खजुराहो और ओरछा घूमकर आए तकरीबन दो महीने हो गए थे, घुमक्कड़ कीड़ा कुलबुला रहा था। गुड फ़्राईडे वाले सप्ताहांत पर पुनः पहाड़ों में हो आने का कार्यक्रम बना, जगह चुनी गई अल्मोड़ा के थोड़ा आगे उपस्थित बिन्सर। ट्रेन की काठगोदाम तक की टिकटें करवा दी गई, अत्यधिक भीड़ होने के कारण वेटिंग लिस्ट में मिली। यहाँ पंगा हुआ, जाने की टिकट तो सही मिल गई, लेकिन हितेश ने रेलवे में अपने जिस जुगाड़ से टिकट करवाई थी उन सरकारी बाबू ने समझदारी दिखाते हुए सोचा कि रविवार को आठ नहीं सात तारीख है और इसलिए वापसी की उन्होंने सात तारीख की टिकट करवा दी!! अब वो टिकटें हमारे लिए बेकार, आठ तारीख की टिकटें उपलब्ध नहीं थी, इसलिए उनको तो कैन्सल करवाया और यही सोचा गया कि वापसी बस में ही करनी होगी। पर अभी बस कहाँ, कुमाऊँ मण्डल में पूछने पर पता चला कि उनके बिन्सर वाले यात्री निवास में जगह नहीं है, वहाँ मौजूद अन्य रहने के ठिकाने अपने बजट से थोड़ा ऊपर हो जाते और तम्बू आदि लगाने की वहाँ आज्ञा नहीं। दूसरी जगह के रूप में सितलाखेत सही लगा तो उसके बारे में जानकारी ली गई, लेकिन पुनः बात नहीं बनी। एकाध जगह और देखी लेकिन बात नहीं बनी, अपना पोपट होता नज़र आ रहा था, काठगोदाम के आजू-बाजू और जगह तलाशी जा रही थी वर्ना टिकटें कैन्सिल करवा कहीं और निकलना पड़ता। पुनः लान्सडौन वाली स्थिति हो गई थी। तभी नक्शे में मुक्तेश्वर दिखाई दिया और उसके बारे में पता किया, वहाँ के कुमाऊँ मण्डल के यात्री निवास में कठिनाई से एक चार बिस्तरों का फैमिली कक्ष और दो बिस्तरों का डीलक्स कक्ष मिला, कुछ भी हो अपना जुगाड़ तो हो गया।
गुरुवार 5 अप्रैल को रात्रि दस बजकर दस मिनट पर अपनी ट्रेन निज़ामुद्दीन लगनी थी और दस बजकर चालीस मिनट पर चल देनी थी। वेटिंग लिस्ट में होने के कारण अपने को बोगी और सीट नंबर स्टेशन पर ही पता चलने थे, वैसे सीटें तो हमें मिल गईं थी, पीएनाअर नंबर द्वारा चेक करवा लिए थे इंटरनेट पर। सभी को बोल दिया कि साढ़े नौ तक स्टेशन पहुँच जाएँ ताकि बोगी और सीट ढूँढने के लिए पर्याप्त समय हो। लेकिन जैसा हर यात्रा से पहले अपने साथ होता है, इस बार भी फ़ड्डा होना ही था। गुरुवार को सांय मैं रजौरी गार्डन स्थित सिटी स्क्वेयर मॉल पहुँचा, लाईफ़स्टाईल स्टोर में, एक टोपी लेनी थी और एक कमर पर बाँधने वाला पाउच भी लेना था। योगेश को भी टोपी लेनी थी इसलिए वहीं बुला लिया। हमारे पास अधिक समय नहीं था, सिर्फ़ एक घंटा क्योंकि योगेश साहब सात बजे पहुँचे थे। खैर, देखने का कार्यक्रम चालू हुआ, नाईकी की एक टोपी पसंद आई और उसे ले लिया गया, वेस्ट पाउच मैं पहले ही पसंद कर चुका था तो उसे भी ले लिया गया। लेकिन आदत से मजबूर अपने योगेश बाबू कपड़े देखने में लग गए। आठ बज गए और उनका कपड़े देखने का कार्यक्रम बदस्तूर चले जा रहा था, मैंने समय भी बताया लेकिन साहब पूरी निष्ठा से लगे हुए थे। इसी बीच मैंने एक टी-शर्ट अपने लिए पसंद कर ले ली लेकिन उनको कुछ पसंद नहीं आया। आखिरकार जब नौ बजने में दस मिनट रह गए तो उनको लगा कि हम लोग लेट हो गए हैं, बहुत लेट….. भागो!!! आनफानन भुगतान कर चैकाऊट किया गया और हम पार्किंग की ओर लपक लिए। मैंने मोटरसाईकिल दौड़ा दी, पहले योगेश को उनके घर छोड़ा और फिर अपने घर की ओर उड़ लिया। खौफ़नाक बात यह थी कि हम दोनों में से किसी का सामान पैक नहीं था, मेरा तो खैर सभी सामान बाहर निकला पड़ा था, सिर्फ़ बैग में ठूसना भर था, लेकिन योगेश का तो सामान निकला हुआ भी नहीं था। रास्ते में ही अपनी बहन को फोन लगा उन्होंने सामान निकालने को बोला था!!
घर के पास पहुँच मैंने सोचा कि पहले एक ऑटो पकड़ लिया जाए, उस समय मिलना वैसे ही मुश्किल होता है। लेकिन जिस ऑटो वाले से पूछो वो निज़ामुद्दीन रेलवे स्टेशन जाने को तैयार ही नहीं। कठिनाई से एक ऑटो वाला मिला, घर पहुँच सामान बैग में जैसे तैसे डाला, कैमरा चैक किया तो अब वो नाराज़ हो गया, चल के न दे। उसे भी बैग में ऐसे ही ठूस लिया, सोचा बाद में देखेंगे, चलेगा तो ठीक नहीं तो देखी जाएगी, मोबाईल तो है ही!! ऑटो में बैठ योगेश के घर की ओर निकल लिया, ऑटो चालक को बोला कि दौड़ा ले बेशक फालतू पैसे ले ले, लेकिन दौड़ा ले!! योगेश को अपने गली-मोहल्ले से बाहर निकल मुख्य सड़क पर प्रतीक्षा रत पाया, लेकिन तभी ध्यान आया कि कुमाऊँ मण्डल के यात्री निवास में जो अपने कमरे बुक करवाए थे उसकी रसीद तो लाना भूल गया था। वैसे उसके बिना भी काम चल ही जाता लेकिन पंगा काहे लिया जाए!! नौ बजकर चालीस मिनट हो रहे थे, ऑटो को वापस मोड़ा गया, शुक्र की बात यह थी कि मेरा घर योगेश के घर से केवल 9-10 किलोमीटर के ही फासले पर है और वहीं याद आ गया, अधिक दूर जाने पर आता तो समस्या हो जाती। ऑटो वाले को बोला गया कि पैसों की टेन्शन न ले, भगा ले!! वापसी जाते हुए हितेश का योगेश को फोन आया यह पूछने के लिए कि कहाँ हैं। उनसे सिर्फ़ यही कहा कि रास्ते में हैं, कौन से रास्ते पर यह बोलना स्वास्थ्यवर्धक नहीं लग रहा था। 😉 जल्द ही घर पहुँच रसीद कब्ज़े में की गई, माताजी ने सलाह दी कि सोच लूँ कि कुछ और तो नहीं छूटा है क्योंकि दोबारा वापिस आने का समय नहीं होगा। मैंने तुरंत सोचा और निर्णय लिया कि आवश्यक कुछ नहीं छूटा है।
अब हम स्टेशन की ओर बढ़ रहे थे, ऑटो वाला जितना तेज़ चला सकता था चला रहा था। लेकिन योगेश और मैं अब चर्चा कर रहे थे कि भई ट्रेन तो छूटी ही छूटी। सवा दस बज रहे थे और अभी भी फासला काफ़ी था। तो अब हम सोच रहे थे कि बस पकड़ हलद्वानी पहुँचना होगा और वहाँ बाकी साथियों को पकड़ना होगा। लेकिन भला हो ऑटो वाले का, साढ़े दस बजे उसने हमको निज़ामुद्दीन स्टेशन के बाहर तक पहुँचा दिया। तुरंत उसको पैसे दिए गए, जितने तय हुए थे उसके दोगुने आभार सहित दे दिए और हम दोनों अपने बैग कमर पर लाद स्टेशन के अंदर भाग लिए। आशा की किरण थी, ट्रेन नहीं छूटेगी। पाँच मिनट बाद हम सही प्लेटफ़ॉर्म पर अपनी बोगी के सामने मोन्टू और हितेश के रूबरू खड़े थे और हांफ़ रहे थे(योगेश का तो पता नहीं, मैं तो हांफ़ रहा था)!!! मोन्टू और हितेश के पूछने पर मैंने और योगेश ने एक दूसरे पर इल्ज़ाम लगाए, गलती दोनों की थी, लेकिन कुछ भी हो, ट्रेन छूटने से पहले पहुँच गए थे, यही बहुत बड़ी बात थी।
कुछ मिनट बाद ट्रेन चल पड़ी, हम पाँच लोगों को तीन बर्थ मिलीं थी, टिकट-चेकर बाबू ने और सीट देने में असमर्थता जताई। हमारी सीट के सामने वाली सीट पर मौजूद साहब से हमारी सैटिंग हुई, उनके पास दो टिकटें खाली थी क्योंकि उनके दो साथी नहीं आ पाए थे, उनको भुगतान कर वो सीटें हमने ले ली, मामला सैट, सबके पास सोने की जगह थी। मेरी सीट पर एक साहब बैठे थे, परिचय के आदान-प्रदान से पता चला की “द वीक” पत्रिका छापने वाली कंपनी के उत्तरांचल में सर्कुलेशन ऑफ़िसर हैं और दफ़्तर के कार्य से काठगोदाम तक जा रहे हैं, वहाँ से आगे जाने का उनका कार्यक्रम है। थोड़ी देर तक मेरी उनसे बातचीत होती रही, फिर उसके बाद शुभरात्रि कह वह टिकट वाले बाबू के पीछे हो लिए ताकि रात सोने के लिए कोई बर्थ मिल जाए, उन्होंने भी आनन-फ़ानन बिना आरक्षण के ट्रेन पकड़ी थी। हम सभी लोगों ने भी सोने की सोची, सुबह काठगोदाम से एक स्टेशन पहले हल्द्वानी उतरने का कार्यक्रम था क्योंकि दीपक का दोस्त जो चंडीगढ़ से आ रहा था उसे हल्द्वानी उतरने को बोला गया था। तो हम सभी अपनी-२ सीटों पर लंबे हो लिए, लेकिन मार पड़े मच्छरों को, एक मिनट चैन से लेटने नहीं दिया। मोन्टू तो पता नहीं कैसे पड़ा सो रहा था, मैं तो थोड़ी देर बाद उठकर बैठ गया और खिड़की खोल रात की कालिमा को चीरती शीतल चान्दनी और ठंडी हवा और मोबाईल में बजते शिवकुमार शर्मा के मधुर संगीत का आनंद लेने लगा।
अगले भाग में जारी …..
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