कलयुग ….. टू हैल एण्ड बैक(अर्थात नर्क से वापसी)
फ़िल्म का शीर्षक तो ज़ोरदार लगा, इसलिए किसी स्टार भूमिका के न होने के बाद भी देख ही ली। है तो लाक्षणिक बॉलीवुड फ़िल्म लेकिन फ़िर भी कथा थोड़ी हट कर लगी। जिन लोगों ने यह नहीं देखी तो उन्हे बता दूँ कि कथा कुछ इस प्रकार है कि हीरो कुनाल खेमू अपनी नई नवेली दुलहन के साथ मधुचंद्र के लिए एक होटल में जाता है जहाँ आशुतोष राणा के कहने पर स्वागत कर्मचारी उन्हे हनीमून सुईट दे देता है जिसमे कैमरे छुपा रखें होते हैं और उनकी सुहागरात की पूरी फ़िल्म उतार ली जाती है। आशुतोष राणा एक दलाल की भूमिका में हैं जोकि एक विदेश में स्थापित देसी अश्लील वेबसाईट के लिए सुहागरात मनाने आए जोड़ों की चुपके से फ़िल्म उतार कर बेचता है। फ़िर वही लोग हीरो और उसकी पत्नी को पुलिस के हाथों पकड़वा देते हैं ताकि उन्हें मुफ़्त की लोकप्रियता मिल सके। अपने हीरो की बीवी आत्महत्या कर लेती है, पर हीरो जेल से जमानत पर छूट जाता है और विदेश में उन लोगों का सर्वनाश करने पहुँच जाता है जिन्होंने उसके जीवन को नर्क बना दिया। जैसा कि अपेक्षित होता है, वो सबकी छुट्टी कर देता है। 😉
परन्तु मैं यहाँ फ़िल्म का पुनरवलोकन नहीं कर रहा। इस दौरान मैं कुछ और ही सोच रहा था, और वह यह कि अश्लील साहित्य का कारोबार कितना बड़ा है और उससे भी बड़ा है अश्लील चलचित्रों(फ़िल्मों) का कारोबार। सिर्फ़ अमेरिका में ही यह कई अरब डॉलर का सालाना कारोबार है, और जगहों की तो पूछिए ही मत। अब बात यह भी है कि सभी लड़के या लड़कियाँ इसमें स्वेच्छा से नहीं शामिल होते हैं, कईयों को मजबूर किया जाता है और बहुत से तो बिके हुए गुलाम होते हैं। फ़िल्म में बताया गया है कि इन्सानी खरीद फ़रोख्त का कारोबार, हथियारों और नशीली दवाओं(ड्रग्स) के कारोबार के बाद, दुनिया में सबसे बड़ा कारोबार है।
कहने को इन्सानों को गुलामों की तरह खरीदने-बेचने का कारोबार बहुत पुराने समय से चला आ रहा है और पिछले सौ-दो सौ सालों में इसपर सभ्य दुनिया में प्रतिबंध लगा दिया गया है, परन्तु यह आज भी होता है। अब विचार करने वाली बात यह है कि इन्सानों की खरीद फ़रोख्त पर इस सभ्य समाज के ठेकेदारों को ऐतराज़ क्यों है? पशु पक्षियों के खरीदने बेचने पर तो किसी को कोई आपत्ति नहीं, तो फ़िर इन्सानी बिक्री का विरोध क्यों, ऐसा पक्षपात काहे के लिए?? अब समझने वाले मेरा गला पकड़े उससे पहले मैं यह कह देना चाहूँगा कि मैं इन्सानी खरीद फ़रोख्त का पक्ष नहीं ले रहा हूँ, मैं तो केवल वह लिख रहा हूँ जैसा कि मेरे ज़ेहन में उस समय आया था। तो अन्य जीवों के साथ ऐसा पक्षपात क्यों होता है? यदि कोई व्यक्ति अपनी गाड़ी इत्यादि के नीचे किसी अन्य व्यक्ति को कुचल देता है तो उसे सज़ा हो जाती है क्योंकि वह एक अपराध है, और वहीं यदि कोई कुत्ता या अन्य पशु किसी गाड़ी के नीचे कुचला जाता है तो कोई बात नहीं, क्योंकि वह कोई अपराध नहीं होता, ऐसा क्यों?
