जब कोई व्यक्ति यह कह किसी पर तंज कसता है कि फ़लाना बन्दा पैसों के पीछे भाग रहा है तो मुझे उस व्यक्ति की सोच और बोल पर तरस भी आता है और गुस्सा भी आता है। अरे भई, पैसों के पीछे कौन नहीं भाग रहा? क्या पैसों के बिना गुजर बसर संभव है? हर कोई यह चाहता है कि वह अच्छे मकान में रहे, अच्छा खाए, अच्छा पहने, बढ़िया जगहों पर घूमने फ़िरने जाए, थोड़ा अपने आने वाले कल के लिए बचा के रखे, अपने बच्चों को अच्छी परवरिश दे, अपने माता पिता के बुढ़ापे को सुखमयी बनाए। तो क्या यह सोचना और इस सोच को साकार करना बुरा है? और कोई क्यों ना पैसे कमाए? किसी दूसरे के पैसे कमाने से लोगों को क्यों चिढ़ होती है? क्या उन्हें पैसे कमाना बुरा लगता है? क्या वे फ़ोकट में नौकरी आदि करते हैं? अरे यदि आपको पैसे कमाना अच्छा लगता है तो क्यों नहीं आप समय का सदुपयोग कर अपना समय पैसे कमाने में लगाते बजाय दूसरे व्यक्ति से कुढ़ने और उसपर तंज कसने के?

अब यहाँ मैं स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं किसी व्यक्ति पर कोई व्यंग्य नहीं कर रहा ना ही कुछ भला बुरा कह रहा हूँ। मैं एक आम संदर्भ में बात कह रहा हूँ क्योंकि फ़लाना बन्दा पैसे के पीछे भाग रहा है कह तंज कसने वाले बहुत हैं, भूतकाल में मुझे भी “पैसे के पीछे भागने वाला” के संबोधन से अलंकरित किया गया है, और वह भी उन व्यक्तियों द्वारा जो सोते जागते केवल पैसे बनाने के बारे में सोचते हैं, जो स्वयं तो बिना पैसे लिए एक काम नहीं करते और मुझ पर तंज कसा करते थे कि मैं पैसे के पीछे भागता हूँ, मात्र इसलिए कि मैं उन लोगों के साथ किसी मौके को हाथ से नहीं छोड़ता था और बिना अपना जायज़ मेहनताना लिए एक काम न करके देता था।

अभी परिचर्चा पर नीरज जी ने एक थ्रेड चालू किया, महेश भट्ट – भटका फ़िल्मकार। अब वह भटका है कि नहीं यह तो मैं नहीं जानता, परन्तु एक विषय जो वहाँ पर उठाया गया है उसके मैं विरोध में हूँ। जैसे कि नीरज जी ने थ्रेड की आरम्भिक पोस्ट में कहा:

महेश भट्ट एक निष्णात फ़िल्मकार हैं. जनम, सारांश, अर्थ, ज़ख़्म जैसी बेहतरीन फ़िल्में देने वाले भट्ट पिछले दस सालों में बेतुकी फ़िल्में बना रहे हैं. वे कहते हैं कि मैं वहीं महेश भट्ट हूं जिन्होंने सारांश और अर्थ जैसी फ़िल्में बनाईं लेकिन मुझे क्या मिला. एक नेशनल अवार्ड और साठ हज़ार रूपए. अब यह फ़िल्मकार पैसों के पीछे भाग रहा है.

इस पर सागर जी ने टिप्पणी दी:

मेरा भी यही मानना है कि एक रचनाकार चंद रुपयों के लिये अपनी प्रतिभा के साथ अपनी फ़िल्मों के लाखों चाहकों, प्रशंषकों के साथ अन्याय कर रहा है, भट्ट साहब की फ़िल्में तो पहले भी हिट होती थी रुपये तो पहले भी मिला करते थे; और क्या रुपये इस तरह की घटिया फ़िल्मों से ही मिलेंगे?

पीछे नहीं रहे प्रतीक भाई भी, उन्होंने भी टिप्पणी दन दना दी:

महेश भट्ट बहुत ही उम्दा निर्देशक हैं। उनकी इस माध्यम पर ग़ज़ब की पकड़ है। लेकिन बहुत से दूसरे निर्देशकों की ही तरह उन्होनें भी सामाजिक सरोकारों को एक तरफ़ कर पैसा कमाने की राह पकड़ ली है।

