पिछली किश्त में जब इंटरवल के बाद की कहानी बाँची तो बताया कि कैसे कॉमिक्स पढ़ना पुनः आरम्भ हुआ और क्या-२ हैरतअंगेज़ नई बातें पता चली। उस समय तक कुछेक ही कॉमिक्स ली गई थी, इंटरवल ख़त्म हुए 3-4 महीने ही हुए थे।
बहरहाल पिछली किश्त से अब तक कोई एक वर्ष बीत गया है और इस दौरान कॉमिक्स के किस्से ने रफ़्तार पकड़ी है। पढ़ी हुई कॉमिक्स के अतिरिक्त पहले न पढ़ी हुई कॉमिक्स काफी मात्रा में ली गई हैं।
कुछ नए भारतीय प्रकाशनों और उनके द्वारा निकाली जा रही कॉमिक्स पर भी ध्यान गया। कैंपफायर ग्राफ़िक नॉवेल्स ने कई ऐतिहासिक और पौराणिक किरदारों और घटनाओं पर ग्राफ़िक नॉवेल प्रकाशित किए हैं जिनकी क्वालिटी काफ़ी अच्छी है। इसी तरह होलीकाऊ, याली ड्रीम्स, स्वयंभू, चीज़ बर्गर आदि अन्य प्रकाशन उभर कर आ रहे हैं और नियमित अपनी कॉमिक्स निकाल कर अपने किरदार जमा रहे हैं।
ऐसे ही कथामृत नामक एक प्रकाशन से “भगवान परशुराम” नाम का ग्राफ़िक नॉवेल पिछले वर्ष प्रकाशित हुआ जो कि एक प्रॉपर ग्राफ़िक नॉवेल है – उसमे कहानी को चित्रों के माध्यम से ही बताया गया है और संवाद आदि काफ़ी कम हैं। इसलिए मैंने इस को और कैंपफायर के कुछ अन्य ग्राफ़िक नॉवेल्स को ले लिया।
पिछले पोस्ट में मैंने मनीष गुप्ता वाले राज कॉमिक्स प्रकाशन का भी ज़िक्र किया था कि उनकी क्वालिटी बढ़िया है लेकिन फिनिशिंग उतनी बढ़िया नहीं है। पिछले साल में उन्होंने अपनी गुणवत्ता तो बढ़ाई ही है और साथ ही फिनिशिंग में भी जबरदस्त प्रोग्रेस की है। आज के समय में उनकी गुणवत्ता भारतीय कॉमिक्स प्रकाशकों में एक अलग ही स्तर पर है जिसकी बराबरी करना आसान नहीं।
लेकिन इसी के साथ मनीष गुप्ता वाले राज कॉमिक्स की एक सबसे बड़ी खामी है इनकी लेट लतीफ़ी। पिछले डेढ़ साल में इन्होने शायद ही कोई कॉमिक्स घोषित समय पर निकाली होगी। कई कॉमिक्स तो महीनों की देरी से निकाली। पिछले वर्ष जुलाई में इन्होने अमर प्रेम श्रृंखला का दो भाग में संयुक्त संस्करण निकालने की घोषणा की थी। मैंने यह कहानी नहीं पढ़ी थी और मुझे रुचिकर भी लगी तो अलग-२ एकल इशू लेने की जगह मैंने सोचा कि संयुक्त संस्करण ही ले लूँगा। वैसे मैं प्री-आर्डर की प्रथा के ख़िलाफ़ हूँ लेकिन सोचा कि चलो 2 माह कह रहे हैं, लेट होते-२ भी दिसंबर तक तो आ ही जाएगा। बस यही सोच मैंने पूरे दाम (डिस्काउंट घटा कर) दे कर इसके प्रीमियम एडिशन को बुक कर दिया जिसमे स्लिपकेस भी साथ आना था।
