पिछले भाग से आगे …..
अगले दिन की सुबह बढ़िया थी, लेकिन हमारे पहली मंज़िल पर स्थित कमरे की बाल्कनी से सामने नंदादेवी, पूर्वी नंदादेवी, चौखम्बा, त्रिशूल आदि साफ़ नज़र नहीं आ रहे थे, उनकी शिखाओं को बादलों और धुंध ने घेर रखा था, बर्फ़ ने अपनी चादर से तो वैसे ढक ही रखा था। सुबह जल्दी ही निकलने का कार्यक्रम था, मेरे को नींद आ रही थी, जाने का मन नहीं था लेकिन मेरी एक नहीं चली, कह दिया गया कि यदि नींद आ रही है तो गाड़ी में सो जाउँ, जंगल वाले शॉर्टकट से जाने पर भी अल्मोड़ा पहुँचने में एक-डेढ़ घंटा तो लगेगा ही, तो हम लोग पौने आठ तक निकल लिए। लेकिन मेरा मन कुछ अजीब सा हो रहा था, उल्टी सी आने को हो रही थी, तबियत खराब लग रही थी। 🙁
किसी ने सुबह नाश्ता नहीं किया था इसलिए थोड़ी आगे जाने पर एक चाय की दुकान पर गाड़ी रोकी गई और सभी निकल चाय पीने चले गए। मैं गाड़ी में ही आँखें बन्द किए बैठा रहा,तबीयत वाकई खराब लग रही थी, कदाचित् ठंड लग गई थी। मोन्टू और मनोज को लगा कि तबीयत खराब सी है तो वो पूछने भी आए और बोले कि यदि अधिक खराब नहीं है तो साथ ही चल लूँ, थोड़ी देर में ठीक हो जाएगी, नहीं तो वापस जा आराम करूँ। अब मेरे भी दो मन थे, एक कहता कि वापस जाउँ और एक कहता बढ़े चलो वीर जवान। मन किया कि घर फोन कर माँ से बात करूँ, लेकिन गले से भारी सी आवाज़ निकल रही थी। माँ ने छूटते ही पूछा कि आवाज़ को क्या हुआ, पिछली रात को बोतल वगैरह लगाई थी क्या!! 😉 तब मैंने बताया कि नहीं बोतल तो नहीं लगाई थी, लेकिन तबीयत खराब लग रही है। तुरंत सलाह मिली कि एक लौंग दाढ़ में दबा लूँ और कुछ गर्म दूध या कॉफ़ी पी लूँ। अब चाय मैं पीता नहीं इसलिए माँ ने वो पीने को नहीं कहा। तो मैंने सलाह पर अमल करते हुए मनोज से कहा कि आसपास देखे लौंग मिले तो ले आए और चूँकि कॉफ़ी उपल्ब्ध नहीं थी, मैंने इसलिए इलायची वाली चाय पी। चाय पीते ही और लौंग मुँह में दबाते ही चमत्कारी असर हुआ, तबीयत सुधरने लगी। 🙂
बाकियों ने भी मेरी तबियत में सुधार देख राहत की साँस ली होगी, क्योंकि साथ चलने वालों में किसी एक की भी तबियत खराब हो जाए तो बाकियों को भी भुगतना पड़ता है। तो इस सुधरती तबीयत के साथ हम लोग आगे बढ़ चले, जंगल के बीच से निकलती सड़क से अल्मोड़ा की ओर। जंगल में एकाध जगह बीच में हम रूके भी, जहाँ लोग कुछ टहल लिए और हल्के हो लिए। हितेश को पता ही नहीं चला कि कब उसके पीछे से आकर मैंने उसकी उस समय तस्वीर ले ली जब वह एक पेड़ की सिंचाई में व्यस्त था!! 😉
थोड़े समय बाद हम लोग अल्मोड़ा को पार कर कटारमल की ओर बढ़ रहे थे, मार्ग में कोसी पड़ा जहाँ नदी किनारे हम लोगों ने दोपहर का भोजन करने की सोची। कुछ ही देर में कटारमल भी पहुँच गए। यहाँ का सूर्यमंदिर कभी भव्य रहा होगा, लेकिन वर्षों से अपेक्षित पड़े रहने के कारण खंडहर हो गया।
