परसों शनिवार को एक हिन्दी ब्लॉगर भेंटवार्ता हुई, ऐसी हुई कि बस क्या कहें कैसी हुई, वैसे शैलेश बाबू ने विवरण तो लिख ही दिया है। जैसा कि होता है, चूंकि मैं भी इस भेंटवार्ता में गया था तो मुझसे भी कुछ परिचितों ने कहा कि मैं भी लिखूँ। तो क्या लिखूँ? वैसे यह भी किसी ने कहा कि हर कोई अपने तरीके से लिख रहा है भेंटवार्ता के बारे में तो भई एक जीवित व्यक्ति लिख रहा है तो अपने नज़रिए से ही लिखेगा ना, मशीन तो नहीं कि निष्पक्ष रूप से लिखे, निष्पक्ष कोई नहीं रह सकता(चाहे बेशक ऊपर से न दिखाए)। भेंटवार्ता के बारे में खैर मैंने इसलिए नहीं लिखा क्योंकि मुझे पता है कि यदि मैंने अपने नज़रिए से अपनी शैली में लिखा तो कुछ को चुभन अवश्य होगी, ज़्यादा भी हो सकता है, क्योंकि मेरे जो दिल में होता है वह मैं कह देता हूँ, सूडो(psuedo) चरित्र/मानसिकता/व्यवहार नहीं है मेरा और यदि मैं नहीं समझता कि कहने योग्य बात है तो चुप रहता हूँ।

पर अब कुछ गलत प्रचार कर जो मेरी छवि को धूमिल बनाने का प्रयास किया जा रहा है उसके खिलाफ़ एक बार अवश्य बोलना चाहूँगा। पहले भी बहुतों ने मेरे खिलाफ़ अंट-शंट बकवास कर मेरी छवि को वैसे ही सूरदासों(बहुतया हैं इस दुनिया) की नज़रों में धूमिल किया है। वैसे तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, धूमिल करते हो तो कर लो, मेरा क्या उखाड़ लोगे, मैंने कौन सी किसी से यहाँ रिश्तेदारी गांठनी है, जो प्यार-मोहब्बत से बोल लेता है उससे अपन भी प्यार-मोहब्बत से बोल लेते हैं, वर्ना मेरी बला से!!

बात आरंभ होती तो वैसे भेंटवार्ता स्थल से है, लेकिन उस पर बाद में, पहले समय के बारे में। शैलेश बाबू ने अपनी पोस्ट में तो बहुत नर्मी से कहा है कि मैं लेट आया लेकिन वहाँ भेंटवार्ता में काफी रोष के से भाव से मुझे कहा कि मैं तो इतना विलम्ब से आया हूँ। जीतू भाई से भी शिकायत की गई कि मैं लेट पहुँचा। ठीक है भई, पहुँचा, दिल्ली है और सुबह तथा सांयकाल सड़कों पर बहुतया वाहन इधर-उधर जा रहे होते हैं, जाम भी लग जाता है, पंद्रह किलोमीटर की दूरी तय करने में मुझे एक घंटे से अधिक समय लगा जो कि मेरी छवि को और धूमिल करता है क्योंकि परिचितों में ड्राईविंग के मामले में मुझे तेज़ समझा जाता है जो कि पंद्रह किलोमीटर जैसी मामूली दूरी दिल्ली की सड़कों पर बीस मिनट या कम में तय करता है। खैर, उसका कोई मलाल नहीं कि चिप-चिपी गर्मी में अधिकतर रास्ता सरक-२ कर तय किया, लेकिन एक बार लेट क्या पहुँच गए लोगों ने गला ही पकड़ लिया। भई इससे पहले भी हिन्दी ब्लॉगर भेंटवार्ता हुई हैं, बहुतों में मैंने भी भाग लिया है और यदि याददाश्त कमज़ोर नहीं है तो मैं पहले या समय पर भी पहुँचा हूँ, बहुत लोग लेट भी आए, लेकिन अपन तो किसी का गिरेहबान नहीं थामें कि लेट क्यों आए(चाहे मज़ाक में कह दिया कि लेट आए क्यों, लेकिन भाव वही कि लेट सही लेकिन आए तो)!! खैर, अब वह तो व्यक्ति-२ पर निर्भर करता है ना कि वे कैसे लेते हैं किसी बात को। तो भई लेट आए, स्वीकार किया, सूली पर चढ़ा दो, अब इससे अधिक भी कुछ बन सके तो वह भी कर लो!! या कहें तो आगे से जब देखूँगा कि लेट हो रहा हूँ तो आउँगा ही नहीं!! आयोजक-२ कर मेरा भजन-कीर्तन कर दिया!! कहाँ लिखा है कि आयोजन करने वाला रात भर से बैठ प्रतीक्षा करे या उसको कोई दिक्कत नहीं हो सकती जिस कारण वह लेट हो?? अफ़लातून जी को कोट(quote) करते हुए शैलेश बाबू ने लिखा है:

वैसे अफ़लातून ने पहले ही स्पष्ट कर दिया कि यह किसी की तरफ़ से आयोजित नहीं है। एक गेदरिंग है। इसलिए कोई आये या न आये, यह चिंता की बात नहीं है। स्वेच्छा है।

अफ़लातून जी ने उपस्थित जनों को यह ज्ञान देने की ज़हमत उठाई इसके लिए उनको साधूवाद। न, कोई व्यंग्य नहीं कर रहा हूँ वरन्‌ इस कार्य के लिए उनको 100% सत्य साधूवाद टिका रहा हूँ।

कॉफ़ी का बिल भी टुकडो़ में बँट गया

अब यह कह सुनीता जी पता नहीं क्या कहना चाह रही हैं, लेकिन मेरी पूरी कोशिश यही थी कि ऐसा न हो। वैसे तो मैं यह बात कभी न उठाता और कहता, छोटी-मोटी रेज़गारी की मैं टेन्शन नहीं लेता, लेकिन अब कहना आवश्यक लग रहा है। जब 1058 रूपए का बिल आया तो मैंने बिना किसी की ओर देखे और बिना किसी से कुछ कहे शराफ़त से पूरा भुगतान कर दिया। किसी से उसको उसके हिस्से के पैसे देने के लिए कहने का मेरा कोई इरादा नहीं था, लेकिन अमिताभ त्रिपाठी जी को लगा कि पूरा बिल मुझे नहीं देना चाहिए इसलिए उन्होंने अपनी ओर से 500 रूपए मुझे जबरदस्ती थमा दिए, मेरी ना नुकुर नहीं चलने दी। खैर, बात यहीं समाप्त हो जाती, लेकिन किसी ने पूछा कि बिल कितना और मेरे मुँह से निकल गया “दे दिया भई चलो आगे बढ़ो”(उस समय मैथिली जी के यहाँ स्थानांतरण की प्रक्रिया आरंभ हो रही थी) तो जैसे कुछ में हड़कम्प मचा, कुछ ने सौ-सौ के नोट मुझे थमाए और कुछ ने अमिताभ जी को। बताना आवश्यक है कि संजय भाई ने भी अपना हिस्सा देना चाहा लेकिन उनकी मैंने एक नहीं चलने दी। लगभग सभी निकल गए थे, कुछ महिलाएँ रह गईं थी। रचना जी ने पूछ लिया कि उनको कितना देना है, तो मैंने कहा कि भुगतान हो चुका है, कुछ नहीं देना। लेकिन उन्होंने ज़िद की तो मैंने मुस्कुराते हुए कह दिया कि हम जेन्टलमेन हैं और लेडीज़ से पैसे नहीं माँग रहे(माँगे तो किसी से भी नहीं थे)। अब इतना कहना था कि रचना जी भड़क गईं। कदाचित्‌ उनसे मेरा परिचय न होने के कारण मेरी मज़ाक में कही बात को उन्होंने गंभीरता से ले लिया जिससे कदाचित्‌ उनके अह्‌म को ठेस लगी। रचना जी आपसे क्षमा चाहूँगा, आपके आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचाने का कोई इरादा नहीं था। तो इस तरह बिल टुकड़ों में बंटा, लेखिका का इसको कहने के पीछे आशय क्या था यह विश्वास पूर्ण तो नहीं कह सकता लेकिन जो मैंने समझा उसके कारण मैंने जो वास्तव में हुआ वह लिख डाला।