ये प्रश्न केवल मेरे ही दिमाग में नहीं उठे हैं, ये न जाने कितने वर्षों से कितने ही लोगों के ज़ेहन में उठे हैं। एक आध काल्पनिक फ़िल्म इत्यादि भी इस पर बनी है जिसमे दर्शाया गया है कि पशु अपनी सभा स्वयं बनाते हैं और मनुष्यों को उनके दुर्व्यवहार के लिए उन्हे दण्ड देते हैं। परन्तु उसमे फ़िर आगे दिखाया गया है कि मनुष्य उसे अपने लिए खतरा मानते हुए मानवता के नाम पर उन्हे नष्ट कर देते हैं और फ़िल्म इस संदेश के साथ समाप्त हो जाती है कि “हमसे जो टकराएगा, मिट्टी में मिल जाएगा”!! क्यों?? यदि हमें जीने का अधिकार है तो क्या पशुओं को नहीं है? मनुष्य भी तो एक तरह का पशु ही है!! अब मैं यहाँ पर स्पष्ट कर देता हूँ कि इसका शाकाहार और मांसाहार से कोई संबन्ध नहीं है, क्यों कि वह प्राकृतिक है, यदि आप किसी अन्य जीव को मारकर खा रहे हैं तो यह प्रकृति का नियम है, वह कोई गलत कार्य नहीं है, परन्तु प्रकृति का नियम यह नहीं कहता कि मनुष्य किसी पशु को कैद कर के रख ले, उससे गुलामी करवाए!! अब यदि आप यह कहें कि पशुओं आदि के साथ होते ऐसे दुर्व्यवहार को रोकने के लिए ही “एनीमल राईट्स” संगठनों आदि की स्थापना हुई है, तो मैं यह कहना चाहूँगा कि अधिकतर ऐसे संगठन मात्र एक दिखावा ही हैं जो कि केवल अपना उल्लू सीधा करना जानते हैं और ज्यादातर ऐसे संगठनों से कोई न कोई रजनीतिक नेता आदि जुड़ा होता है ताकि संगठन के रूप में एक सदकार्य लोगों में उनकी मटमैली छवि पर कुछ दूधिया उजाला डाल सके जिससे उन्हें वोट मिलना सरल हो जाए। 🙄 अब उदाहरण के तौर पर पशु अधिकार के लिए लड़ने वाली और गांधी परिवार की छोटी बहू मेनका गांधी को ही लीजिए, जिन्हे इस बात की तो खबर नहीं कि सड़कों पर कितने ही कुत्ते-बिल्ली-गाय इत्यादि छुट्टे घूमते हैं और यातायात में बाधा बनने के साथ साथ स्वयं अपनी व जनता की जान के लिए भी खतरा हैं, परन्तु उन्हें इस बात की अधिक तकलीफ़ है कि आमिर खान की आने वाली फ़िल्म “रंग दे बसंती” में निर्देशक ने बिना पूर्व अनुमति के एक घोड़े से क्यों कुछ करतब दिखवा लिए!! (निठल्ला चिन्तन) 🙄 भई उज्जडता की भी कोई हद होती है, यह तो मैं जानता था कि वे बद-ज़ुबान हैं(बिना गाली गलौच के बात करना उनके लिए अस्वभाविक है) लेकिन बद-दिमाग भी हैं यह भी पता चल गया!! अरे भई, घोड़े से करतब ही करवाया है, कोई उसकी जान थोड़े ही ली है, और यदि ऐसी ही आपत्ति है तो फ़िर सभी सर्कसों पर ताला क्यों नहीं लगवा देती? मुम्बई के आस पास और देश भर में जितने भी निजी स्टड फ़ार्म हैं उन्हें काहे नहीं ज़ब्त करवा लेती? पशुओं आदि की बिक्री पर क्यों नहीं प्रतिबंध लगवा देती? 🙄
यदि मान भी लिया जाए कि कुछ पशु अधिकार संस्थाएँ अपना कार्य करती भी हैं तो भी ये कोई क्रांति नहीं ला सकती, क्योंकि ऐसी सच्ची संस्थाएँ बहुत कम हैं। सुधार तभी हो सकता है जब साधारण मनुष्य में चेतना जागे। जन चेतना के बिना तो भारत भी अंग्रेज़ों की गुलामी से आज़ाद नहीं हुआ था!!
