प्रोडक्ट हो या सर्विस – कुछ भी बेचने के कई तरीके, कई नुस्खे होते हैं जो कि इंसान सदियों से अपनाता आ रहा है। लगभग सभी तरीके इमोशन (भावनाओं) पर बिक्री का खेल खेलते हैं – चाहे वह प्रेम हो, लालच हो या फिर डर हो। “डर” के दम पर काफ़ी बिक्री होती है, इसके दम पर काफ़ी काम हो जाते हैं।
दिक्कत तब शुरू होती है जब यह डर “समस्या दिखाने” की बजाय “समस्या गढ़ने” लगता है। यानी आपको कोई असली जोखिम समझाकर समाधान देना नहीं है; बस सामने वाले को यह भरोसा दिला देना है कि बाकी सब ख़तरनाक है और आप अगर हमारे साथ नहीं आए तो… (समझ लीजिए यहाँ नाटकीय संगीत बज रहा है) आपके साथ कुछ बुरा हो जाएगा!!
लेकिन डर से जीना थोड़े छोड़ देगा कोई। अब कोई आपको बोले कि अधिक पानी पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है तो क्या आप पानी पीना छोड़ देंगे? कोई आपको बताए कि ऑक्सीजन ही आपको बूढ़ा बनाती है और आपके शरीर में जंग लगाती है तो क्या आप सांस लेना छोड़ देंगे? नहीं। क्योंकि यहाँ हम अपना दिमाग लगाएंगे। लेकिन इसी तरह बाकी चीज़ों में दिमाग नहीं लगाते और डर की दुकान के ग्राहक बन जाते हैं।
डर का मार्केटिंग वाला फॉर्मूला सिंपल है:
- पहले एक आम चीज़ को “ज़हर” या “धीमा जहर” बना दो।
- फिर प्रतियोगी (competition) के सामान को “मिलावट”, “केमिकल”, “टॉक्सिन”, “लो-क्वालिटी” वाला बतलाकर ग्राहक को डराओ।
- और अंत में अपना प्रोडक्ट “सुरक्षित”, “शुद्ध”, “नेचुरल”, “डॉक्टर-रेकोमेंडेड” बताकर बेच दो।
यहाँ मज़ेदार बात यह है कि इस खेल में प्रोडक्ट की मेरिट (merit) अक्सर सेकेंडरी या फ़िर नगण्य हो जाती है। प्रोडक्ट अच्छा भी हो सकता है और वाहियात भी हो सकता है, लेकिन सेल्स पिच का मुख्य हीरो “डर” होता है। आजकल कुछ D2C ब्रांड (खासतौर पर जो सोशल मीडिया पर तेज़ी से उभरे हैं) अपनी खासियत कम बताते हैं और “दूसरे कितने खराब हैं” अधिक बताते हैं।
अब एक शब्द पर रुकिए: “केमिकल-फ्री”। भाई साहब, पानी भी केमिकल है, हवा भी केमिकल है, आपकी चाय भी केमिकल है। किसी भी प्राकृतिक चीज़ की तह में जाएंगे तो केमिकल ही मिलेंगे क्योंकि वह बिल्डिंग ब्लॉक हैं काम्प्लेक्स पदार्थ बनाने के लिए। असल सवाल यह नहीं होना चाहिए कि केमिकल है या नहीं; वरन असल सवाल यह होना चाहिए कि कौन-सा केमिकल है, कितनी मात्रा में है, किस उद्देश्य से है और उससे जोखिम क्या है। लेकिन डर की दुकान में बारीकी किसे चाहिए? वहाँ तो बस एक ही बात बिकती है: “बाकी सब केमिकल है, हमारा सब नेचुरल है।”
यहीं पर “नेचुरल” यानि “सुरक्षित” वाला भ्रम पैदा किया जाता है। प्रकृति (nature) में भी ज़हर होता है, एलर्जी होती है, रिएक्शन होते हैं। और “सिंथेटिक” का मतलब यह नहीं कि वह अपने आप में खराब ही होगा। पर डर के इश्तिहार में लॉजिक की जगह स्लोगन ले लेते हैं।
पहले यह काम टीवी ऐड में होता था – “आपका दांत…”, “आपकी त्वचा…”, “आपके बाल…” और फिर डर के बाद समाधान। अब यह काम रील्स (reels) में होता है। एक साइड पर किसी अनजान लैब रिपोर्ट का स्क्रीनशॉट, दूसरी साइड पर “देखिए! इसमें ये-ये मिला है!” और अंत में “इसलिए हमारा ही लीजिए।”
समस्या यह है कि ऐसे दावे अक्सर अधूरे होते हैं:
- कौन-सा सैंपल था, कहाँ से लिया गया?
