लो जी, फिर वही घिसा पिटा बदहज़मी युक्त प्रलाप शुरु हो गया कुछ लोगों का। किसी ने बताया कि दिल्ली में फैशन सप्ताह(fashion week) शुरु हो गया है और कई नामी देशी डिज़ाईनर भाग ले रहे हैं, अपनी कृतियाँ दिखा रहे हैं। वहीं किसी ने बताया कि फलां लोगों ने पुराना नग्नता और अश्लीलता का फटा बाँस फूँकना शुरु कर दिया है। अब भई अपने पल्ले ये नहीं पड़ता कि क्यों लोग कला और अश्लीलता में अंतर नहीं समझते!! किसी ने कहा कि पारंपरिक परिधानों को दर-किनार किया जा रहा है तो कोई बोला कि इस तरह के फैशन शो में प्रदर्शित होने वाले परिधान आम जनता के लिए नहीं होते। परिवर्तन प्रकृति का नियम है अन्यथा एक कोशिका वाले जीव से लेकर आज लाखों कोशिकाओं वाले जीवों का सफ़र कभी न हुआ होता। तो कोई आवश्यक नहीं है कि परंपरा को पकड़े हुए बाबा आदम के स्टाईल के परिधान ही पहने जाएँ। ऐसा नहीं है कि पारंपरिक परिधानों को त्यागा जा रहा है, लेकिन उनमें डिज़ाईनर अपनी रचनात्मक्ता और समझ के अनुसार बदलाव लाकर उनको बाज़ार में उतार रहे हैं। रीना ढाका, रितु बेरी, मनीष मल्होत्रा, रोहित बल जैसे नामी डिज़ाईनर औरतों के लिए साड़ियाँ और मर्दों के लिए कुर्ते, शेरवानी आदि भी डिज़ाईन करते हैं, तो इसलिए यह नहीं कह सकते कि परंपरागत परिधानों को त्याग दिया गया है। लेकिन इनके द्वारा डिज़ाईन किए गए परिधान आम जनता के लिए नहीं होते यह बात सत्य है। अब जब पचास हज़ार से लेकर लाख रूपए से उपर कीमत की साड़ियों और शेरवानियों की बात करेंगे तो आम जनता कहाँ से लेगी?? लेकिन इस तरह के परिधानों को डिज़ाईन करते समय ये लोग आम जनता को टार्गेट करते ही नहीं!! और यह कहाँ लिखा है कि फैशन शो आदि में सिर्फ़ आम जनता के पहनने लायक ही परिधान प्रदर्शित किए जाएँ? यदि किसी नामी चित्रकार की कलाकृतियों की प्रदर्शनी लगती है तो ये लोग वहाँ कला की तारीफ़ करने लगते हैं कि क्या कलाकार है और क्या कला का नमूना है। क्या उसके सभी चित्र आदि इतने सस्ते होते हैं कि आम जनता खरीद सके? लाखों रूपयों में बिकने वाले चित्रों के एक अलग दर्जे के ग्राहक होते हैं; प्रशंसक बहुत हो सकते हैं लेकिन सभी खरीददार नहीं हो सकते। अमां कोई समाजवादी कम्यूनिस्ट राष्ट्र में रह रहे हो क्या जहाँ जो कार्य हो समस्त जनता-जनार्दन के भले के लिए हो? यदि आपके सामाजिक वृत्त (social circle) में कोई ऐसे परिधान नहीं पहनता तो इसका अर्थ यह नहीं कि कोई पहनता ही नहीं, आखिर समाज आपकी या मेरी या कल्लू की सामाजिक परिधि (social circle) तक ही तो सीमित नहीं है!!
