मसिजीवी जी ने कुछ अंग्रेज़ी के सरमायेदारों के बारे में, या कहें एक अंग्रेज़ी के सरमायेदार के बारे में बताते हुए लिखा कि इंटरनेट पर हिन्दी भाषी दुनिया में अंग्रेज़ी के विरुद्ध इतने लोग नहीं हैं जितने हिन्दी विरोधी भारतीय अंग्रेज़ी ब्लॉगरों की जमात में हैं।

अधिक तो खैर कुछ नहीं लिखूँगा क्योंकि यदि लिखने लगा तो कदाचित्‌ बहुत कुछ लिख जाउँगा, लेकिन इतना अवश्य कहना चाहूँगा कि यह बताने का भी मसिजीवी जी को कष्ट करना चाहिए था कि इस लिंक पर कितने लोग हिन्दी के प्रति ऐसी हेय दृष्टि रखे हुए थे और कितने अंग्रेज़ी वाले उस व्यक्ति को लताड़ रहे थे। लिंक पर क्लिक कर कोई भी देख सकता है कि वह सिर्फ़ एक बीमार मानसिकता वाला डॉलर का गुलाम व्यक्ति था जो विक्षिप्त प्रलाप कर रहा था जबकि बाकी उसको समझाने का प्रयत्न कर रहे थे। और साथ ही यह बात भी गौरतलब है कि वह पोस्ट 2 वर्ष पुरानी है; यहाँ 2 दिन में दुनिया बदल जाती है, तो क्या दो वर्षों में हालात कुछ सुधरे नहीं हैं? थोड़ा ही सही लेकिन मैं समझता हूँ कि सुधार हुआ है। और वैसे भी इस तरह के लोग दोनों ओर हैं, यदि हिन्दी को भला-बुरा कहने वाले अंग्रेज़ भारतीय हैं तो यहाँ हिन्दी वालों में भी अंग्रेज़ी को खामखा गरियाने वाले कम नहीं हैं!! लेकिन इन लोगों से क्या कोई फर्क पड़ता है? मैं नहीं समझता पड़ता है, मेरे अनुसार ये लोग गौण उत्पादन(by-product) हैं जिनको अनदेखा कर बिना कोई भाव दिए आगे बढ़ना चाहिए, न कि उनसे वाद-विवाद में अपना समय नष्ट करना चाहिए, क्योंकि समझ वही सकता है जिसमें अक्ल हो, जिसमें अक्ल नहीं उन लोगों को समझाना भैंस के आगे बीन बजाना है!!