कल, रविवार 29 जनवरी को एक मित्र के साथ दिल्ली के प्रगति मैदान में लगे सत्रहवें विश्व पुस्तक मेले में जाने का कार्यक्रम बनाया था!! घर से सुबह निकलते निकलते देर ऐसी हुई कि ठीक से नाश्ता भी न कर पाया, जो मुँह में आया वो ठूँसा और सरपट निकल लिए!! दिन कुछ अधिक ही अच्छा था, क्योंकि बाहर सड़क पर आते ही पैट्रोल की सुईं पर नज़र पड़ी तो देखा कि टंकी लगभग खाली थी, पिछली रात ध्यान था कि भरवा लूँगा, लेकिन कुछ दोस्तों के साथ अचानक बाहर खाने का कार्यक्रम तय हो गया और उनके साथ ही निकल लिया, लौटने पर पैट्रोल की बात ध्यान से ही निकल गई!! खैर, अब अपनी सड़ी हुई याददाश्त और किस्मत को कोसते हुए मोटरसाईकिल सरपट दौड़ा दी पैट्रोल पंप की ओर, पहले ही देर हो रही थी, अब तो काम और भी बढ़िया हो गया था!! 😉

घड़ी पर निगाह गई तो दिमाग की सुईं घूम गई, बारह बजे का समय दिया था मदन को प्रगति मैदान पर मिलने का, और पौने बारह तो पैट्रोल पंप से निकलते निकलते ही बज गए थे!! अब तो एक ही काम हो सकता था, आव देखा न ताव, ऐक्सीलेटर घुमाया और मोटरसाईकिल दौड़ा दी, कदाचित उसे भी वक्त की नज़ाकत का एहसास हो गया था, तभी तो उसने भी हल्का सा ऐक्सीलेटर घुमाते ही गजब की गति पकड़ी!! लेकिन मोती नगर की पास पहुँचते पहुँचते मुझे यकीन होता जा रहा था कि मैं ठीक मुहूर्त में नहीं निकला था, हर ओर इतना यातायात, और वह भी रविवार को, विश्वास नहीं आ रहा था। लेकिन जब निकल पड़े तो फ़िर रूकना क्या, पूसा रोड, कनॉट प्लेस, मंडी हाउस होते हुए आखिरकार प्रगति मैदान पर रिकार्ड समय पर पहुँच ही गया, लगभग बीस किलोमीटर मात्र पच्चीस मिनट में!! पहुँचने पर पता चला कि मदन बाबू तो अभी तक पहुँचे ही नहीं थे, पक्के हिन्दुस्तानी जो ठहरे, दिल्ली की हवा आखिरकार लग ही गई, बहरहाल मुझे इस बात की तसल्ली थी कि मैं पहले पहुँच गया था!! 🙂

खैर, जल्द ही मदन अपने एक मित्र के साथ पहुँच गया और हम लोग अन्दर चल दिए। पहले जिस हॉल में घुसे(अब उसका नंबर याद नहीं), वहाँ अपने मतलब की बहुत सी पुस्तकें थीं, अर्थात टेक्नॉलोजी-प्रोग्रामिंग आदि पर, बीपीबी और प्रेन्टिस हॉल आफ़ इंडिया के स्टॉल इसी हॉल में थे, और सभी विदेशी प्रकाशनों के स्टॉल भी यहीं लगे हुए थे। पाकिस्तान से कई प्रकाशन आए हुए थे, एकाध सऊदी-अरब से भी था, और दो-तीन ईरान से थे, फ़्रान्स से तो मुझे केवल एक ही प्रकाशन दिखा और जर्मनी से भी। पर इन जगहों पर कोई अधिक भीड़ नहीं थी, ज़ाहिर सी बात है कि इन भाषाओं का ज्ञान रखने वालों का ही यहाँ कोई आकर्षण हो सकता था। हाँ, ईरानी प्रकाशकों के पास कुछ अच्छी खासी भीड़ थी, अन्यथा अंग्रेज़ी प्रकाशन के स्टॉल पर ही भीड़ देखी जा सकती थी।

एक फ़्रैन्च प्रकाशन की कुछ किताबें -- अन्य छायाचित्रों को देखने के लिए क्लिक करें


