काफी समय हो गया कुछ लिखे, फ़िल्म की समीक्षा लिखे भी (कोई तीन साल पहले लिखी थी आखिरी समीक्षा, उसके बाद फ़िल्में तो बहुत देखी लेकिन लिखा किसी के विषय में नहीं), तो सोचा की परसों देखी एजेंट विनोद की समीक्षा ही लिख दें। इस फ़िल्म पर तथाकथित ज्ञानी लोगों अर्थात आलोचकों की काफी समीक्षाएँ आ चुकी हैं, परन्तु फ़िल्म देखने से पहले मैंने इन समीक्षाओं को पढ़ना मुनासिब नहीं समझा। प्रायः होता यह है कि इन एक्सपर्ट्स की समीक्षाओं का कोई सिर-पैर नहीं बनाता, बस यूं ही तू कौन मैं खामखा टाइप लिख डालते हैं जो जी में आया या फिर जो किसी ने चढावा देकर लिखवा लिया। तो इसलिए तय किया गया कि पहले फ़िल्म देख आएँ उसके बाद देखेंगे कि क्या और क्यूं लोग गरिया रहे हैं।
तो भई फ़िल्म तो हम देख आए, फ़िल्म हमको तो ठीक भी लगी, अधिक कोई अपेक्षा थी नहीं फ़िल्म से, ना ही नवाब साब से, करीना कपूर से तो अपेक्षा करना ही अपेक्षा का अपमान है मानो!! एक्शन फ़िल्म में बढ़िया है, घणी हाई-फाई क्वालिटी के तमंचे वगैरह भी दिखलाए गए हैं, कुछ एक गोले भी फोड़े गए और एकठो परमाणु बम-फम का भी चक्कर था। और आशिक मिज़ाज़ लोगों के लिए आँख सेंकने का भी भरपूर सामान। यानि कि कुल-मिलाकर हर वर्ग को खुश रखने का प्रयास किया डॉयरेक्टर साहब ने, बस एक समझदार लोगों की टोली ही अड़ी बैठी है कि फ़िल्म वाहियात है!! और इन्हीं लोगों ने शाहरूख की फ़िल्म डॉन २ को तमगे-समगे दिए थे कि वाह क्या हॉलीवुड स्तर की एक्शन फ़िल्म बनाई है, गजब स्टंट हैं, बेहतरीन लोकेशन हैं वगैरह-२!! अब या तो शाहरूख भाईजान ने सेवाद्वार खोल दिए थे इन लोगों के लिए कि ऐसी समीक्षाएँ लिखवाई गई या फिर ये लोग ऐसा मानते हैं कि जिस फ़िल्म में नवाब साब हैं ऊ का मिट्टी पलीत करे ही रही!
अमां ठीक है, चलो हम आपकी बात से इत्तेफ़ाक रख लेते हैं कि हॉलीवुड स्तर की एक्शन फ़िल्म नहीं है, पर भाई बॉलीवुड ने आजतक ऐसी फ़िल्म बनाई ही कहाँ है जो वहाँ की बिग-बजट फ़िल्मों को पानी पिला सके?! एक समीक्षक साहब तो इस बात पर बिदक गए कि बहुत ही लंपट टाइप का जासूस दिखाया है नवाब साब को जो हर बार पकड़े जाते हैं चाहे बाद में अपने किसी करतब के सदके छूट जाएँ। और वहीं दूसरी ओर कहते हैं कि बहुत ज्यादा पर्फ़ेक्ट दिखलाए गए हैं नवाब साब कि न शराब का शौक न लड़कीबाज़ी करी, स्कूल के बच्चे की तरह कमीज़ भी हर समय पैंट में घुसी रही। अमां मियां वो पर्फ़ेक्ट नहीं हैं तो आपको हज़म नहीं और पर्फ़ेक्ट हैं तो आपको जुलाब है, मोहतरम एक साइड डिसाइड कर लो कि किस तरफ़ हो, यूँ अपना फ़जीता खुद ही करवाओगे तो कैसे लोग मानेंगे कि प्रोफेशनल समीक्षक हो!! अमां हर टैम तो जेम्स बाण्ड भी नहीं बच पाता, पकड़ा तो वो भी बहुत बार जाता है और पिटता भी है, लेकिन उस सब के बाद भी जो खड़ा रहे और जीत जाए, हीरो तो फिर वही है। तो अब जब वो जेम्स बाण्ड आपको जम सकता है तो नवाब साब काहे खटक रिये हैं?! उन्होंने क्या आपकी भैंस खोल ली या आपकी ज़मीन अपने नाम करा ली?? ठीक है इयहाँ-वहाँ से आईडिये उड़ाए हैं जैसे बाण्ड फ़िल्म की भांति एक्शन से शुरुआत हुई है और सीन खत्म होने के बाद ओपनिंग टाईटल दिखलाए हैं, जेसन बोर्न की भांति घणे हाई-फाई करतब भी दिखलाए हैं कि जहाँ एक निहत्थे पर चार लोग तमंचे बंदूक ताने खड़े हों वहाँ भी वो उन सबकी बारात निकाल दे, लेकिन मियां अब ऐसी बॉलीवुड फ़िल्में हमको गिना दो जो कहीं न कहीं हॉलीवुड की फ़िल्मों से ली प्रेरणाओं का जमघट न हों? अभी जैसे एकाध महीना पहले ए.