अब बात आती है सूडोपन की, यानि कि फेक(fake) चरित्र/व्यवहार की। कुछ लोगों की आदत होती है कि स्वयं करना-धरना कुछ नहीं लेकिन दूसरे के करे में खामखा ज़बरदस्ती मीन-मेख निकालना। भई जब भेंटवार्ता की घोषणा की गई तो उस समय तो किसी ने आगे आकर नहीं कहा कि भई कोई आवश्यकता हो तो बताना, हम भी हाथ बंटाना चाहेंगे। कोई बहुत बड़ी चीज़ भी नहीं थी कि मैं किसी को मदद के लिए कहता। लेकिन जैसा कि एक प्रोपोगेन्डा(propoganda) के तहत हो रहा है, नारद से जुड़े हर व्यक्ति को क#$%ना साबित करने की पुरज़ोर कोशिश की जा रही है, जो सामने है उसी को पकड़ लो, चाहे अगला किसी को कुछ कह रहा हो या न कह रहा हो, लेकिन उसका बैन्ड अवश्य बजाना है। जीतू भाई को कहा गया कि वो गोली दे गए, “हम तो खास उन्हीं से मिलने आए थे” वगैरह। अब भई उनकी कोई निजी समस्या थी, नहीं आ पाए, जान लोगे क्या? ब्लॉगर भेंटवार्ता आवश्यक है कि वो समस्या को निपटाना? खैर जीतू भाई अपनी ओर से स्वयं बोलने में सक्षम हैं इसलिए मैं गुस्ताखी नहीं करूँगा। लेकिन अपने बारे में बोल सकता हूँ, इसलिए आगे।

तो जब भेंटवार्ता की घोषणा की गई थी तो मैंने स्वयं पहल कर स्थान का चुनाव किया था और कार्यक्रम बनाया था। आरम्भ में स्थान क्नॉट प्लेस में केवेन्टर्स के सामने स्थित कैफे कॉफी डे क्यों रखा इसका भी कारण दिया था। कितनों को समझ आया, उसकी जानकारी मेरे पास उस समय नहीं थी, अब कुछ अंदाज़ अवश्य है। मसिजीवी आरंभ से ही भजे जा रहे थे कि कैफे कॉफी डे नहीं, लेकिन भई किसी चीज़ से सहमत नहीं तो उससे अच्छी कोई दूसरी भी तो सुझाओ। तो सुझाया तो उन्होंने अवश्य और यदि सुझाव मान लिया जाता तो ब्लॉगर भेंटवार्ता परसों की चिपचिपी गर्मी में या तो इंडिया हैबिटैट सेन्टर(IHC या India Habitat Center) में हो रही होती जहाँ लोग ओपन एम्फीथियेटर(amphitheatre) में बैठे सूर्यदेव का आशीर्वाद ले रहे होते या दिल्ली हाट में बेतरतीब सूर्य की छतरी के नीचे बगल वाले ब्लॉगर बंधु की बात कम और माहौल की चिल्ल-पों अधिक सुन रहे होते। वैसे सुझाव और भी थे, जैसे कि राष्ट्रीय संग्रहालय जहाँ अभी आपने थोड़ा आवाज़ उँची की होती और आपको बाहर निकाल दिया जाता यह कह कि वह कोई कॉन्फ्रेन्स आदि की जगह नहीं है!! तब क्या होता, वही जो अब हो रहा है, सभी मेरी जान को रो रहे होते, क्योंकि आयोजन करने का गुनाह तो मैंने किया ना!! लेकिन सोचता हूँ कि क्या उस स्थिति में एक आवाज़(मसिजीवी की) कम होती मुझे लताड़ने में? ….. पता नहीं, निश्चित नहीं कर पा रहा हूँ, दिमाग का कंप्यूटर इस सवाल को पूछने पर सिस्टम ओवरलोड(system overload) का एरर(error) दे रहा है। यहाँ यह बात अवश्य नोट करने वाली है कि मसिजीवी जी को कैफे कॉफी डे से सख्त चिढ़ है, क्यों अब यह तो मुझे नहीं पता, कदाचित्‌ इसलिए कि मुझे वह पसंद है या फिर कॉफी संबन्धित अल्पज्ञान के कारण या फिर …..