लेकिन फिर कुछ समय पहले एएसआई को सुध आई होगी और इसके रीस्टोरेशन का कार्य आरम्भ हुआ, जब हम गए तब भी चल रहा था।
( कटारमल का सूर्य मंदिर )
इसके कॉमप्लेक्स में एक बड़े मंदिर को घेरे 45 छोटे मंदिर हैं, जिनमें अब मूर्तियाँ आदि नहीं हैं, केवल ढांचे ही हैं।
( कटारमल का सूर्य मंदिर )
थोड़ा समय वहाँ व्यतीत कर हम लोग वापस हो लिए। कोसी पहुँच सभी का नदी में बैठने का मन हुआ। आसपास के कुछ स्थानीय लोग भी स्नान कर रहे थे। एक स्थान पर जहाँ पत्थर अधिक थे और पानी केवल घुटनों से नीचे था, वहाँ सभी लोग अपनी-२ बीयर की बोतलें खोल के बैठ गए। अब न मेरा बीयर का मन था और न ही नदी में जाने का, इसलिए मैं किनारे पर ही एक शिला पर बैठ बाकी लोगों की अर्ध नग्न तस्वीरें लेने लगा, एकाध वीडियो भी बना डाले। 😉 वे लोग जब बाहर आ कपड़े बदल रहे थे तो तब भी अपने मोबाइल से उन सबका वीडियो उतारा जा रहा था जिसकी उनको भनक भी न थी। दीपक ने सोचा कि मैं तस्वीर लेने जा रहा हूँ तो अपनी-२ चड्ढी और अंगोछे संभाल सभी एक दूसरे के कंधों पर हाथ रख एक कतार में पोज़ बना के खड़े हो गए। झटका तो उनको तब लगा जब मैंने खुलासा किया कि उनका तो वीडियो बन रहा है और काफ़ी देर से बन रहा है!! 😉
आखिरकार अपने-२ कपड़े पहन सभी रेस्तरां में पहुँचे और वहाँ दोपहर का भोजन निपटाया गया। उसके बाद वापस मुक्तेश्वर की ओर चल दिए। रास्ते में एक जगह बढ़िया कैम्पसाइट दिखी, सड़क के बाजू में ही घास का मैदान और उसपर उगे हुए लम्बे पेड़। वहाँ बड़े ही टशन में फोटो खिंचवाई गई।
उसके बाद अगला पड़ाव अल्मोड़ा था। मोन्टू का कहना था कि बाज़ार बहुत अच्छा है वो देखना है तो हम उसके कहने पर बाज़ार भी देख लिए, कुछ खास न था, मोन्टू की सभी ने खूब चिकाई करी!! और वहाँ की नगर पालिका की स्थापना सन् 1864 में हुई थी यह देख वाकई हैरानी हुई।
( 1864 में स्थापित अल्मोड़ा नगर पालिका )
अल्मोड़ा से भी एकाध जगह से सुन्दर दृश्य दिखे।
तत्पश्चात हम लोग वापस मुक्तेश्वर आ गए। यात्री निवास की ओर जाते समय सूर्यास्त हो रहा था, तो उसकी एक और अच्छी तस्वीर मिल गई।
थके होने के कारण सभी आराम करना चाहते थे, इसलिए बोतल वगैरह को अधिक तवज्जो नहीं दी गई। लेकिन ताश का जो खेल पिछली रात्रि खेला था उसमें मज़ा आ गया था इसलिए मनोज और मैंने योगेश तथा हितेश को थोड़ी देर खेलने के लिए तो पकड़ ही लिया। मैं मन ही मन सोच रहा था कि अच्छा हुआ जो सुबह यात्री निवास में नहीं रूका और वापस आने से पहले माँ को फोन कर लिया, तबीयत में सुधार हो गया और बाकी का दिन मौज-मस्ती से बीता वर्ना में पूरा दिन खामखा बेकार तो होता ही, अकेले मैं बोर भी हो जाता!! 😉
अगले भाग में जारी …..
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