काफ़ी दिनों से सोच रहा था कि कुछ समय पहले रिलीज़ हुई पाकिस्तानी फिल्म खुदा के लिए देखकर आऊँ, हर जगह से इसकी तारीफ़ सुनने में आ रही थी कि बहुत अच्छी फिल्म बनाई गई है। और फिर एन्सी ने भी इसकी जबर्दस्त समीक्षा लिख दी तो लगा कि अब तो देख ही लेनी चाहिए। आशीष तो साथ चलने को तैयार न हुआ, उसके खाली दिमाग में हिन्दी फिल्में नहीं घुसतीं, कहता है कि इमोशन्स का ओवरडोज़ हो जाता है। 😀 इधर नए-२ बरबाद हुए मदन का मुझे फोन आया तो मैंने सोचा कि चलो साथ चलने के लिए बंदा तो मिल गया क्योंकि मदन बाबू ठहरे ज़मीन से जुड़े हुए, उनको हिन्दी फिल्में ज़्यादा पसंद हैं, अंग्रेज़ी फिल्में सिर्फ़ मार-धाड़ की ही पसंद हैं क्योंकि उसमें समझने के लिए डॉयलाग नहीं होते!! 😀 तो बस अपन टिकट तो ऑनलाईन ही बुक करा लिए, फिल्म नोएडा देखने जाना पड़ा क्योंकि दिल्ली वाले टैम अपने हिसाब से माफ़िक नहीं थे। लेकिन मार पड़े बेवजह के ट्रैफिक जामों को कि शॉर्टकट लेते-२ भी बीस मिनट की देरी से पहुँचे!! मदन बाबू तो किलस लिए, बोले कि कभी इतनी तेज़ मोटरसाइकल नहीं भगाई उन्होंने जितनी तेज़ मेरा पीछा करते हुए भगाई, रास्ते का तो ध्यान ही कहाँ रहा उनको कि कौन से रास्ते से आए, बस मेरी मोटरसाइकल के पीछे-२ बदस्तूर मिलते ट्रैफिक में अपनी मोटरसाइकल भगाते चले आए!! 😉


इस फिल्म में कुछ टची (touchy) या संवेदनशील (sensitive) मुद्दों के इर्द-गिर्द कहानी बुनी गई है। फिल्म की सैटिंग अमेरिका पर सितंबर 2001 में हुए आतंकवादी हमले के नज़दीक की है, कहानी उससे थोड़ा पहले शुरु होती है और असल में दो भाईयों की है जो कि लाहौर के एक खाते-पीते परिवार से हैं। दोनों ही भाइयों को संगीत का बहुत शौक होता है और लाहौर में उभरते कलाकार होते हैं। कहानी में एक भाई एक इस्लामिक कट्टरपंथी मौलवी साहब के बहकावे में गुमराह हो कर तथाकथित जिहाद की ओर चल पड़ता है और दूसरा इस तथाकथित जिहाद के कारण भड़क उठे अमेरिकी प्रशासन का शिकार होता है। दोनों ही के बीच में फंसा होता है उनका परिवार जो कि खामखा हलकान होते हैं। जहाँ इस फिल्म में इस्लामिक कट्टरपंथ के मसले को छेड़ा गया है वहीं रंगभेद के कारण गैर-गोरी चमड़ी वालों की त्रासदी भी छेड़ी गई है। इस्लामिक कट्टरपंथियों के मुद्दे पर इस फिल्म में औरतों की हालत और इस्लाम की गलत तरीके से व्याख्या कर खुदाई प्रेम की अग्नि की जगह नफ़रत की आग से भरपूर नौजवान तैयार करते मौलवियों पर प्रकाश डाला है। एकाध अभिनेता को छोड़ दिया जाए तो बाकी सभी ने अपने-२ किरदारों को पूरी ईमानदारी के साथ निभाया है और शोएब मंसूर ने बहुत ही अच्छा निर्देषन किया है।

यह फिल्म हार या जीत की कहानी नहीं है, यह ज़िन्दगी में आती बाधाओं का सामना करने और आगे बढ़ते जाने की कहानी है। भारत/पाकिस्तान की आम फिल्मों की भांति इस फिल्म में गाने और उनमें लुभावनी लोकेशन पर हीरो-हीरोइन नाचते नहीं दिखाए हैं, इस फिल्म में लगभग सभी गाने बैकग्राउंड में हैं। लेकिन वे सभी गाने और संगीत बहुत ही नफ़ासत के साथ कहानी में पिरोए हुए हैं, जब कभी ऐसा समय आता है जहाँ लगता है कि अब किन्हीं दो किरदारों के बीच लड़ाई झगड़ा होगा या कोई बहस होगी या इमोशन्स का सैलाब उमड़ पड़ेगा, वहाँ बैकग्राउंड में गाना अथवा संगीत बज उठता है और सभी को पूरा स्कोप देते हुए कहानी को दिशा प्रदान करते हुए आगे बढ़ा देता है।

