फायरफॉक्स घस्सी ही रहेगा.....
On 01, Aug 2011 | 11 Comments | In Reviews, Technology, टेक्नॉलोजी, समीक्षाएँ | By amit
डिजिट ब्लॉग की दीवार गिर गई, मरम्मत का काम करना बाकी है इसलिए यह तकनीकी बकवास यहाँ अपने देशज इश्टाइल में
फायरफॉक्स (Firefox) मैं एक अरसे से इस्तेमाल करता आ रहा हूँ, उस समय से जब इसका नाम फायरफॉक्स न होकर फायरबर्ड (Firebird) हुआ करता था और अपने शुरुआती दौर में बीटा संस्करण में था। उपलब्ध ब्राऊज़रों की खेती में इसके अतिरिक्त या तो इंटरनेट एक्सप्लोरर 6 (Internet Explorer 6) था या फिर ऑपरा (Opera)। ऑपरा उन दिनों फोकट में नहीं मिलता था और इतना कोई खास भी नहीं था। और इंटरनेट एक्सप्लोरर 6 (Internet Explorer 6) को मैक्सथन (Maxthon) नामक फ्रंटएण्ड (front end) के साथ प्रयोग किया जाता था। फायरबर्ड धीरे-२ तरक्की करता गया और मोज़िला (Mozilla) ने इसका नाम बदल के फायरफॉक्स कर दिया (क्योंकि फायरबर्ड नामक एक मुक्त स्रोत [ open source ] डाटाबेस सॉफ़्टवेयर है और उन्होनें हल्ला किया था नाम चुराने पर)। ब्राउज़र मुझे भा गया तो धीरे-२ इस पर पूरी तरह शिफ़्ट हो गया और इंटरनेट एक्सप्लोरर 6 को नमस्ते कर दी। जब इंटरनेट एक्सप्लोरर 7 (Internet Explorer 7) आया तो वह भी फालतू ही लगा, मानो सिर्फ़ वर्ज़न बम्प (version bump) है इसलिए उसको नहीं डाला। जब इंटरनेट एक्सप्लोरर 8 ( Internet Explorer 8 ) आया तो कुछ लगा कि हाँ माइक्रोसॉफ़्ट (Microsoft) ने कुछ तरक्की की है इस मामले में और अच्छा अपग्रेड निकाला है, तो उसको इंस्टॉल कर लिया लेकिन मुख्य ब्राउज़र अभी भी फायरफॉक्स ही था। फायरफॉक्स में काम के प्लगिन और टूलबार भी थे जिनकी आदत पड़ गई थी इसलिए यह भी एक वजह थी कि यह मुख्य ब्राउज़र था।
दास्तान-ए-हाल .....
On 16, Jun 2011 | 9 Comments | In Memories, Mindless Rants, यादें, फ़ालतू बड़बड़ | By amit
चार महीने होने को आए हैं, एक अनजान शहर में बोरिया बिस्तर उठा के चले आए, कदाचित् किसी सपने की तलाश में या फिर कुछ पाने की चाहत में। मैं नहीं जानता वह ड्राईविंग फोर्स क्या थी जिसने दिल्ली छोड़ कर आने के विचार को मन में बिठाया, मन को मनाया और फिर माँ को भी मनाया। माँ का मन नहीं था कि मैं जाऊँ, कैसे होता, कभी घर से बाहर रहा नहीं इस तरह, सदैव माँ के आँचल की छाँव रही है, सारा दिन या एक से अधिक दिन भी इधर-उधर भटक आता तो भी यह तसल्ली रहती थी कि शाम को घर पहुँच ही जाऊँगा। सबसे अधिक दिन घर से दूर १० दिन के लिए जब हंगरी गया था तब रहा था।
On 10, May 2011 | 6 Comments | In Some Thoughts, कतरन, कुछ विचार | By amit
एक नई सुबह आएगी, आशा की किरण साथ लाएगी,
देखेंगे रोज़ हम उसकी राह, कौन जाने वो कब आएगी।
On 04, May 2011 | 4 Comments | In कतरन | By amit
दिन सूना-२ सा लगता है मुझे जाने क्यों, मन बावरा भटकता है इधर-उधर न जाने क्यों…..!!
