पिछले अंक से आगे …..
तारागढ़ में मैंने कुछ अच्छी तस्वीरें ली थीं परन्तु फिर भी मन थोड़ा खिन्न था, कदाचित् किले की अनुपस्थिती देख। बहरहाल अब हम तारागढ़ से नीचे वापस अजमेर में आ गए और पता पूछते हुए अना सागर के नाम से प्रसिद्ध कृत्रिम तालाब की ओर बढ़ चले। वहाँ पहुँच के लगा कि पहले भोजन कर लिया जाए, लगभग सभी क्षुधा पीड़ित थे, तो पास ही मौजूद “पंडित भोजनालय” में जाने की सोची। लेकिन वहाँ अंदर जाकर कुछ का मन बदल गया, वहाँ खाने का उनका मन नहीं था, लेकिन हमारे ड्राईवर साहब अपने भोजन का ऑर्डर दे चुके थे, तो इसलिए हम लोग भी बैठ गए कि जैसे ही वे अपना भोजन समाप्त करेंगे तो हम चल के किसी अन्य रेस्तरां में भोजन लेंगे।
कुछ देर बाद हम किसी अन्य रेस्तरां को खोज रहे थे, कई जगह पूछा, हर जगह अलग उत्तर मिला। अभी बाज़ार से गुज़र रहे थे कि एक जगह “होटल, रेस्तरां एण्ड बार” का बोर्ड दिखा तो गाड़ी रूकवा वहाँ पता करने गए कि रेस्तरां खुला है कि नहीं। रिसेप्शन पर उपस्थित महोदय ने बताया कि अभी उनका रेस्तरां चालू नहीं हुआ है। उनसे किसी अच्छे रेस्तरां के बारे में पूछा तो उन्होंने दिशा निर्देश देते हुए बताया कि पास ही में “मैंगो मसाला” नाम का रेस्तरां है जो कि अजमेर में सबसे बढ़िया है। तो हम लोग चल पड़े उनके दिए दिशा निर्देशों के अनुसार और रास्ते में भी एकाध जगह पूछ लिया उस रेस्तरां के बारे में। आखिरकार कुछ देर भटकने के बाद हम पहुँच ही गए “मैंगो मसाला” पर। सभी की तबियत उसको देख प्रसन्न हो गई। ऑर्डर देने के बाद उन्होंने खाना भी जल्द ही परोस दिया, अधिक समय नहीं लगाया। भरपेट भोजन के बाद हम पुनः पहुँच गए अना सागर नामक तालाब पर। सांयकाल और छुट्टी(26 जनवरी) होने के कारण कदाचित् कुछ अधिक ही भीड़ थी, अंदर बाग़ में भी बहुत लोग अपने अपने परिवारों और मित्रों के साथ आए हुए थे, विदेशी पर्यटक भी थे।
( अना सागर तालाब का बाग़ )
हमने सबसे पहले तालाब में नौका विहार करने की सोची, तालाब काफी बड़ा था और बीच में एक टापू भी था। नौकाविहार के लिए टिकट लेने पहुँचे तो वहाँ भी बहुत भीड़ थी और फिर पता चला कि सभी नौकाएँ व्यस्त हैं, तकरीबन आधे घंटे बाद नंबर आएगा। यह देख हमने नौकाविहार का विचार त्याग दिया और ऐसे ही बाग़ में टहलने की सोची। तालाब के किनारे पर हर तरह का कूड़ा पड़ा था, किनारे का पानी भी बहुत गंदा हरे रंग का था और बहुत तीव्र दुर्गन्ध आ रही थी।
( अना सागर तालाब )
बाग़ में नशेड़ी भरे हुए थे जो कि नशे में धुत घास पर बेसुध पड़े थे। एन्सी और शोभना से माहौल बर्दाश्त नहीं हो रहा था तो वे लोग बाहर गाड़ी में जाकर बैठ गए। मैं और योगेश बाग़ में ही थे, योगेश को तस्वीर लेने के लिए कुछ अच्छा मिल नहीं रहा था तो उसी की तलाश थी। तभी मैंने देखा कि सूर्य पश्चिम में पहुँच चुका है और शीघ्र ही अस्त हो जाएगा। लेकिन मौजूदा स्थिति में तालाब के जल में सूर्य का प्रतिबिम्ब बहुत सही लग रहा था, तो मैंने उसकी तुरंत तस्वीर ले डाली।
( पानी में सूर्य का प्रतिबिम्ब )
आखिरकार योगेश को लेने लायक एक फ्रेम दिखाई पड़ गया तो उसकी तस्वीर ले ली गई और फिर हम दोनों भी वापस बाहर ही ओर हो लिए।
अब लिस्ट में अगला नंबर था “अढाई दिन के झोंपड़े” का, तो उसका पता पूछते-पूछते हम बढ़े चले जा रहे थे। किसी महानुभाव के बताए गलत रास्ते पर बढ़ते हुए हम दरगाह के एक मार्ग पर पहुँच गए जहाँ से अढाई दिन के झोंपड़े पर पहुँचने के लिए काफी चलना पड़ता। तो फिर किसी साहब ने दूसरा मार्ग बताया जहाँ से गाड़ी जा सकती है तो हम उस मार्ग पर बढ़ चले। बढ़ते-२ एक पहाड़ी सड़क पर पहुँचे जहाँ अत्यधिक तीव्र दुर्गन्ध आ रही थी क्योंकि आसपास बहुत से कुत्ते और कुत्ते के बच्चे मरे पड़े थे और उनके शव सड़ रहे थे(ये सब गाड़ियों के नीचे आकर मरे थे क्योंकि एकदम से ये गाड़ियों के सामने आ जाते हैं)। वहाँ सड़क के एक ओर एक खंडहर सी दीवार का एक भाग ही दिख रहा था। सबने सोचा कि यही अढाई दिन का झोंपड़ा है इसलिए अपने को कोसने से लगे कि क्या इसी के लिए इतनी दूर आए। वापस पलट के जा रहे थे कि मार्ग में एक पर्यटन वालों की टवेरा को देख रूक गए कि ताकी उसके ड्राईवर से पूछ लिया जाए। ड्राईवर से पता चला कि जिस दीवार के खंडहर को हम अढ़ाई दिन का झोंपड़ा समझ रहे थे दरअसल वह एक पुरानी दीवार का भाग ही था, अढाई दिन का झोंपड़ा तो आगे था जिस पर जाने का रास्ता सड़क से नीचे उतर बाज़ार से था। तो गाड़ी वापस घुमा हम चल दिए। चूँकि अभी दो और मित्रों ने रात तक अजमेर पहुँचना था इसलिए सर्वसम्मती से निर्णय लिया गया कि हम लोग दरगाह अगले दिन सुबह जाएँगे, आज नहीं जाएँगे!! बाज़ार में एक दुकानदार से पूछा तो उसने कहा कि उसकी दुकान के पीछे जो सीढ़ियाँ जा रही हैं वहीं से रास्ता है। हम लोग वहाँ से आगे बढ़े कि एकाएक एक बावला सा लगने वाला फटेहाल व्यक्ति सामने आ गया और बोला कि वहाँ से आगे नहीं जा सकते, अढाई दिन के झोंपड़े पर जाने के लिए आगे से रास्ता है, वह नहीं है। हम उसकी बात पलटे और सीढ़ियाँ उतर दूसरे रास्ते की ओर बाज़ार में बढ़ चले। तभी शोभना घबराई सी पास आई, मैंने पूछा क्या हुआ तो बोली कि उसी व्यक्ति ने उसे पीछे से पकड़ने की कोशिश की थी। उसके बाद मैंने एन्सी और शोभना को हिदायत दी कि मेरे और योगेश के साथ रहें, अलग न विचर जाएँ।
कुछ ही पल बाद हम अढाई दिन के झोंपड़े पर पहुँच गए।
( अढाई दिन का झोंपड़ा )
कुछ खास नहीं वहाँ, एक मस्जिद बनी हुई है। लेकिन मुख्य इमारत पर अच्छी शिल्पकारी की गई है, यह आपको दिन में ही अच्छे से दिखाई देगी, जिस समय हम पहुँचे उस समय सूर्यास्त हो चुका था। इतिहासकारों के अनुसार यहाँ हज़ार वर्ष पहले तक जैन मन्दिर होते थे। पृथ्वीराज चौहान को हरा चुकने के बाद हाकिम बने मोहम्मद गोरी ने इनको मस्जिद में तब्दील करने का फ़रमान जारी किया था जिसको उसके हुक्मबरदारों ने ढाई दिन में बजा के दिखाया था जिस कारण इसका नाम “अढाई दिन का झोंपड़ा” पड़ा।