बीपीबी की पुस्तकों के आसपास लोगों का खासा जमाव था, भई आखिर पूरी दुकान टेक्नॉलोजी और कंप्यूटर संबंधी किताबों से जो अटी पड़ी थी। पर जैसी कि मुझे आशा थी, सारा का सारा स्टॉक पुराना था, कोई नई किताब नहीं, बस अधिकतर पुराने शीर्षकों के नए संस्करण थे। लम्बे अरसे से मैं यही देखता आ रहा हूँ, बीपीबी कंप्यूटर आदि की किताबें छापने के योग्य नहीं है, एक तो दूसरे दर्जे की किताबें होती हैं, और वह भी पुरानी ही पुनर्चक्रण हो दोबारा आती रहती हैं, जैसे कंप्यूटर की किताबें न हों वरन् साहित्य आदि की हों जो कि कभी पुरानी नहीं होती!! लोग बाग मूर्खता दिखाते हुए खरीद भी लेते हैं, क्या करें, बिलकुल नहीं से “कुछ” ही सही। परन्तु अधिकतर मैंने इन लोगों में छात्र या शुरूआती अथवा वक्ती उपयोगकर्त्ता ही देखें हैं, हमारे जैसे पेशेवर लोग नहीं मिलेंगे इन किताबों को खरीदते हुए। मदन के साथ आए उसके मित्र को एकाध किताब पसन्द आ ही गई, परन्तु जब किताबों की कीमत पर छूट की बात आई, तो काउंटर पर बैठे व्यक्ति ने कहा कि वे केवल दस प्रतिशत छूट ही दे रहें हैं। मैंने मित्र से कहा कि यदि अति आवश्यक है तो लो अन्यथा छोड़ दो, क्योंकि पच्चीस प्रतिशत छूट तो हमारा लोकल पुस्तक वाला ही दे देता है, और इतना ही नई सड़क(चांदनी चौक) पर भी मिल जाता है। और ये तो स्वयं प्रकाशक हो कर भी केवल दस प्रतिशत ही दे रहे हैं। मैं सदैव यही करता हूँ, पुस्तक मेले में कभी वे पुस्तकें नहीं खरीदता जो बाज़ार में आसानी से मिल जाती हैं, क्योंकि यहाँ पुस्तकें महंगी ही मिलती हैं, बाज़ार के भाव से महंगी। तो इसलिए यहाँ केवल वही किताबें खरीदनी चाहिए जो कि बाज़ार में नहीं मिलती, जैसे किसी विदेशी प्रकाशक की पुस्तकें या फ़िर कुछ सीमित प्रकाशन वाली किताबें।

विदेशी पर्यटकों की भी कमी नहीं थी, भई आखिर विश्व पुस्तक मेला है, तो केवल देसी लोग तो होने से रहे, हर मोड़ मुड़ते ही एकाध सुनहरे बालों वाला किताबों का कोई न कोई विदेशी रसिया मिल ही जाता था। कुछ से थोड़ा ज्यादा समय इस हॉल में बिताने के बाद हमने हॉल #18 की ओर रूख किया, साहित्य वहीं था, और मदन के साथ आए उसके मित्र को ओशो के स्टॉल से कुछ लेना भी था।

सबसे पहले हम घुसे रूपा एण्ड कंपनी के स्टॉल में, वहाँ इतनी भीड़ थी कि बस पूछो ही मत, पाँव तक रखने की जगह नहीं थी, पूरा स्टॉल खचाखच भरा हुआ था, किसी तरह हम लोग अंदर घुसे और किताबें देखने लगे।

रूपा एण्ड कंपनी का स्टॉल खचाखच भरा हुआ था -- अन्य छायाचित्रों को देखने के लिए क्लिक करें


अपने मतलब की वहाँ मुझे कोई किताब नहीं लगी, सिडनी शेलडन के उपन्यास पढ़े काफ़ी समय हो गया था(लगभग दो साल), इस बीच आए नए शीर्षक मुझे दिखाई दे रहे थे, परन्तु चूँकि मेरे पास पढ़ने का समय नहीं है, इसलिए मैंने दोबारा उधर देखा ही नहीं। जॉन ग्रिशम मुझे कभी पसंद ही नहीं आया, और केन फ़ॉलेट में मेरी कभी रूचि ही नहीं रही। भाषा ज्ञान की पुस्तकों ने मुझे आकर्षित किया और मैंने गेल ग्राहम के “टीच युअरसेल्फ़ फ़्रैन्च” कोर्स को उठा लिया। भुगतान करने के लिए क्रेडिट कार्ड दिया तो वह अस्वीकृत हो गया, प्रकाशक की प्रक्रमण मशीन पुरानी थी और मेरा मिनी कार्ड अस्वीकृत कर रही थी, अक्ल पर मेरी पत्थर पड़ गया था, दूसरे कार्ड के पास में होने का ध्यान नहीं रहा और अपने करारे हज़ार के नोट से(जिसे मैंने कई महीनों से सहेज कर रखा था) बिछुड़ना पड़ा, क्योंकि जैसा कि मैंने पहले कहा, दिन खराब था और बटुए में अन्य नकदी केवल दो तीन सौ रूपये ही थे!! 🙁

