मेरा कॉमिक्स और उपन्यास आदि पढ़ने का शौक बचपन से रहा है। किस्सा-ए-कॉमिक्स एक अरसा पहले बाँचा था। समय के साथ जीवन में और चीज़ों ने उपलब्ध समय पर कब्ज़ा जमा लिया था और 2004-2005 के बाद कॉमिक्स पढ़ना छूटता गया। इस रूचि ने कुछ वर्ष बाद फिर से रफ़्तार पकड़ने की कोशिश की थी लेकिन गाड़ी पटरी पर नहीं आयी।
2-3 महीनों पहले कीड़ा पुनः कुलबुलाया कि देखें हिंदी कॉमिक्स जो बचपन में पढ़ता था वह अब आती भी हैं कि नहीं। कागज़ पर छपी किताबों से तो बहुत पहले नमस्ते कर ली थी और ई-बुक्स का दामन थाम लिया था। इसलिए पहले सोचा कि किंडल पर ही देखते हैं कि नागराज, सुपर कमांडो ध्रुव, आदि की कॉमिक्स उपलब्ध हैं कि नहीं। कुछ कॉमिक्स किंडल पर दिखाई पड़ी, उन में से कुछ पढ़ी हुई थी और कुछ मेरे लिए नई थी। तुरंत उन कॉमिक्स को खरीद लिया और पढ़ डाला। 😀
लेकिन किंडल पर कॉमिक्स पढ़ने में मज़ा कम आया और ख़ीज अधिक हुई। 🙁 कारण? प्रकाशक ने डिजिटल फाइल्स को ई-बुक में बदल छापने के स्थान पर कागज़ पर छपी कॉमिक्स को मोबाइल फ़ोन अथवा कैमरे से हर पृष्ठ के फोटो खींच कर उन्हें ई-बुक में तब्दील कर दिया था और उनको किंडल स्टोर पर विक्रय के लिए उपलब्ध करा दिया था। 1-2 कॉमिक्स में तो हाथ अथवा उँगलियाँ भी नज़र आ रही थी उस व्यक्ति की जिसने कॉमिक्स को पकड़ा हुआ था। मतलब वही टिपिकल भारतीय दुकानदार वाली बीमारी – सामान चवन्नी छाप रखना है लेकिन दाम 10 रूपए चाहिए।
बहरहाल, किंडल पर तो कॉमिक्स पढ़ने का अपना पोपट हो गया। तो सोचा कि चलो ओल्ड स्कूल हो जाएँ और कागज़ पर छपी कॉमिक्स देखें। 😉 राज कॉमिक्स के विषय में देखना शुरू किया तो अलग-२ और कुछ जाने पहचाने नाम दिखाई दिए जिसकी कोई सेंस मुझे बनती नज़र नहीं आई – “राज कॉमिक्स बाय संजय गुप्ता“, “राज कॉमिक्स बाय मनोज गुप्ता” और “राज कॉमिक्स बाय मनीष गुप्ता“। कुछ समय के लिए तो मैं असमंजस में पड़ गया कि यह क्या हो रहा है। कॉमिक्स की इस दुनिया से मैं कोई 12-13 वर्ष से दूर था इसलिए एक बार तो समझ नहीं आया कि यह क्या हो रहा है। फिर थोड़ा इधर-उधर पढ़ा तो पता चला कि सन् 2020 के आखिर में राज कॉमिक्स (और राजा पॉकेट बुक्स) के संस्थापक श्री राजकुमार गुप्ता का निधन हो गया और उनके तीनों पुत्रों ने प्रकाशन का विभाजन कर राज कॉमिक्स की अपनी-२ दुकानें खोल ली थी। साथ ही यह भी पता चला कि पिछले कुछ वर्षों में नई कॉमिक्स बहुत कम ही आयी हैं और राज कॉमिक्स का गुज़ारा रीप्रिंट्स और डाइजेस्ट (एक किरदार की 2-3 कॉमिक्स एक ही पुस्तक में जोड़ के छाप देना) से ही चल रहा है। अब अलग हो जाने के बाद काम में थोड़ी गति आई है और पुराने रुके हुए प्रोजेक्ट्स में नई जान फूंकी गई है।
ऐसे ही पता चला कि कॉमिक्स के दाम अब बढ़ गए हैं – 32 पेज की कॉमिक्स जो कभी ₹10 तक में आती थी वह अब ₹100-₹200 की हो गयी है। साथ ही राज कॉमिक्स में अब साइज़ भी बदल गए हैं – संजय गुप्ता वाला प्रकाशन बड़े साइज़ में कॉमिक्स निकाल रहा है जिस साइज़ में अमूमन मार्वल (Marvel) और डीसी (DC) के कॉमिक्स आते हैं। साथ ही इनका दावा है बेहतरीन क्वालिटी का और इसलिए इनके दाम सबसे अधिक हैं। मनोज गुप्ता वाले प्रकाशन और मनीष गुप्ता वाले प्रकाशन का साइज़ लगभग एक सामान है लेकिन पुराने राज कॉमिक्स के साइज़ से बड़ा है और संजय गुप्ता के कॉमिक्स साइज़ से छोटा है। मनोज गुप्ता वाले प्रकाशन के दाम संजय गुप्ता प्रकाशन से कुछ कम हैं लेकिन वे न क्वालिटी का दावा करते हैं और न ही कम दाम होने का। उनकी छापी हुई कॉमिक्स लेकर बस यह समझ आया कि उनसे क्वालिटी और प्रोफेशनलिज्म की आशा रखना बेकार है। मनीष गुप्ता प्रकाशन सस्ते दाम में बढ़िया क्वालिटी का दावा करते नहीं थकते – उनके दाम सबसे कम हैं और कागज़ और प्रिंटिंग की क्वालिटी लगभग संजय गुप्ता प्रकाशन जैसी है लेकिन फिनिशिंग के मामले में अभी थोड़े कच्चे हैं और उनकी घोषित कॉमिक्स छप कर कब उपलब्ध होगी यह तो वे स्वयं नहीं जानते। 😉
