रवि जी द्वारा पता चला कि देसीपंडित बंद हो रहा है, फ़िर कुछ अन्य चिट्ठों पर भी पढ़ा, उन पर की गई टिप्पणियाँ भी पढ़ी। वैसे तो मुझे यह टिप्पणी रवि जी के ब्लॉग पोस्ट पर करनी चाहिए थी, पर खैर, बहुत समय से मैंने भी नहीं लिखा था यहाँ कुछ तो सोचा यही लिख दिया जाए ताकि लोग बाग़ कहीं यह ना समझ लें कि हमने भी ब्लॉग को अपने तिलांजलि दे डाली!! 😉
देसीपंडित का बंद होना बहुत से लोगों को बेशक एक चौंका देने वाला निर्णय लगे, कईयों को बुरा भी लगा होगा परन्तु यह होना निश्चित था, कभी ना कभी तो होना ही था। और मैं ऐसा क्यों सोचता हूँ? भई मुझे देसीपंडित या उसके चलाने वालों से कोई द्वेष नहीं है, बल्कि मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि इससे पहले बहुत से समूह ब्लॉगों का यह हाल मैं देख चुका हूँ जिसमें एक मेरे द्वारा संचालित समूह ब्लॉग भी था। यह कहानी केवल समूह ब्लॉगों की ही नहीं है, बहुत से ब्लॉग भी इस कहानी को दोहरा चुके हैं। मुख्य कारण अधिकतर हर बार वही रहा है, समयाभाव। परन्तु समूह ब्लॉग इसके शिकार जल्दी बनते हैं जिसका कारण यह है कि वे एक से अधिक लोगों द्वारा चलाए जाते हैं। लोगों के निजी और व्यवसायिक कारण आड़े आ जाते हैं जिसके चलते वे ब्लॉग को उतना समय नहीं दे पाते जितना उनको देना चाहिए और एक व्यक्ति गाड़ी खींच नहीं पाता, इसलिए समूह ब्लॉग को ताला लग जाता है। यदि एक व्यक्ति द्वारा चलाया जा रहा निजी ब्लॉग आदि हो तो वह इस दशा में भी चल सकता है, चाहे घिसट घिसट के लंगड़ाता हुआ चले लेकिन चल सकता है, पर समूह ब्लॉग ऐसे नहीं चल सकता, आखिर भरी हुई गाड़ी और लदे हुए ट्रक को धक्का लगाने में ज़मीन आसमान का अंतर है। 😉
अब इसके पीछे भी एक साईकॉलोजी ….. बोले तो मनोविज्ञान है। हम कोई कार्य करते हैं, समझ लीजिए कोई भी कार्य करते हैं तो प्रतिफल की भी आशा करते हैं, ना चाहते हुए भी मन के किसी कोने में इस आशा का उदय होता है। अब इस कारण हम एक कार्य करें जा रहे हैं, एक संस्था चलाए जा रहे हैं परन्तु कब तक एक या कुछ व्यक्ति बोझ ढोए जाएँगे? समय तो मुद्रा से भी अधिक कीमती है क्योंकि समय की कोई कीमत नहीं लगा सकता। महान बुद्धिजीवी चाणक्य ने कहा था कि जीवन का एक क्षण सौ करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ देकर भी नहीं खरीदा जा सकता। तो शुरू शुरू में उत्साह से आरम्भ किया गया प्रयास बाद में साबुन के झाग की तरह बैठने लगता है। और जब पूरी तरह झाग बैठ जाता है तो दुकान बढ़ाने का समय आ जाता है। लेकिन कुछ लोग इस सोच में नुक्स निकालते हुए कई सफ़ल समूह ब्लॉग आदि का उदाहरण देने का प्रयास करेंगे तो उनको मैं यही कहूँगा कि भई पाँचों उंगलियाँ एक समान नहीं होती। जीव अपना जीवनकाल समाप्त कर मृत्यु को प्राप्त होते हैं यह शाश्वत सत्य है परन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं कि सभी एक साथ ही गिर पड़ेंगें!! कोई मनुष्य 40 वर्ष की आयु में भी जन्नतनशीं हो जाता है और कोई कोई 100 पार करने के बाद भी खूँटा गाड़े रहता है। लेकिन यदि सफ़ल समूह ब्लॉग आदि का उदाहरण लें तो पाएँगे कि लंबी रेस के घोड़े वही हैं जिनके पीछे बेहतर और भरी हुई तिजोरियाँ हैं। Slashdot भी अभी तक बंद हो चुका होता यदि उसे आरम्भ करने वाले उसे OSTG को बेच ना देते। ऐसे और भी कई अन्य उदाहरण हैं।
वैसे रवि जी ने कहा कि
देसीपंडित के भविष्य पर सैकड़ों लोगों ने अपने अपने विचार रखे हैं – कुछ समर्थन में तो कुछ दुःख और चिंता जताते हुए. पैट्रिक्स अपने स्वयं के चिट्ठे पर चाहे जो कुछ सोचें कर सकते हैं चाहे जिन कारणों से, जब चाहें चालू-बंद कर सकते हैं, देसीपंडित को नहीं. उन्हें तमाम चिट्ठाकारों की भावनाओं को समझना होगा, उन्हें भी जवाब देना होगा. जब बहुत से विकल्प पैट्रिक्स के सामने खुले हैं तो उन्हें अपनाने में उन्हें क्या झिझक, कैसी शर्म?
