पिछले अंक से आगे …..

खाना खा कर हम वापस अपने होटल आ गए। अगली सुबह से सभी को पर्यटक की भूमिका निभानी थी इसलिए कॉमन टूरिस्टों की भांति विलायती टोपियाँ (Hat) इत्यादि ले ली गई थीं। हमारे विला की साफ़ सफ़ाई की ज़िम्मेदारी जिस बाई की थी उसने बताया था कि उसका भाई टैक्सी चलाता है और उसका फोन नंबर ले लिया गया कि सारा दिन उसी की गाड़ी रखी जाएगी घूमने फिरने के लिए।

आदतानुसार सुबह छह-सात बजे मेरी नींद खुल गई, कमरे से बाहर आए तो देखा शेवानी परिवार पहले से ही उठा बैठा है, मनीष बाबू पूल साईड डाईनिंग टेबल पर चाय का लुत्फ़ उठा रहे थे। और दास परिवार? वे लोग घोड़े (अथवा कुछ और) बेच सो रहे थे, जब तक वे उठ बाहर आए बाकी लोग तैयार हो चुके थे। जब तक हमारी टैक्सी आ गई बाकी के लेट लतीफ़ लोग भी तैयार हो चुके थे। 😉 विनायक ने अच्छी खासी रिसर्च करी थी, मुझे इस बात का संतोष था कि इस बार एजेन्डा बनाने आदि की ज़िम्मेदारी मुझ पर नहीं थी और मैं फॉर ए चेन्ज किसी टूरिस्ट की भांति भ्रमण का आनंद ले रहा था। 😀

हमारा पहला पड़ाव था एक हैण्डीक्राफ़्ट की दुकान। कमबख्त ड्राईवर ने अपनी कमीशन की दुकानदारी चालू कर दी थी। वहाँ हमने सामान आदि देख लिया और फिर ड्राईवर को हड़का दिया कि मियां तमीज़ में रहो ये कमीशन के चक्कर में हमको इधर-उधर ले जाने की भूल न करना वरना तुमको चवन्नी भी न मिलेगी। 😡

उसके बाद हमारा अगला पड़ाव था पुरा दालेम सुकालुविह (Pura Dalem Sukaluwih) नामक मंदिर, काफ़ी शानदार टाइप बना हुआ था।


( पुरा दालेम सुकालुविह – Pura Dalem Sukaluwih )

इस मंदिर का रिवाज़ था कि लुंगी पहन कर ही अंदर जा सकते हैं। इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि आपने फुल पैण्ट पहनी हुई है और अंग प्रदर्शन नहीं कर रहे हैं, लुंगी बाँधनी आवश्यक थी। तो जैसे गुरुद्वारों के बाहर रुमाल रखे होते हैं कि जिनके सिर पर पगड़ी नहीं है वे रुमाल बाँध कर ही अंदर जाएँ उसी प्रकार इस मंदिर के बाहर लुंगियाँ रखी हुई थी, अपने कपड़ों के ऊपर ही बाँधो और अंदर जाओ। द्वार पर दीवार में बनी मूर्ति पर भी लुंगी बाँधी हुई थी। 🙂

मंदिर में अंदर नक्काशी आदि अच्छी की हुई थी। अब तो यह पर्यटकों के लिए है लेकिन अपने समय में यह काफ़ी शानदार रहा होगा।

उसके बाद हम पास ही के एक जंगल में गए जिसमें बंदर ही बंदर थे। हम लोगों को तो खैर कोई खास शौक नहीं था लेकिन गैंग के दो सदस्य चार वर्षीय बालक थे।

दोपहर का समय हो रहा था और बंदर भी इतने पर्यटकों से त्रस्त थे, खा-पीकर वे भी नींद लेना चाहते थे।

सोते हुए बंदर बहुत शांत लगते हैं, उनका फोटो लेना भी आसान होता है। इन बंदरों का फोटो लेने के लिए कई पर्यटक जमा हो गए थे। 😉 बहरहाल, बंदरों का जंगल-नुमा पार्क देख हम बाहर आए। अब काफ़ी ज़ोर से भूख लग आई थी, आधा दिन बीत चुका था। ड्राईवर को कहा गया कि किसी अच्छे से लोकल रेस्तरां में ले चले। उसने यहाँ भी अपनी धूर्तता दिखा दी और एक फालतू से ओवर-प्राइस्ड रेस्तरां में ले आया। 😡 भूख से सभी बेहाल थे इसलिए सोचा कि आ गए हैं तो अब जैसा भी है खाना खा लेते हैं।

भोजन कर लेने के बाद थोड़ी जान में जान आई। किसी ने तो टैरेस फार्मिंग (terrace farming) की तर्ज़ पर होती चावल के खेत देखने की इच्छा जतलाई, तो हमारा अगला पड़ाव वह था।

इधर हम जी भर इन चावल के खेतों को निहार रहे थे उधर मनीष बाबू और उनकी मैडम पड़ोस की दुकान से शॉपिंग करने में लगे हुए थे। उनकी मैडम तो पता नहीं क्या देख-खरीद रही थी (अब हम में इतनी समझ नहीं है, काहे दिमाग को अति कष्ट दें) परन्तु मनीष बाबू कुछ सुंदर से फ़्रिज मैग्नेट यादगार के तौर पर खरीद रहे थे। अपन जब चावल के खेत देख कर बोर हो गए तो मनीष बाबू की ओर चले गए और उनकी मोल-भाव की दक्षता से पहली बार परिचय हुआ। दुकानदार ने एक मैग्नेट का भाव तीस हज़ार रूपिया (इंडोनीशियन रूपिया) बतलाया और मनीष बाबू ने आखिरकार पंद्रह हज़ार प्रति मैग्नेट में सौदा निपटाया। यह देख मैंने सोचा कि किसी ज़माने में मैं भी इतना फियर्सली (fiercely) मोल-भाव करता था परन्तु पिछले कई वर्षों से फिक्स्ड प्राईस ब्रांड रिटेल दुकानों में खरीददारी करके इस कला को जंग लग गया है। मोल-भाव करना भी एक कला है, दास परिवार को भी महसूस हुआ कि इस कला में उनका भी हाथ थोड़ा तंग है इसलिए इस यात्रा के दौरान कहीं भी मोल-भाव करना होगा तो मनीष बाबू को आगे कर दिया जाएगा कि जंग लड़ो जवान, जब दुश्मन हथियार डाल दे तो हम आगे आएँगे बाकी मामला निपटाने के लिए! 😀

क्रमशः …..