पिछले वर्ष कार्टून फिल्म आयी थी, रामायण (पूर्ण फिल्म यहाँ देखें)। अच्छी थी, एनीमेशन अच्छा था, संगीत अच्छा था और साथ ही डॉयलाग भी अच्छे थे। उसमें रावण के किरदार को आशुतोष राणा ने आवाज़ दी थी। जब फिल्म में रावण की पहली बार एण्ट्री होती है तो वह डॉयलाग मारता है – हम विश्व विजेता हैं, हम शासक हैं, हम राक्षस हैं….. हम राक्षस हैं! और साथ ही पार्श्वध्वनि में सब एक साथ चिल्लाते हैं – “राक्षस हैं….. राक्षस हैं….. राक्षस हैं”।
एक ब्लॉग पोस्ट पढ़ी एकाध दिन पहले तो एकाएक ही यह डॉयलाग दिमाग में गूँज उठा।
क्या था ऐसा ब्लॉग पोस्ट में? कुछ नहीं इंसानों की हैवानियत का बखान था, बतलाया गया था कि कैसे इंसान अपने हैवान होने का बारंबार लगातार प्रमाण देता है। जैसे बकर-ईद पर बकरे को लाकर हलाल करना, करवा चौथ का व्रत करना, छठ और तीज का त्यौहार मनाना, फर्नीचर बनाने के लिए लकड़ियों को काटना, जंगल उजाड़ना, कुश्ती और बॉक्सिंग जैसे खेलों में खून बहता देख खुशी मनाना आदि हमारे यानि इंसानों के हैवान होने के प्रमाण हैं।
पोस्ट तो खैर मज़ेदार थी ही लेकिन ज़्यादा मज़ेदार मुझे टिप्पणियाँ लगी। एक बार एक मित्र ने कहा था कि टाइम्स ऑफ़ इंडिया की वेबसाइट पर लेख पढ़ने से अधिक उस पर मौजूद टिप्पणियाँ पढ़ने में अधिक मज़ा आता है क्योंकि बहुत से लोग वहाँ अपनी समझदारी का प्रमाण देते हैं। मैंने गौर किया और बात को सत्य पाया, उसके बाद से मेरी हर लेख के साथ टिप्पणियों में भी रूचि बनी, बहुत सी रोचक मज़ेदार टिप्पणियाँ मिलती हैं पढ़ने को जिनको पढ़ मनोरंजन होता है, हंसी आती है। यह भी जोड़ूँगा कि साथ ही ऊपर वाले का शुक्रिया भी अदा करता हूँ कि उसने मुझे इतना समझदार नहीं बनाया अन्यथा मैं भी ऐसी कोई टिप्पणी कर रहा होता और कोई अन्य मेरी समझदारी पर मंद-२ मुस्कुरा रहा होता। 😀
कदाचित् कुछ के मन में प्रश्न हो कि ब्लॉग पोस्ट पढ़ मुझे मज़ा क्यों आया! तो चलिए अपने मज़े के राज़ को बेपर्दा कर ही देते हैं:
बकरे को लाकर बाँधना और उसको प्यार-दुलार देना और फिर उसकी बलि दे देना वाकई हैवानियत जैसा काम है लेकिन करवा-चौथ को उसी पलड़े में तोलना मानसिक दिवालिएपन को अथवा नासमझी की चपेट में आने के बावजूद समझदारी के मद में चूर होना दिखलाता है। क्यों? बकरे को आप कोई विकल्प नहीं दे रहे हैं कि बेटे बचकर भाग सकता है तो भाग ले जबकि करवा-चौथ अनिवार्य नहीं होता यदि पिछड़े इलाकों की बात न करें तो। बहुत सी विवाहिताएँ आजकल यह व्रत नहीं करती, बहुत से पुरूष अपनी पत्नी का साथ देने के लिए स्वयं भी उपवास करते हैं (हाँ बिलकुल “दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे” के शाहरूख के माफ़िक)। इतना ही नहीं, बहुत से पुरूष नहीं चाहते कि उनकी पत्नियाँ खामखा का झंझट करें लेकिन फिर भी पत्नियाँ करती हैं, अन्य धर्म मान्यता में पली बढ़ी होने के बावजूद भी करती हैं, किसी अंधविश्वास की खातिर नहीं सिर्फ़ अपने पति के प्रति अपना प्रेम जतलाने के लिए। और उपवास तो खैर आजकल मात्र औपचारिकता रह गए हैं, यदि हिन्दू मान्यता में देखें तो। सारा दिन चबर-२ कुछ न कुछ चबाते रहो, कभी फल तो कभी दूध का सेवन करो, चाय सुड़क-२ कर पियो और सांयकाल सूर्यास्त के बाद उपवास का अंत और मेन कोर्स का लुत्फ़ उठाना, साथ ही बीवी का इतराना कि देखो तुम्हारे लिए सारा दिन व्रत किया और बेचारे पति का खिसिया के सहमति में सिर हिलाना। इस पर भी यह अत्याचार कि फ्लेक्सिबिलिटी है, अनिवार्य नहीं है कोई उपवास, करना या न करना व्यक्ति विशेष की श्रद्धा पर है।
