….. अब तानाशाही और अनुचित दबाव है तो है।

कहाँ? अरे भई दुनिया में और कहाँ!! चीन की सेन्सरशिप से मामला गर्म हुआ, सबकी नज़र में आया और उसके बाद से हर ब्लॉगर आदि का ब्लॉग हटाने या ब्लॉगर को ही जेल की हवा खिलाने का समाचार सबकी निगाह में तभी से तुरंत आता है। चाहे चीन ने किसी ब्लॉगर को जेल में डाला, या फलां वेबसाइट को बैन कर दिया, इरान में किसी ब्लॉगर के नाम फतवा निकला, मिस्र में किसी को धर-दबोचा या अभी हाल ही का सउदी अरब में एक ब्लॉगर को जेल में डालने का मामला, हर बार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई दी जाती है। लेकिन हम ये क्यों नहीं समझने का प्रयत्न करते कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आखिर है क्या? हम सभी ये मानने में यकीन रखते हैं कि हमको तो सब पता है जबकि होता ठीक विपरीत है, यानि कि नहीं पता होता!!

कुछ समय पहले मुझसे किसी ने इंटरनेट के संबन्ध में पूछा था कि क्या यहाँ पर भी रेखाएँ खिंची हुई हैं? क्या यहाँ इस साइबर दुनिया में भी देशों के मायने हैं? क्या यहाँ भी…..

इस प्रश्न का क्या उत्तर हो सकता है? अपनी ओर से अपने ज्ञान अनुसार मैंने एक संतुलित उत्तर देने का प्रयास किया। मैंने कहा कि यहाँ भी रेखाएँ हैं, लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि यहाँ दो प्रकार के दल हैं; व्यवसायिक दल और गैर-व्यवसायिक दल। व्यवसायिक दल में हर वह कंपनी आती है जिसकी एक या एक से अधिक वेबसाइट हैं और उनके ज़रिए उनकी आमदनी हो रही है। गैर व्यवसायिक दल में ज़ाहिर सी बात है कि वे लोग शामिल हैं जो व्यवसायिक दल की भांति अपनी वेबसाइटों द्वारा धन नहीं कमा रहे। इंटरनेट क्या है? यह साइबर दुनिया किसी हवा में तो नहीं लटकी हुई ना, ना ही इसका अपना कोई अलग आयाम है जो असली दुनिया से भिन्न है। समझने वाले चाहे कुछ भी समझते रहें लेकिन हकीकत यही है कि इंटरनेट का अस्तित्व वास्तविक दुनिया पर निर्भर करता है क्योंकि यह महज़ एक खुला नेटवर्क है जो कि लाखों मील लंबी तारों, सर्वरों और बेतार-सिग्नलों पर टिका हुआ है। ज़ाहिर सी बात है कि ये सब वास्तविक दुनिया का सामान हर देश में मौजूद है, इसलिए अपने देश में आने-जाने पर उनका नियंत्रण है। यूं समझ सकते हैं कि आप एक देश के नेटवर्क से दूसरे देश के नेटवर्क में बेखटके जा सकते हैं बिना पॉसपोर्ट वीज़ा के लेकिन आपकी आवाजाही पर उस देश का नियंत्रण है जिसके नेटवर्क में आप जा रहे हैं, वह चाहे तो आपको जाने दे और चाहे तो आपको न जाने दे। और हर देश के अपने नियम हैं अपने कानून हैं।

यदि कोई इन मीडिया वालों को और उन ब्लॉगरों को आमने सामने कर इन लोगों से दोनों में से किसी एक को चुनने को कहें तो ये मीडिया वाले भी अपने आप को ही चुनेंगे न कि उन ब्लॉगरों को। तो फिर यह विरोध का ढोंग क्यों? सिर्फ़ रोटियाँ सेंकने के लिए या फिर मूर्ख होने के कारण?

