर के अनुपात में काफ़ी कीमती है!! और रूपये तथा डॉलर की कीमत लगभग समानांतर हो जाने से डॉलर की ओर आकर्षण कम क्यों हो जाएगा? डॉलर एक तरह से विश्वीय मुद्रा है तथा अधिकतर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार डॉलर में ही होता है, इसलिए इसकी ओर आकर्षण तो तभी समाप्त हो सकता है जब इसका स्थान लेने के लिए कोई दूसरी मुद्रा आ जाए। यूरो की रचना का एक मुख्य कारण यह भी था कि वह डॉलर को हटा कर स्वयं विश्वीय मुद्रा बन जाए पर ऐसा हो न पाया!!
रजनीश द्वारा कथित नुकसान:
- महंगाई बढ़ेगी। कौन से तथ्य यह सिद्ध करते हैं? क्या अभी महंगाई नही बढ़ रही?
- गरीबी बढ़ सकती है। पुनः तथ्यों का अभाव।
- ज़्यादा तनख़्वाह की माँग हो सकती है। यह तो महंगाई के अनुपात में चलता है। यदि महंगाई बढ़ती है तो अधिक वेतन की माँग तो होगी ही, फ़िर भी मैं यही कहूँगा, “तथ्यों का अभाव”!!
- शायद अंतर्राष्ट्रीय कंपनियां भारत में निवेश से हिचकें। मेरे अनुसार ऐसा होने की आधी आधी संभावना है। क्योंकि भारतीय बाज़ार अभी बढ़ रहा है, इसलिए यहाँ पर कमाई के अवसर अधिक हैं परन्तु यदि भारतीय मुद्रा का भाव डॉलर के बराबर या उससे अधिक हो जाता है तो कदाचित निवेश में कमी हो सकती है क्योंकि अभी तो अधिक निवेश का एक कारण भारतीय मुद्रा का डॉलर के अनुपात में कम होना भी है।
यदि मेरी स्मरण शक्ति धोख़ा नहीं खा रही, तो जहाँ तक मुझे याद है, पिछले से पिछले सार्क सम्मेलन में भारत ने सार्क देशों के लिए एक संयुक्त मुद्रा का प्रस्ताव रखा था(ऐसा मैंने अख़बार में पढ़ा था), जैसे कि यूरोप में यूरो है। इस बारे में बात अधिक आगे नहीं बढ़ी थी लेकिन फ़िर भी एक सम्भावना है, शायद यह कभी यथार्थ हो जाए!! 😉
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