भ्रष्टाचार के अंत के स्वप्न का स्वप्न?
On 11, Apr 2011 | 9 Comments | In Mindless Rants, फ़ालतू बड़बड़ | By amit
मैं न जाने कौन सी दुनिया में रहता हूँ, कदाचित् ऐसा ही कुछ कोई सोचे जो यह पढ़ेगा। अभी एकाध सप्ताह पहले तक मुझे लोकपाल बिल आदि के विषय में नहीं पता था, अच्छी तरह से तो अभी भी नहीं पता है। पर जो थोड़ा बहुत इसके विषय में पढ़ा है उससे यह पता चला है कि इस बिल के पास हो जाने से लोगों द्वारा एक लोकपाल का चुनाव होगा जो कि सरकार के मंत्रियों, सरकारी अफ़सरों आदि पर नज़र रखेगा और भ्रष्ट मंत्रियों तथा अफ़सरों को सज़ा दिलवाना जिसका कार्य होगा। यह लोगों द्वारा चुना गया उनका प्रतिनिधि लोगों के लिए कार्य करेगा, इससे भ्रष्टाचार काबू में आएगा और भ्रष्टाचार रहित समाज का सपना साकार होगा। फेसबुक पर कई लोगों ने अन्ना हज़ारे के परिचय वाला एक वीडियो पोस्ट किया है जिसमें लोकपाल बिल से संबन्धित कुछ ऐसे ही स्वप्न का स्वप्न अन्ना हज़ारे ने दिखाया है। वे इसी को लेकर दिल्ली के जंतर मंतर पर आमरण अनशन पर भी बैठे।
रिटर्न ऑफ़ द जेडाई .....
On 29, Mar 2011 | 4 Comments | In Blogging, Mindless Rants, Satire, ब्लॉगिंग, व्यंग्य, फ़ालतू बड़बड़ | By amit
पिछले कुछ समय से अपनी ब्लॉगिंग की दुकानों पर ताला पड़ा हुआ है, जीतू भाई भी कभी कभार रास्ता भूल जाते हैं अपनी दुकान का। पिछली बार जब भूले तो बताए दिए कि काहे बाकी लोग नहीं भूल रहे हैं। 😈 अब अपन भूले नहीं तो नहीं भूले, भई और भी ग़म हैं ज़माने में, ब्लॉगिंग को ही पकड़-२ कब तक घसीटते रहेंगे, बासीपन आने लगा था, नया मैटीरियल मिल ही नहीं रहा था! बस कुछ ऐसा ही सोच अपने को तसल्ली देने की कोशिश करते, कि जो छूट रहा है उसको छूटने दो, पुराना कुछ छूटता है तो ही नया हासिल होता है। बस ऐसे ही अपने को सांतवना देते और नया कुछ पाने के लालच में रहते। क्या आपको इस बात पर विश्वास आया? नहीं आया? अपने को भी नहीं आया और हुआ यह कि न तो सांतवना ही पास रही और न ही कुछ नया हासिल हुआ, धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का!! 😥
अ न्यू डे
On 23, Sep 2010 | 9 Comments | In Some Thoughts, कुछ विचार | By amit
विकट परिस्थितियों में से भी कुछ अच्छा निकल सकता है, ठीक वैसे ही जैसे कीचड़ में कमल खिलता है और आग में तपकर कुंदन बाहर आता है। एक नया दिन, और रीकिन्डल्ड स्पिरिट (rekindled spirit)।
क्यों खरीदें ऐसी हिन्दी की किताबें.....