इस बार लगता है कि मनीष गुप्ता वाला राज कॉमिक्स लेट लतीफ़ी के भी नए आयाम तय करने का सोचे बैठे थे। तारीख पर तारीख वे आगे बढ़ाते गए, दूसरी कॉमिक्स निकालते गए और अमर प्रेम को अमर करते गए। आख़िरकार जब इस जुलाई में एक वर्ष हो गया तो मुझे लगा कि पता नहीं अब इनकी ओर से यह कॉमिक्स आएगी भी या नहीं, इसलिए मैंने जिस वितरक के पास अपनी प्रति बुक करी थी उनसे अपनी बुकिंग कैंसिल करवा दी और संजय गुप्ता वाले राज कॉमिक्स प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस कहानी के एकल इशू ले लिए।
नए भारतीय प्रकाशनों में होलीकाऊ और चीज़ बर्गर के कॉमिक्स मुझे रुचिकर लगे।
होलीकाऊ अंग्रेज़ी में एकल इशू निकालता है और फिर कुछ समय बाद एक ही किरदार के सभी या तब तक प्रकाशित इशू को जोड़ कर हिंदी में संयुक्त संस्करण निकाल देता है। इन्होने अघोरी नामक किरदार का संयुक्त संस्करण निकाला जिसकी काफ़ी लोगों ने तारीफ़ करी तो मैंने वह और इनकी रावणायन का हिंदी संस्करण ले लिया। अभी कुछ समय पहले होलीकाऊ के संचालक और आर्टिस्ट श्री विवेक गोयल ने एक कॉमिक्स ग्रुप पर अपने आने वाले दो संयुक्त संस्करणों के प्रचार के लिए पोस्ट किया था। उस पर मैंने उनसे बोला कि लेने का तो मेरा मन है पर क्या वे हस्ताक्षरित प्रतियाँ भेज सकेंगे। तो उनका तुरंत उत्तर आया कि होलीकाऊ की वेबसाइट पर मैं खरीद लूँ और आर्डर नंबर उनको बता दूँ तो वे मेरी प्रतियाँ हस्ताक्षर कर के भेज देंगे। और कुछ ही दिन में “कॉस्टर” और “द लास्ट असुरन” के हस्ताक्षरित संयुक्त संस्करण मेरे पास पहुँच गए।
चीज़ बर्गर ने फिलहाल एक ही किरदार पर कॉमिक्स निकाली है – प्रोफेसर अश्वत्थामा। यदि आप सोच रहे हैं कि यह अश्वत्थामा महाभारत काल के गुरु द्रोण का पुत्र तो नहीं तो आप बिलकुल ठीक सोच रहे हैं। द्रोणाचार्य ने अपने पुत्र अश्वत्थामा को अमरत्व दिलवाया था। चीज़ बर्गर ने उसी किरदार को आधुनिक समय में दिखलाया है कि सदियों से अश्वत्थामा भटक रहा है और बुराई से लड़ते हुए अपने कभी न समाप्त होने वाले जीवन को जी रहा है। मुझे यह बहुत ही शानदार आईडिया लगा, सुनने में आया है कि अभी तक आई दोनों कॉमिक्स में चित्रकला और कहानी अच्छी है। यह मैंने अभी नहीं पढ़ी है क्योंकि अब पतली-२ कॉमिक्स पढ़ने का मन नहीं करता। इसलिए इसकी कुछ और कॉमिक्स आ जाएँ और उनका संयुक्त संस्करण आ जाए तब इसको अवश्य पढ़ा जाएगा।
जब कॉमिक्स का कीड़ा इस बार काटा तो थोड़ा कायदे से काटा। राज कॉमिक्स की पुरानी कॉमिक्स तो ले ली – कुछ जिनको पहले नहीं पढ़ा था और कुछ जिनको पहले पढ़ा हुआ है और काफ़ी पसंद भी किया था। लेकिन इतनी रुचिकर कहानियाँ नहीं हैं जो वर्षों की पिपासा को शांत कर सके। नई कॉमिक्स आने में समय लगता है – एक 30-40 पेज की कॉमिक्स 20-25 मिनट में पढ़ कर समाप्त की जा सकती है लेकिन उसको बनाने में कई महीनों का समय लगता है वह भी तब जब उसकी स्क्रिप्ट तैयार हो।
