स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने बताया है कि आजकल क्रिकेटिया ज्वर चल रिया है, भारतीय जवान पहला २०-२० वाला अर्द्ध क्रिकेट विश्वकप जीत लाए हैं। अब इस पर भी प्रश्न हो रहे हैं, कोई कह रहा है कि हॉकी वालों को क्यों भूल गए और रईसों पर पैसे की बारिश क्यों तो दूसरी ओर कोई कुछ गरीब क्रिकेटरों के हक़ के लिए लड़ रहा है। इधर जीतू भाई अपने बचपन के बीते क्रिकेटिया दिनों में पहुँच गए तो मेरे को लगा कि क्रिकेट तो मैं भी काफ़ी खेला हूँ बचपन में, काफ़ी क्या जितना खेला हूँ उससे भी मन नहीं भरा!! 😉 दसवीं के बोर्ड की परीक्षाएँ चल रही थीं, अगले दिन परीक्षा होती, पाठ तैयार होता या न होता, क्रिकेट खेलने अवश्य पहुँच जाता और जब वापस आता तो माता जी से अपने लिए स्तुतिगान सुनता और झापड़ों का प्रसाद भी मिलता बकायदा!! 😉 इतना ही नहीं, रात को भी पूरा इंतज़ाम होता अंडर द लाइट्स (under the lights) खेलने का। 😉 अब क्या है, नानी जी की सोसायटी में ही अपने सारे यार दोस्त, साथ के भी, और बड़े (अकड़ू और खड़ूस)भईया लोग भी, और सोसायटी की एक इमारत में नीचे एक बड़ा सा हॉल(चार फ्लैटों के जितने एरिया में), उसी में मरकरी (mercury) लाईटें लगाई, बिजली के मेन्स में तार जोड़ी और एक क्रिकेट वाले नेट का जुगाड़ किया और रात को खेलने के लिए मामाला सेट!! अब क्या है कि इस हॉल के एक मुँह पर सोसायटी का खुला मध्य-भाग है और दूसरे मुँह पर एक मीटर दूर दीवार है, तो खुले मुँह पर नेट लगा दिया जाता ताकि गेंद अंधेरे में खो न जाए। 😉 फिर दो तरीके का क्रिकेट खेला जाता; लाँग पिच (long pitch) और शॉर्ट पिच (short pitch)। लाँग पिच में हॉल के एक मुँहाने पर बल्लेबाज़ होता और दूसरे पर से तेज़ गेन्दबाज़ी होती(गेन्दबाज़ बाहर से भाग के आता), वहीं दूसरी ओर शॉर्ट पिच तब खेलते जब खेलने वाले अधिक हों, तो लंबाई में खेलने की जगह चौड़ाई में खेला जाता, बायीं ओर की दीवार के पास बल्लेबाज़ और दायीं ओर की दीवार पर गेंदबाज़ बिना हाथ घुमाए स्पिन गेन्दबाज़ी करता और लेग साइड पर रन बनाने होते(कभी-२ इसको पलट कर ऑफ़ साइड रन बनाने वाला भी खेला जाता)।
आवश्यकता अविष्कार की जननी होती है, यहाँ भी अविष्कार की कमी नहीं थी। बंदे ज़्यादा हैं तो शॉर्ट पिच खेल का अविष्कार हुआ जो कि २०-२० की तरह सरासर बल्लेबाज़ का खेल था। क्योंकि तेज़ गेन्द फेंकने पर पाबंदी थी, इसलिए रन पड़ने से रोकने के लिए एक से बढ़कर एक स्पिन की ईजाद की गई। इसमें मैं और एक अन्य लड़का सबसे आगे, नए-२ प्रयोग करते रहते थे(जब साथ में छोटे बच्चे खेल रहे हों या सामने कोई ढीला खिलाड़ी हो) और इन्हीं प्रयोगों के चलते हम दोनों ने एक-२ नई ईजाद की; उसने टप्पा खाकर रूक जाने वाली(या वापस गेंदबाज़ की दिशा में सरकने वाली) गेंद की ईज़ाद की और मैंने बल्लेबाज़ के पैर के पास टप्पा डाल अप्रत्याशित रूप से बल्लेबाज़ के चेहरे तक उछल जाने वाली गेंद की ईज़ाद की। ये दोनों गेंदे सही तरीके से अचानक प्रयोग करने पर बहुत मारक सिद्ध होतीं थीं। लेकिन मैंने महसूस किया था कि मेरी तकनीक उतनी कारगर नहीं होती विकेट लेने में जितनी वो रूक जाने वाली गेंद होती थी तो इसलिए प्रतियोगिता में रहने के लिए मैंने जल्द ही समझ लिया कि यह गेंद आखिरकार होती कैसे है(उस लड़के ने नहीं बताया था) और फिर उसको धीरे-२ सुधारा। लेकिन अपनी ईज़ाद की तकनीक को मैं भूला नहीं और उसको लाँग पिच वाले खेल में प्रयोग करने की कोशिश की। गर्मियों की छुट्टियों में भरी दोपहर में, जब कोई कुत्ता भी बाहर नहीं नज़र आता था, मैं उस सोसायटी हॉल में अकेले अपनी गेंदबाज़ी सुधारने का अभ्यास करता था और नए-२ तरीकों को आज़माता था। जितने गेंदबाज़ी के एक्शन मैंने बदले होंगे उतने पूरे मोहल्ले में किसी ने न बदले होंगे, चाह थी सिर्फ़ अधिकतम गति से स्टीक गेंद फेंकने की, हाथ से नहीं वरन् कंधे के बल का प्रयोग करने की!! तो आखिरकार अपनी उस अप्रत्याशित उछाल वाली तकनीक को मैंने लाँग पिच वाले खेल में भी शामिल कर लिया, उस लड़के की रूक सकने वाली गेंद यहाँ नहीं आ सकी क्योंकि हाथ घुमाकर वो गेंद डालना असंभव है।
अब सभी तेज़ गेंदबाज़ प्रायः गुस्सैल क्यों होते हैं यह एक रिसर्च का विषय है, गुस्सैल अपन भी कम नहीं और अपन भी तेज़ गेंदबाज़ ही थे। शुरुआत में बाएँ हाथ से तेज़ गेंदबाज़ी किया करता था लेकिन नौ वर्ष की आयु में स्कूल से वापस आते समय बच्चों से भरे ऑटोरिक्शा के नीचे बायां हाथ आ जाने के कारण दाएँ हाथ से खेलना शुरु किया। बाएँ हाथ को कुछ हुआ नहीं, हड्डी वगैरह भी फ्रैक्चर नहीं हुई लेकिन उस दिन के बाद इससे गेंद नहीं फेंक पाया, कदाचित् कुछ मानसिक असर था। बहरहाल, तो अपनी टोली में एक हुआ करता था सहवाग टाइप लपेड़ा बल्लेबाज़, बल्ले पर जो गेंद चढ़ गई तो समझो छक्का तो लगे ही लगे!! अब उसको गेंदबाज़ी करने का भी शौक हुआ करता था, लेकिन हाथ घुमाकर भी बट्टा ही फेंक पाता, मैंने और अन्य गेंदबाज़ों ने जी भर कोशिश कर ली लेकिन उसको ठीक से हाथ घुमाकर गेंद फेंकना न सिखा पाए। अब उसकी बट्टा गेंद से शुरु में हम लोगों की हवा टाइट होती थी, एक तो तेज़ फेंकता था(मेरे जितनी और मैं अपनी टोली में सबसे अधिक तेज़ फेंकता था, स्वयं मैं अपने जितनी तेज़ खेलने से उस समय घबराता था) और ऊपर से निशाना सही लगता था उसका, गेंद की पिटाई तो दूर विकेट बचाने के लाले पड़ जाते थे!! इसलिए आम सहमति से यही निर्णय लिया जाता था कि बट्टा गेंद प्रतिबंधित है और वो मुँह सुजाकर रह जाता था।