अब यदि आम जनता इतने महंगे डिज़ाईनर परिधान नहीं खरीद सकती तो क्या करे? दो ही रास्ते होते हैं; या तो मन मसोस चुप बैठे या पड़ोस के बुटीक के दर्ज़ी को उस डिज़ाईन की तस्वीर वगैरह दिखा अपने लिए भी वैसा कुर्ता, सलवार-सूट आदि बनवा लें। पाईरेसी(piracy) वगैरह हर जगह है, यहाँ भी है!! 😉
वैसे कोई पूछे तो यह पूछना चाहिए कि ये “परंपरा” का रोना रोने वालों में कितने लोग धोती-कुर्ते में घूमते हैं? अपने दफ़्तर आदि धोती-कुर्ता पहन और पाँव में चप्पल डाल के बैलगाड़ी या घोड़ागाड़ी में जाते हैं? और मोहतरमाओं में कितनी लैक्में, लोरियाल आदि से लेकर देशी ब्रांडों की लिप्सटिक, पाउडर आदि सौन्दर्य प्रसाधनों की जगह परंपरागत सौन्दर्य प्रसाधन प्रयोग करती हैं? चेहरे के लिए एवर यूथ वगैरह का संतरे अखरोठ वाला फेस स्क्रब(face scrub) प्रयोग हो सकता है, परंपरागत नुस्खा नहीं!! अब इन लोगों से ऐसे प्रश्न कर लो तो ये लोग या तो बगलें झांकने लगेंगे अथवा बेतुका सा उत्तर देंगे – “आप तो अति में चले गए जी”!! कारण? भई इनका विरोध बेतुका है, जिसका न कोई सिर है न पैर, जबरदस्ती वाले विरोध की हवा निकलते देख और क्या कहेंगे!! वैसे अंग्रेज़ी स्टाईल की कमीज़ पैन्ट पहने अंकल तथा अंग्रेज़ी स्टाईल की कमीज़ और अमेरिकी स्टाईल की जीन्स पहने आंटियाँ जब परंपरा की वकालत करते हैं तो मामला मुझे बहुत हास्यप्रद लगता है, चक्कर में पड़ जाता हूँ कि कहाँ की परंपरा की बात हो रही है!! 😉
जहाँ तक अश्लीलता का प्रश्न है,
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़, फैले तो ज़माना है
स्वयं जो पहनों वह श्लील और परंपरागत, दूसरा पहने तो अश्लील और अपरंपरागत!!
इन संस्कृति के दारोगाओं को यह बात समझ नहीं आती कि वस्त्र आदि श्लील-अश्लील नहीं होते, श्लील अथवा अश्लील व्यक्ति के विचार, उसकी सोच, मानसिकता और नज़रें होती हैं। कोई लड़की यदि तंग लो-कट टॉप(low cut top) और छोटी स्कर्ट पहन सामने बैठी है तो यदि आप वासनायुक्त नज़र/विचार के साथ उसकी गर्दन से नीचे उसको देखते हैं या उसकी टॉगों पर नज़र फिराते हैं तो वह लड़की या उसके वस्त्र अश्लील नहीं हैं वरन् आपके विचार और आपकी सोच अश्लील है। वहीं दूसरी ओर यदि आप उसके सौन्दर्य को निहारते हैं तो वह अश्लील नहीं है, प्रकृति ने उसको शारीरिक सौन्दर्य से नवाज़ा है तथा उस लड़की को इस बात का गर्व है, आपको अपने पर काबू नहीं है या कॉम्पलेक्स हो रहा है तो मुँह फेर लीजिए, खामखां हल्ला क्यों मचाते हैं!! प्रकृति ने सबको एक जैसा नहीं बनाया है, किसी के पास शारीरिक सौन्दर्य है तो किसी के पास आंतरिक तो किसी के पास दोनों। तो जब आप अपने भीतर के सौन्दर्य, अपने विचारों के सौन्दर्य के प्रदर्शन को अश्लील नहीं मानते तो किसी के शारीरिक सौन्दर्य के प्रदर्शन को क्यों मानते हैं? अब अगला व्यक्ति नग्न तो नहीं घूम रहा, कपड़े पहन रखे हैं जो उस पर फबते हैं(डिज़ाईनर लोग ऐरे-गैरे को अपने परिधान पहना प्रदर्शित नहीं करते), आपको किस बात की टेन्शन है?
ये गूढ़ ज्ञान की बातें नहीं हैं, लेकिन संकुचित मानसिकता वाले छोटे से दिमाग में फिर भी नहीं समाने वाली। इनको प्राप्त करने हेतु विचारों की आवाजाही के लिए मस्तिष्क के द्वार पर लगे अलीगढ़ी ताले हटाकर कपाट खोलने होंगे, दिल को भी बड़ा करना होगा।
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