तो इसलिए सोचा कि अब थोड़ा विदेशी कॉमिक्स की ओर भी रुख किया जाए। पहले जब स्कूल-कॉलेज के ज़माने में कॉमिक्स पढता था तो उस समय इतने पैसे नहीं होते थे कि मार्वल अथवा डीसी आदि की कॉमिक्स ली जा सके। अब लेने का साधन है और कॉमिक्स की ओर पुनः रुझान हुआ है तो सोचा वह भी पढ़ी जाएँ।
इसी सब के चलते मार्वल और डीसी की पसंदीदा कॉमिक्स की एक सूची बनायी। थोड़ी जाँच-पड़ताल आदि करी, ज्ञानी लोगों से ज्ञान लिया गया कि जो सूची बनाई है उसमे किसका तार किससे जुड़ता है ताकि कहानी समझने में दिक्कत न आए। और मैंने इसकी शुरुआत करी ग्रीन लैंटर्न से। यह किरदार मुझे बचपन से ही बहुत पसंद है – साइंस फिक्शन होने के साथ ही इसके कारनामे अंतरिक्ष में होते हैं इसलिए भी बचपन से इसकी कहानियों के प्रति खासा आकर्षण रहा है। इसकी कहानी 50 वर्ष से भी अधिक समय से आ रही है और समय के साथ-२ ग्रीन लैंटर्न के रूप में कई किरदार आए हैं परन्तु मेरा पसंदीदा किरदार हमेशा हैल जॉर्डन ही रहा है। 1990 के दशक में डीसी ने ग्रीन लैंटर्न के अन्य किरदारों को आगे लाने के लिए इसको एक तरह से मार दिया था और इसकी कहानियाँ छापनी बंद कर दी थी। फिर 2004 के आस पास जेफ जोन्स हैल जॉर्डन को वापस लाए और अगले कुछ सालों तक इस पर एक शानदार कहानी लिखी। बस तुरत फुरत जेफ जोन्स द्वारा लिखी गई ग्रीन लैंटर्न की कहानी की ओम्नीबस के प्रथम दो भाग ले लिए गए।
इन ओम्नीबस को देख कर लगा कि भारतीय प्रकाशक अभी कहानी के साथ-२ किताब बनाने की गुणवत्ता में भी कोसों दूर हैं। राज कॉमिक्स वाले मनीष गुप्ता और होलीकाऊ की किताब की बाइंडिंग और गुणवत्ता काफ़ी अच्छी है लेकिन अभी मार्वल और डीसी के स्तर पर नहीं है।
एक बात तो मुझे यह समझ नहीं आती कि राज कॉमिक्स वाले संजय गुप्ता और मनीष गुप्ता दोनों ही पन्ने की मोटाई (GSM) को लेकर होड़ में हैं – अरे भई किताब पढ़नी है, उसको सीने से लगा के बुलेटप्रूफ़ कवच नहीं बनाना है। अच्छा ग्लॉसी कागज़ का इस्तेमाल करो जिस पर रंग भी बढ़िया उभर कर आएँ और जो अधिक मोटा भी न हो। कागज़ पतला रहेगा तो मोटे संयुक्त संस्करण बनाने में भी आसानी रहेगी, उनकी बाइंडिंग नहीं खुलेगी। यह बात नए भारतीय प्रकाशकों को समझ आती है और वे लोग मोटे कागज़ की होड़ में नहीं हैं।
बहरहाल अब कागज़ पर छपी हुई किताबों को लेने से पुनः वही समस्या आ गई जो 11 वर्ष पूर्व आई थी – रख रखाव की समस्या। वही समस्या जिसके चलते मैं पूर्णतया किण्डल पर शिफ्ट हुआ था। इसी के चलते सोचा कि इन सब कॉमिक्स को तरीके से रखना होगा अन्यथा इनके चित्रों के रंग ख़राब हो सकते हैं और फिर उनको देख मेरा रंग भी ख़राब हो जाएगा। इसलिए बड़े साइज़ के ज़िप लॉक बैग मंगवाए गए ताकि इन सभी कॉमिक्स को उनमे सुरक्षित किया जा सके। झंझट है लेकिन अब झंझट पाल लिया है तो निभाना तो पड़ेगा।