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एक और विचार जो मेरे मस्तिष्क में कौंधा वह यह था कि जिस तरह होटल के एक कमरे में किसी ने होटल कर्मचारियों के साथ मिलकर जिस तरह कैमरे लगा दिए थे, ऐसा अभी तक हमने केवल जासूसी फ़िल्मों इत्यादि में देखा है, परन्तु क्या यह आपके और मेरे साथ हो सकता है? बिलकुल हो सकता है, और ऐसा करना कोई खास कठिन भी नहीं है। इसके साथ ही मुझे स्मरण हो आया अंग्रेज़ी के मेरे पसंदीदा उपन्यासकार रॉबर्ट लडलम द्वारा कुछ वर्ष पूर्व लिखा गया उपन्यास “द प्रोमेथियस डिसेप्शन” जिसमें एक ताकतवर टेक्नॉलोजी कंपनी का सनकी मालिक आतंकवाद को खत्म करने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय समझौते का मनसूबा बनाता है जिसके तहत एक उपग्रह अंतरिक्ष में छोड़ा जाता है जोकि पृथ्वी के किसी भी हिस्से की किसी भी सड़क-गली इत्यादि पर नज़र रख सकता है और उसका सजीव प्रसारण उस कंपनी की प्रयोगशाला में करता है जोकि बकायदा दिन के चौबीसों घंटे रिकॉर्ड भी होता है। उस उपग्रह से कोई भी कहीं भी छुप नहीं सकता, वह आपके घरों के अंदर आपको अंतरंग क्षणों में भी देख तथा रिकॉर्ड कर सकता है, बंद द्वारों इत्यादि का उसके लिए कोई महत्व नहीं। उसमें प्रयोग के तौर पर नायक के जीवन की पिछले पंद्रह सालों से रिकॉर्डिंग की जा रही थी, यहाँ तक कि उसकी पत्नी के साथ उसके अंतरंग क्षणों की भी!!
अब बेशक ये काल्पनिक कथा ही सही, परन्तु क्या यह असंभव है? जहाँ तक मैं जानता हूँ आज के विज्ञान के लिए यह काफ़ी हद तक(या पूरी तरह) संभव है और यदि नहीं है तो आने वाले कुछ वर्षों में अवश्य हो जाएगा!! यह सोचकर मन में एक सिहरन सी दौड़ जाती है कि यदि ऐसा हो गया तो क्या होगा? तब आपके जीवन का कोई पल आपका अपना नहीं होगा, सब कुछ सार्वजनिक हो जाएगा, “प्रिवेसी” का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। साथ ही यह विचार भी मन में उठा कि क्या अब हमें यह करना होगा कि कहीं भी होटल में कमरा लें तो पहले उसकी जाँच करें, जेम्स बांड स्टाईल, कि कहीं कोई कैमरा इत्यादि तो नहीं लगा है?
अभी तक ऐसी आशंकाएँ केवल जानी-मानी प्रसिद्ध हस्तियों को ही होती थी, परन्तु समय तेज़ी के साथ बदल रहा है, अब आम आदमी भी इन आशंकाओं से अछूता न रह पाएगा क्योंकि गहराता जा रहा है ….. कलयुग
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