बी. के बेबी की फ़िल्म प्लेयर्स आई थी जो कि इटालियन जॉब की ऐसी प्रेरणाओं का जमघट थी कि बस पूछो ही मत। मुझे तो वह फ़िल्म आम जनता के लिए कम और बाकी फ़िल्म बनाने वालों के लिए अधिक लगी कि मानो फ़िल्म बनाने वाला यह बताना चाहता हो कि किस तरह की प्रेरणाएँ नहीं लेनी चाहिए। और उधर, बिग लूज़र सोनम कपूर (भई आखिर 35 किलो वज़न कम कर पतला होना बहुत बड़ी बात होती है, मैं भी इसी कोशिश में हूँ जाने अल्लाह कब मेहरबान होगा) उसमें अपने को चार्लीज़ थेरॉन समझ बैठी और यूज़्युअल से भी निचले स्तर का प्रदर्शन किया। उनको तो यही कह सकते हैं कि देवी जी स्वयं अपनी ही पर्सनैलिटी पर भरोसा रखो, किसी और जैसा बनने का प्रयत्न न करो, मेहनत करोगी तो हो सकता है एक दिन वज़न की तरह खराब प्रदर्शन भी कम हो जाए। 🙂
बहरहाल हम भटक गए, बात हम एजेन्ट विनोद की कर रहे थे। तो हाज़रीन, मुआमला यह है कि जो एक्सपर्ट समीक्षाएँ हमने पढ़ी वो वाकई एक्सपर्ट थी या फिर समीक्षक अपने को एक्सपर्ट दिखलाने का प्रयत्न कर रहा था। फलानी जगह एडिटिंग सही नहीं हुई, फलाने सीन का भरपूर रस न निकाला गया, करीना जासूस होने के बावजूद डरी सहमी रही आदि। तो जिसने फ़िल्म पर ध्यान दिया होगा उसको यह पता होगा कि करीना का किरदार एक आम लड़की का था जिसको जबरन जासूसी के लिए भेजा गया था। उसका किरदार असल में डॉक्टर था जिसको उसने ठीक से निभाया, वो माताहारी का किरदार नहीं था और न ही ब्रूस ली की अम्मा का!! एडिटिंग वेडिटिंग को मारो गोली और सीन के रस की जगह आम का रस पियो (आजकल आने शुरु हो गए हैं तो ताज़ा रस पी सकते हो नहीं तो फ्रूटी, माज़ा, स्लाईस आदि हैं ही, ट्रॉपिकाना 100% वाला भी आता है लेकिन उसको खरीदने के लिए आपकी जेब छोटी रहेगी)। फ़िल्म में कंटीन्यूटी है, ऐसा कहीं नहीं लगा कि कहीं से फ़िल्म कटी और कहीं से चालू हो गई और न ही कहीं गैर-वाजिब सीन हैं तो एडिटिंग के मामले जनता को इससे अधिक जानना भी नहीं होता। कमर्शियल सिनेमा है, किसी कला अकादमी की प्रतियोगिता में आई फ़िल्म नहीं है जिसे आपको अवार्ड सवार्ड देना है!!
ठीक है, अब ऐसा भी नहीं है कि बहुत ही धाकड़ फ़िल्म बनाई है लेकिन मैं यही कहूँगा कि यह फ़िल्म बॉलीवुड की तरफ़ से एक अच्छा प्रयास है। एकाध सीन में तू कौन मैं खामखा टाइप मामला हो गया, कुछ एक अभिनेता हैं जिनको अभिनय का “अ” भी नहीं आया। बाकी टिपिकल बॉलीवुड मेंटल ब्लॉक भी दिखे हैं, न जाने हमारे यहाँ के फ़िल्म बनाने वाले इन सीमाओं से आगे कब बढ़ेंगे। फ़िल्म बनाना कोई गणित का फार्मूला नहीं है कि २ गुणा २ हर बार ४ ही आएगा!! सुधार के लिए काफ़ी स्कोप है, फ़िल्म और अच्छी बन सकती थी लेकिन डॉयरेक्टर आदि के लिए यह भविष्य के लिए सबक रहेगी, आशा है कि वे अपनी गलतियों से सीखेंगे।
कुल मिलाकर, मेरी तरह आप भी, फ़िल्म का मज़ा लेने के लिए अपना दिमाग ऑडी के बाहर ही छोड़कर जाना, फ़िल्म टाइम पास है, मनोरंजक है, तीन घंटे और पैसा वसूल है। यदि आप कलात्मक फ़िल्म देखने के तमन्नाई हैं तो यह आपके लिए नहीं है।
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