गेल ग्राहम का 'टीच युअरसेल्फ़ फ़्रैन्च' -- अन्य छायाचित्रों को देखने के लिए क्लिक करें


खैर, और दुकानों में घूमते घामते पहुँचे ओशो के स्टॉल पर जहाँ मदन का मित्र तो हो लिया अंदर और हम दोनो बाहर ही जरा साँस लेने को रूक गए। हम पहली मंज़िल पर खड़े थे और वहाँ से नीचे का नज़ारा करने लगे, सभी स्टॉल एक बड़े से हॉल में अलग अलग क्यूबिकल थे जो कि देखने में अच्छे लग रहे थे।

ऊपर से नीचे का दृश्य -- अन्य छायाचित्रों को देखने के लिए क्लिक करें


मदन का मित्र आशा के विपरीत, कुछ जल्दी ही वापस आ गया, पूछने पर पता चला कि जो वह ढ़ूँढ़ रहा था वह उसे नहीं मिला। यह तो मुझे भी कहना पड़ेगा कि जो मैं ढ़ूँढ़ रहा था वह मुझे भी नहीं मिला, मैं ढ़ूँढ़ रहा था रॉबर्ट लडलम के कुछ उपन्यास जो मुझे बाज़ार में नहीं मिले। वापस लौटने के लिए नीचे आए तो नज़र गई और नीचे जाते हुए रास्ते पर जहाँ कुछ और स्टॉल थे जो हमने नहीं देखे थे। मदन के हाल अब बुरे हो रहे थे चलने से, थक तो थोड़ा मैं भी गया था, पर पुस्तक प्रेम कहो या सनक, सोच लिया था कि नीचे के स्टॉल देखे बिना नहीं जाना तो नहीं जाना। पेन्गुईन के स्टॉल मे गए तो वहाँ ऐसी पुस्तकें थी कि जिनको देख तो सकते थे पर पढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। वास्तु पर एक किताब दिखी जो कि ठीक ठाक सी लग रही थी, सो घर फ़ोन मिला के मम्मी से पूछा कि पढ़नी है क्या, उत्तर मिला कि ले आओ तो मैंने पुस्तक उठा ली। पैसे देने में फ़िर पंगा होने वाला था, क्योंकि यहाँ भी प्रक्रमण मशीन पुरानी थी और मेरा मिनी कार्ड अस्वीकृत कर दिया, लेकिन मुझे ध्यान आ गया कि डेबिट कार्ड भी पास में है, तो उससे भुगतान किया, वरना एक और हज़ार के करारे नोट से हाथ धोना पड़ता!! 😉

शशिकला अनंथ की 'द पेनगुईन गाईड टू वास्तु' -- अन्य छायाचित्रों को देखने के लिए क्लिक करें


वापसी में स्कोलॉस्टिक का स्टॉल देखा, यह भी काफ़ी अच्छा सजा रखा था, स्टॉल के बाहर लगा कार्टून का बोर्ड मुझे बेहद पसन्द आया। ये छायाचित्र उसी के एक हिस्से का है।

स्कोलॉस्टिक के स्टॉल के बाहर लगे बोर्ड का एक भाग -- अन्य छायाचित्रों को देखने के लिए क्लिक करें


आखिरकार हम बाहर आ गए, तो मदन तो कुछ राहत मिली। थोड़ी देर बैठ कर थकान उतारने की कोशिश की, फ़िर कुछ पेट पूजा के पश्चात अपने अपने रास्ते हो लिए। वापसी मेरी कनॉट प्लेस से ही होनी थी, और ब्लॉगर भेंटवार्ता का समय भी हो चुका था(सायं के पाँच बज चुके थे), पर जब मैं कॉफ़ी कैफ़े डे पर पहुँचा तो मुझे कोई नज़र न आया। क्योंकि मैं किसी को जानता नहीं था, इसलिए मैं कम से कम तीन-चार लोगों के समूह को देख रहा था, पर ऐसा वहाँ कोई नहीं था, काऊंटर पर पूछा कि कोई ऐसा समूह तो नहीं था वहाँ, तो वहाँ पर मौजूद महाशय ने बताया कि कुछ लोगों का समूह करीब चार बजे से बैठा तो था, परन्तु अभी पाँच-दस मिनट पहले सभी बाहर चले गए थे। तो वहाँ रूकने का मुझे कोई औचित्य न लगा और मैंने घर की राह पकड़ी जहाँ आधे घंटे बाद पहुँचकर मैंने चैन की साँस ली। घूमना फ़िरना बहुत हो गया था और मुझे मेरे प्यारे कंप्यूटर की याद भी आ रही थी!! 😉