एक अन्य बात यह पता चली कि राज कॉमिक्स ने डाइजेस्ट के साथ-२ संग्राहक संस्करण निकालने भी शुरू कर दिए थे कुछ वर्ष पहले और विभाजन के बाद से संजय गुप्ता और मनोज गुप्ता दोनों ही ने पुराने रीप्रिंट्स के कई संग्राहक संस्करण निकाले हैं।
आमतौर पर (अमेरिका में) कॉमिक्स संस्कृति काफ़ी सजीव है, काफ़ी पुरानी है। पुरानी और दुर्लभ कॉमिक्स कलाकृतियों की भांति ऊँचे दामों पर बिकती हैं। प्रकाशकों द्वारा कॉमिक्सों के संग्राहक संस्करण निकाले जाते हैं जिनकी क्वालिटी रेगुलर संस्करण से बेहतर होती है और दाम अधिक होता है। अधिकतर संग्राहक संस्करण में एक से अधिक कॉमिक्स होती है जो कि एक ही कहानी की कड़ियाँ होती हैं। ऐसे संस्करणों को ओम्नीबस (Omnibus) भी कहा जाता है। पर राज कॉमिक्स चलाने वालों को यही समझ आया कि पेपरबैक कॉमिक्स पर गत्ते की जिल्द चढ़ा कर उसको संग्राहक संस्करण का नाम दिया जा सकता है और दाम दोगुने किए जा सकते हैं।
जब तक राज कॉमिक्स का विभाजन नहीं हुआ था तब तक संग्राहक संस्करण सीमित ही आते थे और उनके दाम इतने औने-पौने नहीं होते थे। जब से विभाजन हुआ है तब से संजय गुप्ता और मनोज गुप्ता दोनों ही ने पुरानी कई कॉमिक्स के संग्राहक संस्करण निकाले हैं जो कि अधिकतर 2-3 या अधिक कड़ियों वाली कॉमिक्स के संयुक्त संस्करण हैं और इनको स्पेशल कलेक्टर्स एडिशन (Special Collector’s Edition) के नाम से निकाल कर दुधारु गाय की तरह दुहा गया है।
संजय गुप्ता प्रकाशन ने तो फिर भी कई संग्राहक संस्करणों पर मेहनत की है, उनको बेहतर बनाया है। साथ ही फिनिश्ड प्रोडक्ट के रूप में उनका माल काफी हद तक उच्च दर्जे का रहता है।
लेकिन अभी तक का अनुभव यही कहता है कि मनोज गुप्ता प्रकाशन की फिलॉसोफी यही है कि पेपरबैक संस्करणों को गत्ता लगा कर जिल्द चढ़ा दो, संलग्न किसी एक कॉमिक्स के कवर को संयुक्त संस्करण के कवर के रूप में प्रयोग कर लो और दाम बढ़ा कर संग्राहक संस्करण कह कर लोगों को चिपका दो। मनोज गुप्ता प्रकाशन ने तो संग्राहक संस्करणों की मानो लाइन लगा दी है और धड़ा-धड़ कई पुरानी कहानियों को रीप्रिंट कर सिर्फ़ संग्राहक संस्करण के रूप में निकाला है।
जब मैंने उपलब्ध कॉमिक्स रीप्रिंट्स देखने शुरु किए तो मुझे ये संयुक्त संस्करण अधिक लुभावने लगे – इसका कारण था कि छोटी 30-40 पेज की कहानियों में अब रुचि नहीं रही और एक ही कहानी यदि कई सारी कॉमिक्स में विभाजित हो तो रख रखाव तो एक सिरदर्दी बन ही जाता है, पढ़ने में भी मज़ा नहीं आता।
इसी लिए पिछले 2-3 महीनों में रुचिकर दिखने वाली कहानियों के संयुक्त संस्करण लिए हैं और पढ़े हैं। इनमे से एकाध कहानियाँ पहले पढ़ी हुई हैं और मात्र इसलिए ली कि कहानियाँ काफी अच्छी थी और नास्टैल्जिया के चलते उनको ले लिया गया। परन्तु उन एकाध कहानियों को छोड़ बाकी सब मेरे लिए नई हैं क्योंकि यह सब मेरे कॉमिक्स जगत से दूर होने के बाद प्रकाशित हुई थी।
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