एक बार की बात है कि हम लोग खेल रहे थे, वो अपना बट्टा फेंकने वाला लपेड़ा बल्लेबाज़ दोस्त दूसरी टीम में था और उसका कप्तान पता नहीं काहे हम लोगों से चिढ़ गया कि खेल के बीच में ही(हमारी बल्लेबाज़ी के दौरान) उसको गेंद पकड़ा दी और फिर उसके बाद तो हम लोगों के रनों का सिलसिला थम गया, पाँच ओवर के खेल में हम कुछ खास न बना पाए। अब जब हमारी गेंदबाज़ी आई तो उनकी गिल्लियाँ हम निकाल रहे थे लेकिन पाँचवें ओवर तक आते-२ वही हाल हो गया था जो अभी २०-२० के फाइनल में भारत-पाकिस्तान का था, मतलब रन कम चाहिए थे लेकिन विकेट भी एक ही था। ओवर मेरा था और यदि चार रन पड़ जाते तो मेरे को बहुत भला-बुरा सुनने को मिलता(मत्थे तो मेरे ही मढ़ी जाती हार)। तभी मेरे दिमाग में एक शैतानी विचार आया, दूसरी टीम वालों ने बीच मैच में धोखा कर बट्टा गेंद फिंकवा हमारी वाट लगाई थी तो हम क्यों पीछे रहें, खून का बदला खून वाला जज़्बा वेग से मेरी नसों में दौड़ा, विरोधी टीम का आखिरी बल्लेबाज़ ठुकाई के मूड में था, और अपन दोनों टीमों में सबसे तेज़ गेंदबाज़(सबसे बेहतर नहीं लेकिन सबसे तेज़ अवश्य), इस पर विरोधी टीम का दुर्भाग्य कि मैंने कुछ दिन पहले ही बॉडीलाइन (bodyline) गेंदबाज़ी के बारे में टीवी पर देखा था। तीन गेंद बाकी थी आखिरी ओवर की, चार रन दरकार थे और आखिरी विकेट बचा था। मैंने सोच लिया था कि क्या करना है और अपनी सोच को अंजाम देते हुए पूरा दम लगाकर और निशाना साध बल्लेबाज़ के पेट पर सीधी गेंद फेंकी, वो सीधा हुआ और उसकी जंघा पर गेंद वेग से टकराई, कॉस्को की टेनिस वाली गेंद थी लेकिन फिर भी बहुत ज़ोर से लगी, वो तड़प के नीचे बैठ गया और उसके टीम वालों ने उसे घेर लिया, इधर मेरी टीम वाले प्रसन्न, मेरी ओर शाबाशी वाली निगाहें, ऐसा लग रहा था कि अब ये तो रिटायर्ड हर्ट (retired hurt) हो लिया और अपन जीत गए!! 😉 लेकिन दस मिनट बाद किसी तरह साहस जुटा (और टीम वालों के प्रोत्साहन पर) वो लड़खड़ाता हुआ किसी तरह उठ खड़ा हुआ, इधर मैं भी तैयार था, पुनः पूरा दम लगाकर गेंद फेंकी और वेग से आती हुई गेंद उसको बचने का मौका दिए बिना फिर शरीर के उसी भाग से टकराई और इस बार उसका रहा सहा सारा दम निकल गया, अगले ने हाथ जोड़ दिए और आखिरी गेंद खेलने से मना कर दिया और मैच हम लोगों ने जीत लिया। 😉
उछलने कूदने चिल्लाने के बाद हम लोगों ने हमदर्दी और अफ़सोस जताते हुए उसका हाल भी पूछा और औपचारिकता के नाते मैंने माफ़ी भी माँगी लेकिन इस पूरे प्रकरण में अपने दोस्त(दूसरी टीम के कप्तान) को यह सबक मिल गया कि यदि स्वयं गंदा खेलोगे तो दूसरी तरफ़ से भी गंदे खेल के लिए तैयार रहना चाहिए, यदि तुम सेर हो तो दूसरा सवा सेर हो सकता है!! 😉 रही बात उस बल्लेबाज़ की(अरे उसी की जिसकी सिकाई हुई थी) तो वह तो आने वाले कुछ समय तक मेरी गेंदबाज़ी से आतंकित रहा ही(जो कि गेंदबाज़ के तौर पर मेरे लिए लाभदायक था), साथ ही वह बट्टा फेंकने वाला अपना लपेड़ा मित्र भी यदि विरोधी टीम में होता तो मेरी गेंद को ज़रा इज़्ज़त देकर खेलता था क्योंकि उसको भी आशंका रहती थी कि कहीं मैं उसकी भी आरती न उतार दूँ!! 😉 😀
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