- टेस्ट किस लैब ने किया, किस तरीके से किया?
- तुलना किन मानकों पर हुई?
- और सबसे ज़रूरी: क्या दावा रेगुलेटरी (regulatory) सीमाओं के भीतर है?
इन सवालों का जवाब देना मुश्किल है, इसलिए अक्सर जवाब की जगह इमोशन पर जोर दिया जाता है। और हाँ, “डॉक्टर ने बताया” वाले डॉक्टर का नाम, रजिस्ट्रेशन या कॉन्टेक्स्ट गायब ही रहता है।
डर आपको सोचने नहीं देता, बस खरीदने देता है। डर का सबसे बड़ा नुकसान यही है: वह आपको निर्णय लेने की क्षमता से वंचित कर देता है। आप तुलना नहीं करते, आप सवाल नहीं करते, आप बस “सेफ साइड” लेने के नाम पर खरीद लेते हैं। और मार्केटिंग वाला यही चाहता है – कम प्रश्न, ज्यादा भुगतान।
एक बार को व्यक्ति के दिमाग में यह भी आता है कि यदि सामान अच्छी क्वालिटी का है तो यह हरकतें क्यों? ऐसा सोचना बिलकुल भी गलत नहीं है लेकिन दुकानदारी की अपनी अलग मजबूरियाँ भी होती है। अब मान लीजिए कि आप कोई प्रोडक्ट ₹30 में बनाते हैं, ₹5 पैकेजिंग पर खर्च देते हैं, ₹5 शिपिंग पर और ₹10 मार्केटिंग पर। यानि आपकी प्रति यूनिट ₹50 की लागत आती है। अब आपके मन में थोड़ा लालच भी आता है और आप इसको ₹200 से कम में बेचना नहीं चाहते। लेकिन आपके प्रतियोगी इसको ₹70 में बेच रहे हैं। और उसकी एक वजह यह है कि जहाँ आप उसको छोटे स्तर पर कम मात्रा में ₹30 में बना रहे वहीं आपके प्रतियोगी बड़े स्तर पर बना रहे हैं और उनकी लागत ₹5 यूनिट आ रही है। तो ऐसे में आप अपने माल की कितनी ही गुणवत्ता गिना लें, ₹70 की छोड़ के कोई आपसे ₹200 में वही चीज़ नहीं खरीदेगा।

उदाहरण के लिए गाय के दूध के घी को लेते हैं। वैसे तो कई छोटे D2C ब्रांड घी बेचने में आ गए हैं लेकिन पिछले कुछ समय से सोशल मीडिया पर एक D2C ब्रांड के काफी विज्ञापन देख रहा हूँ जो कि अपने घी की गुणवत्ता बताने की जगह यह कहते हैं कि बाकी सबका मिलावटी है क्योंकि इतने कम दाम पर बनाना संभव ही नहीं। अब वह यह नहीं बताते कि 10 गाय को रखकर उनके दूध से दही जमा कर घी बनाना महंगा पड़ेगा और प्रतियोगी कंपनियाँ हज़ारों-लाखों गाय के दूध से कई टन घी आदि बनाती हैं जिससे उनकी लागत प्रति यूनिट काफ़ी कम हो जाती है। लेकिन ग्राहक को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, उसको मतलब होता है दाम से। इसलिए ग्राहक को डराया जाता है कि बाकी सब का मिलावटी घी है और हमारा आयुर्वेद के सिद्धांतों पर पूरी वैदिक पद्धति से बना घी है।
मैं यह नहीं कह रहा कि D2C ब्रांड खराब हैं। कई छोटे ब्रांड अच्छी चीज़ें भी बना रहे हैं, पारदर्शिता (transparency) भी ला रहे हैं और पुराने खिलाड़ियों को चुनौती भी दे रहे हैं – यह ठीक है। दिक्कत तब है जब प्रतियोगी को “बेहतर प्रोडक्ट” से नहीं, “डर” से हराने की कोशिश की जाती है।
और मज़ा यह है कि यह डर की दुकान अंततः ग्राहक को ही नुकसान पहुँचाती है। क्योंकि आज आप डर के कारण एक ब्रांड से दूसरे ब्रांड पर कूदेंगे, कल कोई तीसरा ब्रांड आपको किसी और डर से डराकर अपनी तरफ खींच लेगा। इस चक्र से बाहर निकलने का तरीका एक ही है: सवाल पूछिए, डेटा देखिए और निर्णय डर से नहीं समझ से कीजिए।

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