पर रमज़ान की तो बात ही और है। महीना भर सख्ती के साथ जवान क्या बूढे क्या पुरूष क्या स्त्रियाँ क्या, सबको उपवास करना पड़ता है, यहाँ तक कि बच्चों को भी रियायत नहीं मिलती। गर्भवती स्त्रियों, बीमारों आदि को बस रियायत है, उनकी दुआ खुदा कुबूल नहीं करेगा क्योंकि वे गर्भवती हैं या बीमार हैं और खुदा तो जनाब सिर्फ़ ऐबल-बॉडीड (able bodied) का है। इस पर भी हैरानी यह है कि यह हैवानियत की श्रेणी में नहीं आता, महीना भर जबरन उपवास जन्नत का मार्ग प्रशस्त करता है, पुराने गुनाह माफ़ कराता है, यूँ समझ लो कि जन्नत जाने के लोन की सालाना किश्त है!! 🙂
खैर उसको छोड़ दीजिए, बॉक्सिंग और कुश्ती की बात करते हैं। दरअसल हमारे यहाँ कुश्ती सभ्य रूप से होती है, दांव-पेच लगाए और प्रतिद्वंद्वी को चित्त किया जाता है, यही कुश्ती है, ओलंपिक में भी यही कुश्ती होती है। पर कुछ लोगों ने इसको विकृत कर ब्लड स्पोर्ट बना दिया है, बहुत से लोगों को इसमें मज़ा आता है, अब क्या करें, सभी लोग देव नहीं हो सकते ना, दानव भी होते हैं कुछ। 😉
बहरहाल, हम उन चीज़ों की बात करते हैं जो हैवानियत बिलकुल नहीं दर्शाती, जैसे कि मज़हब की दुहाई देकर झटके की जगह हलाल गोश्त के सेवन पर ही ज़ोर देना, जैसे कि बुरका पहनने को विवश करना!! तपती गर्मी हो, पारा चालीस डिग्री सेल्सियस के पार जा रहा हो और ऐसे में काला बुरका पहन निकलना बड़े सबाब का काम है और इंसान की सभ्यता दिखलाता है। आपके विचारों से सहमत न होने पर दूसरे को गोली मार देना बिलकुल सभ्य है। अपने शरीर पर बम बाँध कर बिल्डिंग में घुस जाना और बम फोड़ के सैकड़ों को जन्नतनशीं बनाना कदाचित् अति सभ्य कार्य है। लगता है इसलिए ही भारत सरकार ने श्री कसाब जी को राष्ट्रीय दामाद बना के रखा हुआ है और उन पर जनता की खून पसीने की कमाई शान के साथ लुटाई जा रही है क्योंकि उन्होंने बहुत बड़े सबाब के कार्य किए हैं और फिर वैसे भी भारतीयों का गुरुमंत्र “अतिथि देवो भवः” है!! :tup:
किसी व्यक्ति विशेष अथवा धर्म मान्यता पर आघात करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। मैं सिर्फ़ यह कहना चाहता हूँ कि कोयला जलाकर बनी बिजली से चलने वाली लोकल ट्रेन में सफ़र कर, चमड़े की बेल्ट लगा, पर्यावरण नाशक प्लास्टिक से बने लैपटॉप को लकड़ी की मेज़ पर रख ब्लॉग पोस्ट लिखना बहुत आसान है कि इंसान कितना बड़ा हैवान है जो लकड़ी आदि के लिए पेड़ जंगलों आदि का नाश करता है!! 😀
महात्मा बुद्ध के विषय में एक कहानी बचपन में पढ़ी थी। एक बालक की माँ बुद्ध से अनुनय करने आयी कि उनका लड़का गुड़ बहुत खाता है तो बुद्ध उसको समझाएँ और बुद्ध ने एक सप्ताह बाद आने को कहा। एक सप्ताह बाद बुद्ध ने समझाया और बालक मान गया। स्त्री ने पूछा कि यह एक सप्ताह पहले भी कह सकते थे तो बुद्ध ने उत्तर दिया कि एक सप्ताह पहले तक वे स्वयं गुड़ अधिक खाते थे, पहले स्वयं छोड़ा तभी किसी अन्य को समझाने के अधिकारी हुए।
तो इससे क्या समझ आता है? एक्शन्स स्पीक फार लाऊडर दैन वर्ड्स, यानि कि खाली पीली बोल वचन से कुछ नहीं होता, नसीहत कोई भी दे सकता है, निंदा कोई भी कर सकता है। 🙂
फोटो साभार Vectorportal, क्रिएटिव कॉमन्स लाइसेन्स (Creative Commons License) के अंतर्गत
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