बहरहाल, बहुतों को कैफे कॉफी डे नापसंद आया, सबको लगा कि कोई रेस्तरां है और जैसे वहाँ कोई चर्चा करने को मना करता है। कैफे के एक भाग में 4-5 सोफ़े और कुछ कुर्सियाँ सैट करवा सभी बैठे थे। कैफ़े के उप-प्रबन्धक ने मुझे यह भी कह दिया था कि यदि और अधिक लोग आते हैं तो भी कोई दिक्कत नहीं होने देंगे, सब व्यवस्था है। क्यों कहा? क्योंकि इन साहब को मैं एकाध सप्ताह पूर्व खासतौर से जनपथ जाकर बताकर आया था भेंटवार्ता के बारे में, इसलिए परसों यह उनके लिए अपेक्षित था। पूर्व नियोजित कार्यक्रम के तहत सरवण भवन में सवा ग्यारह लंच के लिए जाने के बारे में लिखा था, लेकिन मैं स्वयं ही 12 बजे से कुछ मिनट पहले पहुँचा था तो क्या कहता। फिर भी मैंने तकरीबन बारह बजकर दस मिनट पर कहा भी कि सरवण भवन चला जाए यदि लंच की इच्छा है तो, लेकिन किसी ने मना कर दिया कि अभी कैफे में ही टिक के बैठें तो अन्य महानुभावों ने कोई रूचि ही नहीं दिखाई। तकरीबन बीस मिनट बाद बात पुनः उठी तो मैंने कहा कि यदि इच्छा है तो चलते हैं नहीं तो मुझे कोई समस्या नहीं है, शैलेश बाबू पुनः मुझ पर लेट आने की बात लेकर पिल पड़े!! खैर, मैंने और शैलेश बाबू ने सरवण भवन जाकर वेटिंग लिस्ट में नाम और लोगों की संख्या लिखवा दी, उन्होंने बोल दिया था कि कम से कम आधा घंटा लगेगा। इधर वापस आए तो लोगों को दिक्कत थी, मैथिली जी के ऑफिस चलने का किसी ने प्रस्ताव रखा और मैथिली जी का चेहरा हज़ार वाट के बल्ब की भांति तो चमका ही, बहुतों ने अपनी सहमति भी जताई। जब अधिकतर लोग जा रहे थे तो अपने को क्या ऐतराज़ हो सकता था, अपन भी साथ लगने को तैयार। कुछ लोगों को यह अच्छा नहीं लगा कि इस तरह स्थानांतरण हो, इसलिए रचना जी ने कैफे से ही विदा ली। लेकिन इस बात के लिए मेरे सिर दोष मढ़ना कहाँ तक सही है?

जब सभी बाहर निकल ही गए थे तब मसिजीवी जी बीवी-बच्चों समेत पधारे। उन्होंने द्वार से अंदर जाते समय किसी से(किससे यह ध्यान नहीं) पूछा कि कहाँ जा रहे हैं सब तो उनको बताया गया कि मैथिली जी के यहाँ स्थानांतरण हो रहा है, कैफे में बात नहीं हो पा रही है अच्छे से। छूटते ही साहब ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा, “मैंने तो पहले ही कहा था”। साहब ने क्या कहा था वह मुझे सब पता है, और उस बारे में मैं ऊपर लिख चुका हूँ, दोहराव की आवश्यकता नहीं समझता। लेकिन अभी अति कहाँ थी, अभी तो ठेठ हिन्दी पढ़ने-पढ़ाने वाले बाऊजी के दिल में गुब्बार बाकी था। तो मुझे गूफ़-अप(goof up), यानि मूढ़ता, का चैम्पियन तो करार दिया ही, साथ ही ऐरोगैन्ट(arrogant), यानि कि अभिमानी/हठी, के खिताब से भी नवाज़ा।

If someone can bring about goof ups well he got to be Amit. Yes he is so good at it and he did it again with razor sharp precision. We reached there..(where well cafe coffee day at Janpath) It was all Amit’s plan after it the only outlet that serves Irish his favorite. So Hindi bloggers reached there in big numbers and there it is, cafe staff objected, repeatedly asked for orders and blaw blaw By the time ‘we’ reached it was already decided that we will have to move out. Not that it was not forewarned but Amit as usual arrogantly yours, rubbished it.