फिर एक अन्य समस्या है कि एक तो यह मार्वल डीसी आदि के ओम्नीबस आसानी से मिलते नहीं, मिलते हैं तो बहुत से ओम्नीबस के दाम काफ़ी ऊँचे होते हैं। साथ ही यह ओम्नीबस काफ़ी मोटे होते हैं, अमूमन 1000-1500 पेज के, तो इनको हाथ में उठा के पढ़ना बहुत कठिन है। मेरे पास किताबें रखने की जगह भी बहुत सीमित है।
किण्डल पर राज कॉमिक्स के साथ पिछले वर्ष प्रयोग करके देखा था जिसने मज़ा किरकिरा कर दिया था। सोचा इस बार फिर से आज़मा के देखा जाए, मार्वल डीसी अदि प्रोफेशनल हैं ऐसे घटिया काम नहीं करेंगे। तो इनकी कुछ किताबों के फ्री सैंपल किण्डल पर डाउनलोड करके देखे तो आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। प्रत्येक कॉमिक्स का किण्डल संस्करण पूर्णतया कायदे से बना हुआ दिखा, सब चित्र और संवाद एकदम क्रिस्प और क्लियर। साथ ही एक सुविधा यह भी कि किसी भी पैनल को दो बार थपथपाएँ तो वह ज़ूम हो जाता है और फिर जब आगे पढ़ने के लिए स्वाइप किया जाता है तो वह ज़ूम ही रहता है और दुसरे पैनल पर अपने आप चला जाता है। यदि आपके पास स्क्रीन बड़ी है तो अधिकतर पेज बिना ज़ूम किए भी पढ़े जा सकते हैं। कहीं से ऐसा नहीं लगता कि कागज़ पर छपी कॉमिक्स को स्कैन करके बनाया गया है या फिर मोबाईल से उसके फोटो खींच कर बनाया गया है। तरीके से डिजिटल फाइल्स से ही किण्डल संस्करण बनाया गया है और ऐसा ही होना भी चाहिए।
प्रिंट संस्करण में एक समस्या यह भी है कि जो कॉमिक्स आउट ऑफ़ स्टॉक हो गई हैं उनके दाम विक्रेता एकाएक ही बढ़ा कर औने पौने कर देते हैं। तो समय के साथ पुरानी होती किताब का दाम कम होने के स्थान पर बढ़ जाता है। कई ओम्नीबस के मामलों में किण्डल पर दाम प्रिंट संस्करण के मुकाबले एक तिहाई देखे हैं। यह बात वाकई गौर करने पर मजबूर कर देती है कि प्रिंट संस्करण लें कि न लें।
एक अन्य बात यह कि प्रिंट संस्करण आउट ऑफ़ स्टॉक हो सकता है लेकिन किण्डल वाला संस्करण नहीं।
इस बीते सप्ताहांत पर मार्वल की 3 कॉमिक्स किण्डल पर खरीदी, दो वुल्वरीन की और एक अवेंजर्स की। इनमे वुल्वरीन की एक कॉमिक्स आउट ऑफ़ प्रिंट और आउट ऑफ स्टॉक है – भारतीय ऐमेज़ॉन और अन्य विक्रेताओं पर उपलब्ध नहीं है। लेकिन किण्डल पर उपलब्ध है, जब मन आए खरीद सकते हैं।
अब जब किण्डल वाला मामला साफ़ हो गया तो सोचा कि जिस भी कॉमिक्स का तरीके से बना हुआ किण्डल संस्करण मिल जाएगा तो वही लिया जाएगा। रंगीन कॉमिक्स कागज़ पर छपी बहुत शानदार लगती हैं लेकिन रख रखाव की समस्या एक बहुत बड़ी समस्या है इसलिए किण्डल पर वापसी करनी ही बेहतर है।
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