उड़नतश्तरी, यानि कि समीर जी, दिल्ली में लैन्ड हुए और 13 नवंबर की शाम नीरज दादा के दौलतखाने पर मिलना तय हुआ। आने वालों में कुछ और लोग भी अपेक्षित थे लेकिन व्यस्तताओं और अन्य कारणों से वे नहीं आ पाए। बहरहाल, दादा ने हुक्म दनदनाया कि मैं समय से थोड़ा पहले पहुँच जाऊँ तो बेहतर रहेगा, कुछ इंतज़ामात जो करने थे वो हो जाएँगे। तो समय से पहले तो मैं पहुँच गया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ, दादा ने इंडिया टीवी दिखा झिलाने की सोची!! 😉 लेकिन अपन भी तैयार होकर निकलते हैं, साथ में एक उपन्यास था जो कि पिछले 4-5 महीनों से मेरे बैग में रह मेरे साथ जगह-२ का सफ़र कर रहा है, अभी आधा ही पढ़ा गया है, तो मैं उसको निकाल पढ़ने लगा और इस तरह समय व्यतीत किया। तत्पश्चात निकले ठेके पर जाने के लिए, आखिर समीर जी आ रहे थे और महफ़िल जमानी थी, तो बिना शराब और कबाब के क्या मज़ा!! लेकिन रास्ते में मेरी मोटरसाइकल नाराज़ हो गई, इग्नीशन चालू न होकर दे। आखिरकार तुक्का लगाया और सेन्ट्रल लॉकिंग वाले रिमोट से चालू हो गई, किसी तरह राम का नाम भजते(दादा ही भज रहे थे, अपन नहीं) ठेके पर पहुँचे, वहाँ समीर जी और दादा के लिए तो व्हिस्की ले ली गई, लेकिन अपने लिए क्या लें यह सोच में पड़ गया क्योंकि ब्रीज़र तो थी नहीं उसके पास। खैर, मैंने सोचा कि खाने के साथ रेड वाइन (red wine) चल जाएगी तो काउंटर पर बैठे व्यक्ति से पूछा कि कौन सी ब्रांड की पोर्ट वाइन (port wine) होगी उनके पास। पहले तो वह मेरी शक्ल देख हैरानी में बैठा रहा कि पता नहीं क्या माँग रहा हूँ उससे, फिर उसके साथ बैठे एक समझदार व्यक्ति ने बताया और वह फिगुएरा की एक बोतल लेकर आया। तत्पश्चात हम लोग दादा के घर आ गए, तो मैंने बोतल देखी और सिर पीट लिया, उसको रेड वाइन (red wine) बोली थी लेकिन उसने व्हाईट वाइन (white wine) दे दी थी। फिर ध्यान आया कि मैंने तो सिर्फ़ “पोर्ट वाइन” देने को कहा था तो उसने पोर्ट वाइन (port wine) दे दी, रेड या व्हाईट तो मैंने बोला ही नहीं था। खैर, अब वापस जाने का मन नहीं था, इसलिए उसी से काम चलाने का निर्णय लिया और उसको ठंडा होने के लिए फ्रीज़र में रख दिया।
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