अंधेरा घिर आया था इसलिए हम सभी ने वापस जाने की सोची।
( अढाई दिन का झोंपड़ा )
बाज़ार में रंगीनियाँ और रोशनी बहुत थी, चहलपहल भी खूब थी। बहुत से नग वगैरह बेचने वाले बैठे थे जो कि वास्तव में सिर्फ़ काँच के टुकड़े थे। एक दुकान पर पहुँच मैंने तस्वीर ली और दुकानदार से दर्याफ़्त करने पर पता चला कि साहब अमेरिकन डायमण्ड बेच रहे थे!! 😉
( अमेरिकन डायमण्ड विक्रेता )
बहरहाल, हम आगे बढ़ते गए, वापस अपनी गाड़ी में बैठे और अपने होटल पहुँच गए। अब सभी थकान के कारण खस्ताहाल थे। इधर हितेश को फोन लगाया तो पता चला कि वह और स्निग्धा बस पहुँच ही गए हैं और होटल की ओर आ रहे हैं। हम भी नीचे उतर आए और अपने ड्राईवर को जगाया जो कि बेचारा यह सोच गाड़ी में सो गया था कि हमारा आज का कोटा पूरा हो गया था और अब कहीं नहीं जाएँगे। हम होटल के प्रवेशद्वार पर खड़े दोनों की प्रतीक्षा कर रहे थे कि जैसे ही आएँगे उनको गाड़ी में अगवा कर रात्रिभोज के लिए चलेंगे क्योंकि तकरीबन साढ़े नौ बज रहे थे और पता नहीं था कि कब तक रेस्तरां खुलेंगे क्योंकि दुकानें आदि बंद होना शुरू हो गई थीं। तभी हमको हितेश और स्निग्धा आते नज़र आए, सभी उनसे बलगीर हो मिले। आननफ़ानन उनका सामान गाड़ी में लादा गया और गाड़ी “मैंगो मसाला” की ओर चल पड़ी। अब वही रेस्तरां इस कारण सूझा क्योंकि किसी और रेस्तरां को जाँचने का समय नहीं था। 😉
रेस्तरां पहुँच उसके बाहर गाड़ियों की ठीक-ठाक तादाद देख सबकी जान में जान आई, रेस्तरां अभी खुला था। अंदर पहुँच सभी एक टेबल पर काबिज़ हुए और तुरंत खाने का ऑर्डर दिया गया जो कि जल्द ही सर्व हुआ। पेटभर खा चुकने के बाद तीनों लड़कियों का सिन(sin) यानि कि पाप करने का मन हुआ। अब ऐसा वैसा मत सोचिए, यहाँ सिन करने का अर्थ है डेज़र्ट(dessert) से है जिसे खाना पाप इसलिए समझा जाता है ताकि उसे कम किया(खाया) जाए क्योंकि कैलोरी(calorie) से भरपूर होता है। मैंने और हितेश ने सिन करने में लड़कियों का साथ देना कबूल किया, योगेश ने बिना चॉकलेट के सभी पापों में थोड़ा हिस्सा बंटाना स्वीकारा। बहरहाल सभी ने तगड़े पाप किए और फिर वापस होटल की राह पकड़ी!! 😉 होटल पहुँच सभी ने तरोताज़ा हो लड़कियों के कमरे में एकत्र हो महफ़िल जमाने की सोची और थोड़ी देर बाद सभी अपनी-२ उपस्थिति लगा रहे थे। लेकिन बोतल खोलने और खाली करने लायक कोई नहीं था, जहाँ हम चार लोग सारा दिन अजमेर में घूम ऐसी-कि-तैसी करवा चुके थे, वहीं हितेश और स्निग्धा आठ घंटे के बस के सफ़र से खस्ताहाल थे। अगले दिन सुबह जल्दी उठना भी था क्योंकि दरगाह भी जाना था और उसके बाद पुष्कर की राह पकड़नी थी, इसलिए थोड़ी देर की गपशप के बाद सभी ने शुभरात्रि बोल अपने-२ बिस्तर पकड़ लिए।
अगले अंक में जारी …..
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