किसी बात को गलत समझ के उसको मिर्च लगा के बताने के बारे में भी अवश्य पढ़ाते होंगे, अजी अतिश्योक्ति अलंकार भी तो कोई चीज़ होती है!! थोड़ी बहुत हिन्दी तो अपन भी समझ लेते हैं जी, किसी को पढ़ाने लायक नहीं आती बस!! 😉

बहरहाल, आगे महाशय लिखते हैं:

Many who decided to stuck to meet had to move 15 odd more kilometers to reach East of Kailash and despite all the good efforts of organisers it wasn’t that comfortable, as it could have been at Pragati Maidan which Maithily suggested earlier. sweatily everyone participated.

गौरतलब है कि मुझे बिलकुल इल्हाम नहीं था कि प्रगति मैदान में बाहर खुले में एयरकंडीशनर लगावाने का प्रबन्ध किया गया था या किसी तरह सूर्य के तेज़ को परसों मंद कर देने का कोई जुगाड़ किया जा सकता/चुका था, कदाचित्‌ कोई दिव्यास्त्र ही चलता, या सबको धूप के चश्में पहना शतुरमुर्ग बना दिया जाता!! 😉 वो तो कैफे कॉफी डे वालों को अवश्य आभार दूँगा कि कन्सिडरेट(considerate) लोग इस बात का ख्याल रखते हैं कि गर्मियों में ग्राहकों को पसीना न आए और सर्दियों में ठंड न लगे। तो ऐसी बातें सुन/पढ़ मुझे थोड़ा बुरा भी लगता है, थोड़ा क्रोध भी आता है, लेकिन उस सबसे अधिक बुद्धिजीवियों की बुद्धि पर तरस आता है और उस कारण बुरा लगना या क्रोध आना सब लगभग नगण्य हो जाता है। अब मुझे ख्याल आता है कि अपने कॉलेज के समय में एकाध अध्यापकों को छोड़ मुझे अन्यों पर तरस ही आता था। क्यों? क्योंकि मैं कोर्स की किताबों के अतिरिक्त विषय संबन्धित डिटेल वाली अन्य किताबें भी पढ़ता था(लायब्रेरी में सड़ रहीं होती थी) और फिर हासिल की गई जानकारी को प्रयोग भी करके देखता था(अन्यथा पूरे तीन साल 160 से अधिक विद्यार्थियों में से किसी में ऐसी धृष्टता करने का साहस नहीं हुआ कि बीच क्लास में हर पाँच मिनट में अध्यापिका को टोक यह बता सके कि वह गलत बता गई है या पढ़ा रही है)।

यह भी हाईलाईट(highlight) करने की कोशिश की गई है कि कैफे में चर्चा नहीं हो पा रही थी। अब जैसे मैंने देखा उसके हिसाब से तो जिस तरह कैफे में बैठे थे उसी तरह मैथिली जी के दफ़्तर में भी बैठे थे। जिस तरह कुछ टोलियाँ बन कैफे में बातचीत हो रही थी उसी प्रकार मैथिली जी के यहाँ भी हो रही थी और ऐसे ही होती रहती यदि सृजन जी सबको टोक एक ही चर्चा में भाग लेने के लिए नहीं कहते। तो क्या लोग यह कहना चाह रहे हैं कि यह मैथिली जी के दफ़्तर में विराजमान दैवीय शक्ति का प्रभाव था कि सृजन जी ने ऐसा कहने की हिम्मत दिखाई? न भई, ऐसे मत कहो, सृजन जी में वैसे ही हिम्मत की कमी नहीं है, जो उन्होंने मैथिली जी के दफ़्तर में किया वो कैफे में भी कर सकते थे। और मैं समझता हूँ कि यह बात कदाचित्‌ मैथिली जी को भी नहीं पता होगी, उनके लिए तो यह वाकई आश्चर्यजनक होगा। तो भई काहे भले मानस को टेन्शन में डालते हो, मैं नहीं चाहता कि वे पंडित जी के पास जाकर दक्षिणा दे इसका कारण जानने का प्रयास कर समय और धन व्यर्थ करें, उनके पास करने के लिए अन्य आवश्यक कार्य हैं जिनसे कईयों का भला होगा न कि सिर्फ़ एक पंडित का।