अब जबकि यह स्पष्ट है कि हर देश के नेटवर्क पर उसका राज है तो इस सत्य को भी स्वीकारना होगा कि उसके अपने इलाके के अपने नियम हैं और हर देश के नियम एक से नहीं हैं। भारत का संविधान हम भारतीयों को अभिव्यक्ति की आज़ादी देता है, अमेरिका का संविधान अमेरिकियों को अभिव्यक्ति की आज़ादी देता है लेकिन हम और अमेरिकी चीन या इरान में जाकर जो मन में आए वह नहीं कह सकते क्योंकि उनके कानून इसकी इजाज़त नहीं देते और जब हम उनके इलाके में हैं तो उनके नियमों के अनुसार चलना होगा। तो इसलिए यदि किसी देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं है या किसी चीज़ पर प्रतिबंध है और उस कानून को तोड़ वहाँ का कोई निवासी न्यायपालिका द्वारा धर दबोचा जाता है तो अभिव्यक्ति की आज़ादी का रोना क्यों रोया जाता है? अब उस देश में नहीं है अभिव्यक्ति की आज़ादी तो नहीं है, हल्ला गलत मुद्दे पर क्यों मचाया जाता है और कानून तोड़ने वालों को हीरो क्यों बनाया जाता है? यदि किसी कानून का उल्लंघन नहीं किया गया है और उसके बावजूद न्यायपालिका द्वारा धर-दबोचा गया है तो अवश्य उस गिरफ़्तारी का विरोध होना चाहिए क्योंकि तब व्यक्ति न्याय के लिए लड़ रहा है अपने हक के लिए लड़ रहा है। लेकिन जब हक ही नहीं है तो किसलिए लड़ाई? पहले हक हासिल करो और उसके बाद लड़ो।

उलझ गए? मैं यह नहीं कह रहा कि विरोध न करो, लेकिन सही चीज़ का विरोध करो गलत चीज़ का नहीं। कानून तोड़ने वाले व्यक्ति की वकालत में हल्ला करना गलत है, लेकिन हक माँगने और बदलाव लाने के लिए हल्ला करना नहीं। यदि अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं है तो उसके लिए विरोध करो, तानाशाही के खिलाफ़ प्रदर्शन करो ताकि उससे कुछ हासिल हो और कल को कोई अन्य यह कानून तोड़ मुसीबत में न पड़ जाए।

प्रश्न जब अस्तित्व का उठता है तो प्रत्येक व्यक्ति या समुदाय अपने को ही चुनता है, अपनी तिलांजिली देकर दूसरे के अस्तित्व को कोई नहीं बरकरार रखता

तो जैसे मैंने बात की थी ऊपर व्यवसायिक दल की और गैर-व्यवसायिक दल की; इन दो दलों में सिर्फ़ व्यवसायिक दल फिलहाल इंटरनेट पर मौजूद राष्ट्रों की सीमाओं को समझ पा रहा है क्योंकि इनको न समझने के चक्कर में उनके व्यवसाय को नुकसान हुआ जिस कारण उनको समझने के लिए मजबूर होना पड़ा। यदि बात एक प्रयोगकर्ता की और खुद कंपनी की आती है तो ज़ाहिर सी बात है कि कंपनी अपने को चुनेगी न कि उस प्रयोगकर्ता को क्योंकि उस एक प्रयोगकर्ता के बदले उसको प्रयोगकर्ताओं से भरा पूरा बाज़ार मिल रहा है। इसमें आश्चर्य कैसा? हर व्यक्ति निज स्वार्थ पहले देखता है खासतौर से तब जब अस्तित्व की बात आती है। ये जो अंतर्राष्ट्रीय मीडिया आदि वाले हल्ला मचाते हैं कि माइक्रोसॉफ़्ट ने क्यों अपने प्रयोगकर्ता का ब्लॉग बंद कर दिया, याहू ने क्यों कर दिया या गूगल सेन्सरशिप के आगे क्यों झुक गया, ये लोग यह भूल जाते हैं कि यदि कोई इनको और उन प्रयोगकर्ताओं को आमने सामने कर इन लोगों से दोनों में से किसी एक को चुनने को कहें तो ये लोग भी अपने आप को ही चुनेंगे न कि उन प्रयोगकर्ताओं को। तो फिर यह विरोध का ढोंग क्यों? सिर्फ़ रोटियाँ सेंकने के लिए या फिर मूर्ख होने के कारण? प्रश्न जब अस्तित्व का उठता है तो प्रत्येक व्यक्ति या समुदाय अपने को ही चुनता है, अपनी तिलांजिली देकर दूसरे के अस्तित्व को कोई नहीं बरकरार रखता।

 
विचारणीय विषय है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी हर जगह एक सी नहीं होती और हर जगह नहीं होती। इसलिए विरोध हो तो उसके लिए होना चाहिए कि सबको अभिव्यक्ति की आज़ादी मिले।

आपका क्या मत है?