तो भई इस पर मैं यही कहना चाहूँगा कि देश का एक प्रधान होता है, जैसे हमारे यहाँ प्रधानमंत्री जो कि अपनी समझ से अनुसार कार्य करते हुए आपात स्थिति को भी घोषित कर सकता है। विकल्प तो उस समय भी बहुत होते हैं पर यही कह सकते हैं कि उस समय जो सही लगा वही किया गया। तो यही मैं कहना चाहूँगा कि देसीपंडित का प्रबंधक होने के नाते पैट्रिक्स को यही सही लगा कि कोई विकल्प फ़िलहाल नहीं अपनाया जा सकता इसलिए उन्होंने वही किया जो उनको सही लगा।
लोगों को यदि लगता है कि यह दुकान बढ़ा देने का निर्णय सही नहीं है और उपलब्ध विकल्पों में से किसी को अपनाया जा सकता है तो किसने उनको रोक रखा है, मौका भी है, देसीपंडित जैसा कुछ वे स्वयं ही आरम्भ कर डालें। और यदि उनको लगता है कि उनमें ऐसा कुछ चलाने की योग्यता नहीं है तो उनको इस बात को भी समझना चाहिए कि जिनमें इसकी योग्यता है उन्होंने कुछ सोच समझ कर ही ऐसा निर्णय लिया होगा। लोग बाग़ समझते नहीं है, आवश्यक नहीं कि जो चीज़ देखने में आसान लगती है वह वास्तव में उतनी सरल हो।
अब हम वापस अपने हिन्दी ब्लॉगजगत में आते हैं। देसीपंडित के दुकान बढ़ाने की खबर सुन कुछ बंधुओं को गहरा आघात हुआ है और उन्होंने अब चिट्ठाचर्चा, नारद आदि के बारे में भी अटकलें लगानी आरम्भ कर दी हैं कि कहीं कल को यह भी बंद ना हो जाएँ। तो भई चिट्ठाचर्चा के विषय में तो मैं कुछ कह नहीं सकता परन्तु नारद के विषय में तो यही कहूँगा कि यह कोई समूह ब्लॉग नहीं है इसलिए इसके बंद होने के बारे में ऐसा वैसा ना सोचें जैसे देसीपंडित बंद हुआ। नारद पूरी तरह से अपने आप चलने वाला सिस्टम है। ऐसा नहीं है कि इसको चलाने में श्रम नहीं करना पड़ता परन्तु वह श्रम तकनीकी रूप से होता है, जैसे यह जाँचना कि कहीं कोई दिक्कत तो नहीं और किसी दिक्कत को हटाना, नए चिट्ठों को जोड़ना आदि। यानि कि यह एक अलग किस्म का जीव है, इसलिए बंद होने के कोई आसार फ़िलहाल नहीं हैं। 🙂
अब अंग्रेज़ी में दो कहावत हैं:
all good things must come to an end
और
enjoy while it lasts
तो इनको आधार मानिए और जो है उसका भरपूर आनंद लीजिए। 🙂
इसी के साथ अब हम चलते हैं, आप सभी को दीपावली और हिन्दु नव वर्ष की शुभकामनाएँ। 🙂
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