On 25, Jun 2010 | 24 Comments | In Mindless Rants, फ़ालतू बड़बड़ | By amit
हिन्दी साहित्य के हिमायती और अंग्रेज़ी को कोसने वाले काफ़ी लोग बहस के लिए कहते हैं कि लोग अपनी भाषा की कद्र नहीं करते, अंग्रेज़ी के उपन्यास आदि 400-500 रूपए में भी ले लेते हैं जबकि हिन्दी उपन्यासों का इतना दाम नहीं देना चाहते। आज रिलायंस टाइम आऊट में जाना हुआ; यह रिलायंस की रिटेल चेन के बुकस्टोर्स का नाम है जहाँ किताबें, संगीत और फिल्मों की सीडी-डीवीडी आदि मिलती हैं। मैं ऐसे ही हिन्दी साहित्य वाले भाग में विचर रहा था कि बाबू देवकीनंदन खत्री के उपन्यास “भूतनाथ” पर नज़र पड़ी। दरिया गंज के इंडिया बुक हाऊस ने यह वाला संस्करण छापा है, लगभग पाँच सौ पन्नों की किताब और कीमत लगभग पाँच सौ रूपए। पाँच सौ रूपए अधिक नहीं हैं लेकिन इस संस्करण के लिए मैं पचास रूपए से अधिक देना नहीं पसंद करूँगा। क्यों? किताब का कलेवर बेकार है, कागज़ कोई बढ़िया नहीं लगा हुआ, छपाई बिलकुल ऐसी है जैसी सड़क की पटरी पर मिलने वाले 20-30 रूपए के उपन्यासों की होती है। तो जब किताब की गुणवत्ता ऐसी है तो क्यों मैं पब्लिक डोमेन में मौजूद कहानी पर छपी किताब के पाँच सौ रूपए दूँ? ऐसा भी नहीं है कि बाबू देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों पर कॉपीराइट है और उसकी रॉयल्टी प्रकाशक को अदा करनी पड़ती हो!! पब्लिक डोमेन में मौजूद अंग्रेज़ी के उपन्यास सौ-सौ रूपए में बिकते हैं और उनका कागज़ और छपाई इससे कई गुणा बेहतर होती है!!
बाघ-चीते बचाने, अर्थ ऑवर मनाने का बेतुकापन.....
On 29, Mar 2010 | 23 Comments | In Mindless Rants, फ़ालतू बड़बड़ | By amit
देश का राष्ट्रीय पशु, बाघ, लगभग विलुप्त होने को है, सिर्फ़ 1411 बाघ बचे हैं देश में। क्या यह आपको जाना पहचाना लग रहा है? यदि हाँ तो वह इसलिए कि मोबाइल सेवा प्रदाता एयरसेल (aircell) ने मुहीम चलाई हुई है सबको इस विषय में अवगत कराने की। भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान कैप्टेन कूल धोनी, जो कि एयरसेल के ब्रैंड एम्बैसेडर हैं, भी टीवी के विज्ञापन में चिंता जतलाते दिख जाते हैं। एक नेक मुहीम है, बाघ की वाकई रक्षा होनी चाहिए, सिर्फ़ इसलिए नहीं कि वह राष्ट्रीय पशु है परन्तु इसलिए कि वह प्रकृति की धरोहरों में से एक है और हम मनुष्यों के कारण विलुप्त होने की कगार पर है!! परन्तु जिस तरह यह अभियान चलाया जा रहा है उससे बाघ बच जाएँगे क्या? एक विज्ञापन में फिल्म अभिनेता कबीर बेदी कहते हैं कि आईये ब्लॉग लिखें चिंता जतलाएँ। मैं ब्लॉगों और सोशल मीडिया की शक्ति को नहीं नकार रहा हूँ लेकिन मैं यह सोच रहा हूँ कि क्या ब्लॉग लिखने से बाघों का कत्ल-ए-आम थम जाएगा? जो शिकारी स्मगलर आदि बाघों का शिकार कर रहे हैं वे ब्लॉग पढ़ते हैं क्या? या उनको कोई फर्क पड़ता है कि ब्लॉगों आदि पर क्या लिखा है?