मुझसे कईयों ने पूछा कि कैसी रही भेंटवार्ता, तो मुझे नहीं समझ आ रहा था कि यदि मैं कहूँ कि मेरे अनुसार केवल दो ही बताने योग्य चीज़ें हुई थीं भेंटवार्ता में; एक मैथिली जी के सुपुत्र सिरिल से उनके केबिन में हुई कुछ मिनट की सार्थक बातचीत(परिचय अधिक हुआ एक दूसरे का, आशा है असल बातचीत तो भविष्य में होगी) और दूसरी मैथिली जी की मेज़बानी, तो भलेमानस और बुद्धिजीवी पता नहीं क्या अर्थ निकालेंगे। अब निकालेंगे तो निकालते रहें, अपने को कोई फर्क नहीं पड़ता। सिरिल से अधिक बातचीत होने के पूरे आसार नज़र आ रहे थे, लेकिन बीच में ही परदा गिराने अरूण जी आ गए और जबरन यह बताते हुए बाहर लिवा लाए कि ब्लॉगरों की अदालत में मेरा हॉट सीट पर बैठने का सबसे पहला नंबर है, और यकीनन घुघूती जी परिचर्चा के नाम का गोला दागने के लिए एकदम तैयार बैठीं थीं!! 😉

परसों की भेंटवार्ता ने दो चीज़ें अवश्य सिखा दी। पहली तो यह कि मुझे आगे से कभी आयोजन नहीं करना। सृजन जी और जगदीश जी मुझे अक्सर कहते रहते हैं कि भई करो, दिल्ली की अगली भेंटवार्ता सैट करो, तो अब अनुरोध है कि आगे से मत कहिएगा जी, परिणाम आप देख ही रहे हैं, मुझे आयोजन करने की न तो तहज़ीब है और न ही अक्ल, इसलिए आशा है कि आगे से आप मेरी भद्द पिटवाने को मुझसे नहीं कहेंगे। जो इस भेंटवार्ता में सम्मिलित हुए, जो नहीं हो पाए और जो आकर चले गए, आप सभी को मेरी गूफ़-अप की आदत और ऐरोगेन्स के कारण जो कष्ट हुआ उसके लिए क्षमा चाहूँगा, आशा है कि आपके बड़े दिल में मुझ ऐरोगेन्ट के लिए क्षमा अवश्य होगी। साथ ही आशा भी है कि जो बुद्धीजीवी और अच्छा आयोजन करने वाले इस बार के ऐरोगेन्स भरे आयोजन से चिढ़े हुए थे वे भविष्य में स्वयं यह साबित करेंगे कि उनमें सिर्फ़ बकर-२ करने का गूदा है या कुछ (बेहतर)ऐरोगेन्स रहित कर दिखाने की समझ है।

दूसरी चीज़ यह सीखी कि हर किसी को कॉफी पब कल्चर की जानकारी नहीं, इसलिए हो सकता है लोग यह सोच चर्चा आदि करने में हिचकिचा रहे हों कि रेस्तरां वाले कहीं आपत्ति न उठाएँ। जिनको भी ऐसा लगा उनको यह बताना चाहूँगा कि ऐसा कुछ नहीं है, बरिस्ता और कैफे कॉफी डे में आम रेस्तरां वाला माहौल नहीं कि जैसे ही आपकी चाय-कॉफी समाप्त हुई आपको जाना होगा। इन जगहों पर मैंने सुबह/दोपहर में लोगों को कैरमबोर्ड आदि खेलते हुए भी देखा है, रात्रि भोजन के पश्चात गिटार बजा गाना गाते भी देखा है और बेतकल्लुफ़ हो चर्चा करते तो सदैव देखा है।

इस भेंटवार्ता के पूर्ण होने पर मैं मैथिली जी को धन्यवाद देता हूँ कि मामला उन्होंने संभाल लिया वरना अपने को तो जूते-चप्पल पड़ जाने थे। उनकी मेज़बानी के लिए भी मैं तहेदिल से(झूठा नहीं) शुक्रिया करता हूँ और उनसे अनुरोध है कि भविष्य में वे कम से कम मुझे तो खान-पान आदि के बिल मे योगदान देने देंगे(दोपहर का लंच मैथिली जी की ओर से हुआ) अन्यथा उनकी मेज़बानी स्वीकारने में वाकई हिचकिचाहट होगी।

जो तस्वीरें मैंने ली थीं उनको तो पोस्ट कर ही चुका हूँ, जो देखना चाहें देख लें।