तो मेरा कहना है बन्धुओं, क्या पैसा कमाना बुरा है यदि वह गैरकानूनी रूप से ना कमाया जाए? सागर जी कहते हैं कि क्या जिस्म, मर्डर, कलयुग जैसी फ़िल्मों से ही पैसा बनाया जा सकता है? तो मैं कहूँगा कि नहीं, सिर्फ़ इन जैसी फ़िल्मों से ही पैसा नहीं कमाया जा सकता, और फ़िल्में भी पैसा कमाती हैं, पर यह फ़िल्में भी चलती हैं, और खूब चलती हैं। क्यों? यह तो आप देखने वालों से पूछो जिन्होंने एक नहीं दो नहीं वरन्‌ कई कई बार यह फ़िल्में चाव से देखी हैं। बाज़ार का सदियों से आवश्यकता-आपूर्ति का उसूल रहा है। यदि खरीददार हैं तो ही माल बाज़ार में आता है। अब ड्रग डीलरों की तरह फ़िल्म निर्माताओं ने तो इस तरह की फ़िल्में लोगों को फ़ोकट में दिखा इनका आदि नहीं ना बनाया। और इससे भी अधिक गहन फ़िल्में या कह लो पॉर्नोग्राफ़िक फ़िल्में बाज़ार में उपलब्ध हैं, तो फ़िर इस तरह की फ़िल्मों पर हल्ला क्यों? समस्या यही है कि मनुष्य सदैव से ही पाखंडी(hypocrite) रहा है, जहाँ एक चीज़ को वह नकारता है वहीं चोरी छुपे उसी चीज़ का उपयोग करता है।

मैं भारतीय संस्कृति का ढोल पीटने और उन तथाकथित सामाजिक पुलिस से पूछना चाहूँगा कि क्या औरतों को पर्दे में रखना, सेक्स आदि की बात करने का वर्जित(taboo) होना आदि, क्या यह वास्तव में भारतीय संस्कृति है?? क्या हम उसी भारतीय समाज के उत्तराधिकारी हैं जहाँ कन्याएँ अपनी पसंद का वर चुनती थीं? क्या हम उसी भारतीय संस्कृति के उत्तराधिकारी हैं जिसने कामसूत्र की रचना की, जिसने अजंता और खजुराहो की गुफ़ाओं की दीवारों पर अपनी हस्तकला द्वारा अपने ज्ञान और सोच की छाप छोड़ी? क्या मर्डर जैसी फ़िल्म आज के समाज की तस्वीर नहीं दिखाती?

बहरहाल, बात पैसे के पीछे भागने की हो रही थी और मैं संस्कृति के मुद्दे पर पहुँच गया। लोग कहते हैं कि बहुत बुरा लगता है कि फ़लाना कलाकार चंद पैसों के लिए अपनी कला के चाहने वालों के साथ अन्याय करता है, उसे बेच देता है आदि आदि। क्या चाहने वालों की गिनती से ही कलाकार की आर्थिक आवश्यकताएँ पूरी हो जाएँगी? पिकासो को मान सम्मान उनके मरने के बाद मिला, जीवन आर्थिक कठिनाईयों में प्रेमचन्द ने भी काटा जो आज पिछली शताब्दी के हिन्दी साहित्य के एक मज़बूत स्तंभ माने जाते हैं। क्या मिला ऐसे कलाकारों को? जीते जी तो कुछ हासिल हुआ नहीं, मरने के बाद किसने देखा है कि क्या पाया और क्या खोया? क्या एक कलाकार होना अभिशाप है? क्या एक कलाकार होने के अर्थ यह है कि वह व्यक्ति जीवन के भौतिक सुखों से वंचित रहे? और केवल कलाकार ही क्यों, यह बात तो हर व्यक्ति विशेष पर लागू होती है। मैं नहीं समझता कि किसी भी व्यक्ति को किसी अन्य पर यह तंज कसना शोभा देता है कि वह पैसे के पीछे भाग रहा है, यदि वह व्यक्ति कोई गैरकानूनी कार्य नहीं कर रहा तो।

मुझे अब कोई कहता है तो मेरा उत्तर यही होता है कि हाँ, मैं पैसे के पीछे भाग रहा हूँ, पर तुम उन बदनसीबों में से हो जो यह दौड़ नहीं लगा सकते, आखिर हर कोई तो पैसे के पीछे नहीं भाग सकता और बहुत कम होते हैं जो उसे पकड़ पाते हैं। यह उत्तर ठीक वैसा ही है जैसा महाभारत में हस्तिनापुर के बंटवारे से पहले श्रीकृष्ण ने द्रोणाचार्य से कहा था जब द्रोणाचार्य ने पूछा कि पांडवों का यह कैसा दुर्भाग्य है, तो श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि किसी नए नगर के निर्माण का अवसर मिलना दुर्भाग्य कहाँ है, यह तो प्रगति का मार्ग है, दुर्भाग्य तो यह दुर्योधन का है क्योंकि वह यह प्रगति की यात्रा नहीं कर सकता।

तो जो लोग सामाजिक दायित्वों और ज़िम्मेदारियों का भी प्रश्न उठाते हैं, उनसे भी मैं यह कहना चाहूँगा कि पैसे के बिना कोई कार्य नहीं हो सकता, चाहे वह निज उद्धार का हो या समाज के उद्धार का। भूखा नंगा व्यक्ति जिसके पास अपने खाने के लिए कुछ नहीं है, वह समाज का क्या उद्धार करेगा? बिल गेट्स आज विश्व के सबसे बड़े लोकोपकारी व्यक्तियों में से एक हैं जो करोड़ों डॉलर चन्दा देते हैं लोकोपकारी कार्यों के लिए। क्या यह संभव हो पाता यदि वह धनाढ्य व्यक्ति ना होते?