निर्देषन वाकई तारीफ़ के काबिल है, कहानी के अनुसार लोकेशन का चुनाव और उनका वास्तविक सा फिल्मांकन कहानी को बेधड़क आगे बढ़ाता रहता है और दर्शक को बॉलीवुड की फिल्मों की भांति एकदम से चौंका नहीं देता कि अभी तो हीरो-हीरोइन जुहू चौपाटी पर चाट खा रहे थे और एकदम से स्विट्ज़रलैन्ड में बर्फ़ से ढके एलप्स (Alps) की सुंदर वादियों में गर्मियों के कपड़े पहने गाना गाने कैसे पहुँच गए। 😀 पूरी फिल्म में इस्लामिक कट्टरपंथ को आगे बढ़ाते मौलाना ताहिरी (रशीद नाज़) ही दिखते हैं और उनकी मुख़ालफ़त कर उनकी बात को नाजायज़ कहता कोई नहीं दिखता लेकिन फिल्म के आखिर में अतिथि भूमिका (Guest Appearance) में आते हैं मौलाना वली (नसीरुद्दीन शाह) जो कि कट्टरपंथ को क्लीन बोल्ड कर देते हैं।

रशीद नाज़ और नसीरुद्दीन शाह दोनों ने ही शानदार अभिनय किया है। नसीरुद्दीन शाह का कुछ मिनट का अभिनय मुझे बाकी सभी के अभिनय पर भारी पड़ता लगा। फिल्म में कई डॉयलाग भी बहुत ही शानदार लिखे गए हैं और उतने ही शानदार ढंग से बोले भी गए हैं। मौलाना ताहिरी ने अपने सभी डॉयलाग बढ़िया तरीके से अफ़ग़ान स्टाइल में बोले हैं जिसमें यह बहुत ही भाया:

किने किने जाना बिल्लो के घर, हमने भी जाना बिल्लो के घर। बिल्लो के घर जाने का बात, टिकट कटाने का बात, इससे बड़ा बुराई कोई हो सकता है?

एक अन्य जो भाया वह फिल्म की शुरुआत में एक अंग्रेज़ रिपोर्टर को साक्षात्कार देते हुए मौलाना साहब ने अफ़ग़ान स्टाइल में अंग्रेज़ी बोलते हुए डिलीवर किया:

माई डियर लेडी, आई विश यू न्यू अ लिट्टल बिट ऑफ हिस्ट्री ऑल्सो। इन ओल्ड डेज़ युअर ग्रेट ब्रिटन इंपोस्ड वॉर ऑन चाइना। यू नो वाए? बिकौज़ दी चाइनीज़ गौरमेन्ट स्टौप्ड ब्रिटिश फ्रौम सेलिंग ओपियम इन चाइना।

इसके अतिरिक्त नसीरुद्दीन शाह के डॉयलाग और अंदाज़-ए-बयान तो लाजवाब था ही। जब मैरी उनको अदालत में आने से मना करने और उसके हक़ में बोलने के इंकार के लिए लानत भेजने आती है और कहती है कि नमाज़ अभी पढ़ें या बाद में क्या फर्क पड़ता है मात्र एक्सरसाइज़ ही तो है तो मौलाना वली (नसीरुद्दीन शाह) का डॉयलाग होता है:

मेरी नमाज़ को एक्सरसाइज़ कहने वाली या तो बहुत पहुँची हुई है या बहुत दुखी है

ऐसे ही अदालत में भी मौलाना वली के डॉयलाग और नसीर का अंदाज़-ए-बयान लाजवाब है:

दीन में दाढ़ी है, दाढ़ी में दीन नहीं!!

और यह डॉयलाग भी कम नहीं

अंदर आग लगाओ बाहर खुद-ब-खुद आएगी, वर्ना यही होगा कि लोग हराम की कमाई जेब में डाले हलाल गोश्त की दुकान ढूँढते फिर रहे होंगे!!

इस फिल्म का अंत आम फिल्मों की भांति हैप्पी एन्डिंग नहीं है, वरन्‌ एक अलग तरह की एन्डिंग है जिसमें गुमराह हुए भाई को वापस आया दिखाया जाता है और परिवार को ज़िन्दगी की चुनौती और सच्चाई से संघर्ष करते दिखाया है। दूसरे भाई का क्या हुआ यह आप फिल्म देख ही जानिए। 😉

कुल मिलाकर एक बढ़िया और जानदार फिल्म है। और एन्सी से इस बात पर सहमत हूँ कि आज जब करोड़ों रुपयों के खर्च पर बन रही और फ्लॉप हो रही हिन्दी फिल्मों से कहीं अधिक अच्छी है क्योंकि यह नामी स्टॉरकास्ट और अर्ध-नग्न हीरोइनों के दम पर चलने की आशा रख नहीं बनाई गई। इस फिल्म में संगीत अंदर तक छूता भी है और श्रोता को झूमने पर भी मजबूर करता है जो कि ज़रा नई बात है आजकल के समय में जहाँ हर फिल्म में कर्कशता को संगीत बताकर बेचा जा रहा है।

एक गीत जो मुझे खास पसंद आया वह यह है, आप भी लुत्फ़ उठाईये:

 
यदि आपने अभी तक यह फिल्म नहीं देखी है और एक अच्छी फिल्म देखना चाहते हैं तो इस फिल्म को अवश्य देखिए। 🙂 :tup: