अभी हाल ही में रिलीज़ हुई रितिक और ऐश्वर्य की फ़िल्म जोधा अक़बर को लेकर काफ़ी हल्ला हो चुका है। बहुतों का कहना है कि जोधा वास्तव में मुग़ल बादशाह अक़बर की शरीक-ए-हयात न थी वरन् उनके साहिबज़ादे और अगले मुग़ल बादशाह जहाँगीर की बेग़म थी। और ये कुछ लोग इसलिए आशुतोष गोवारिकर से खफ़ा हैं कि खामखा पुत्रवधु को ससुर की लुगाई करार दिया जा रहा है और इतिहास की वाट लगाई जा रही है।
मुझे यह सोच उन लोगों पर हंसी आ रही है कि खामखा अपना समय वे लोग एक बेकार के मुद्दे पर हल्ला कर व्यर्थ कर रहे हैं। फ़िल्में कब से सच्चाई का आईना हो गईं? अधिकतर फ़िल्में मनोरंजन के लिए बनाई जाती हैं और जोधा-अक़बर भी एक कमर्शियल फ़िल्म है जिसका उद्देश्य भी मनोरंजन ही है न कि लोगों का ज्ञानवर्धन करना। तो कुछ हल्ला मचाने वाले लोग यह कह रहे हैं कि जिस तरह जन्नतनशीन फिल्म निर्देशक के.आसिफ़ द्वारा बनाई गई दिलीप कुमार तथा मधुबाला की फ़िल्म मुग़ल-ए-आज़म ने जोधा का अक़बर की बेग़म होने की भ्रांति फैलाई थी उसी प्रकार फ़िल्म जोधा-अक़बर भी उसी भ्रांति को कायम रखे है।
पर बात वही है कि फ़िल्में कब से सच्ची घटनाओं को जस-का-तस देखने का आईना हो गईं? जिन अत्यधिक पढ़े-लिखे महानुभावों को यह पता है कि जोधा वास्तव में अक़बर की बेग़म न होकर जहाँगीर की बीवी थी उन पढ़े-लिखे महानुभावों को यह न दिखा कि फ़िल्म जोधा-अक़बर के आरंभ में कथा बाँचते हुए अमिताभ बच्चन कहते हैं:
हिन्दुस्तान…..
इतिहास गवाह है कि इस ज़मीन पर खून की खुराक से ही सल्तनतें पनपती रही हैं। सन् 1011 से कितनों ने ही वक्त-२ इसे लूटकर इस फूल को अपने कदमों तले रौंदा है। और फिर….. सन् 1450 में कदम रखा मुग़लों ने; जिन्होंने इसे अपना घर बनाया, इसे प्यार दिया और इसे नवाज़ा। बादशाह बाबर से शुरु हुई मुग़लिया हुकूमत हुमायूँ से होती हुई अक़बर तक पहुँची जिसे मुग़लिया दौर में सबसे ऊँचा दर्जा हासिल हुआ।
फ़िल्म वालों की तो क्या कहें पर इन पढ़े-लिखे विद्वानों और इतिहासकारों पर अवश्य आश्चर्य हो रहा है कि इन्होंने इस बात पर हल्ला नहीं मचाया कि फ़िल्म में कहा गया है कि मुग़ल सन् 1450 में आए थे। अब यह तो फ़िल्म में सही कहा गया है कि मुग़लिया सल्तनत की नींव बादशाह बाबर ने रखी थी पर यह मुझे समझ नहीं आता कि मुग़ल सन् 1450 में भारत कैसे आ गए थे क्योंकि मुग़ल सल्तनत की नींव बाबर ने सन् 1504 के आसपास रखी थी जब उसने काबुल और खोरासन के पूर्वी भागों और सिंध पर कब्ज़ा किया था। और तो और, उसे छोड़िए, बाबर का जन्म सन् 1483 में हुआ था तो वह कैसे सन् 1450 में भारत आकर मुग़लिया सल्तनत की शुरुआत कर सका यह वाकई चर्चा का विषय है। क्या कोई समय में यात्रा कर सकने वाला उपकरण उस काल में मौजूद था या भविष्य से कोई वहाँ जाएगा यह करने के लिए? 😉
फ़िल्म में यह बात तो सही दिखाई है कि सन् 1555 में बादशाह हुमायूँ की अकस्मात मृत्यु से लफ़ड़ा हो गया था और हेमचन्द्र विक्रमादित्य भार्गव उर्फ़ हेमु ने दिल्ली और आगरा पर अपना कब्ज़ा जमा अपने को सम्राट घोषित कर दिया था और फिर बैरम खाँ की कमान में चलती फौज ने पानीपत की दूसरी लड़ाई में हेमु की अपने से दोगुणी फ़ौज से लोहा लिया था और हेमु आँख में तीर लगने से ज़ख्मी हो गिर पड़ा था जिसका बैरम खाँ ने तब सिर कलम कर दिया था जब अक़बर ने ऐसा करने से मना किया था। यानि कि पूर्णतया झूठ नहीं दिखाया है फ़िल्म में, कुछ-२ जगह पर सही इतिहास फ़िल्माया गया है।
पर बात यह नहीं है कि क्या सही फ़िल्माया है, बात यह है कि इन हल्ला करने वाले विद्वानों को सन् 1450 वाली त्रुटि क्यों न दिखी? जोधा का अक़बर की बीवी न होने का गूढ़ राज़ मालूम है जो कि अभी भी विवादास्पद है क्योंकि इस बारे में कोई ठोस प्रमाण नहीं हैं पर तारीख का नहीं मालूम जिसके बारे में पक्के ठोस प्रमाण हैं और जो दर्ज इतिहास है?
ज़ाती तौर पर मेरा मानना है कि फ़िल्म मनोरंजन के लिए होती हैं, इतनी टेन्शन न ही लो तो बेहतर होता है। तकरीबन दो वर्ष पहले आई हॉलीवुड की फ़िल्म 300 का ही उदाहरण लें जो कि थरमॉपली की प्रसिद्ध लड़ाई पर बनी थी जिसमें कथित 300 स्पॉर्टा के सैनिकों ने हज़ारों-लाखों की पर्शिया की फौज से लोहा लिया था, परन्तु उसमें दिखाया गया कि अंत में सिर्फ़ स्पॉर्टा के ही सैनिक रह गए जो मारे गए परंतु इतिहास तो कुछ और ही कहता है। दर्ज इतिहास के अनुसार उन 300 स्पॉर्टा के सैनिकों के साथ तकरीबन 700 थेस्पिया के सैनिकों ने भी अंत तक ज़र्कसीस की सागर सी विशाल फौज से लोहा लेते हुए अपने प्राणों का बलिदान दिया था। तो इस बारंबार दोहराए जाने वाले गूफ़-अप(Goof Up) को क्या कहेंगे कि जब भी थरमॉपली की प्रसिद्ध लड़ाई का ज़िक्र आता है तो सिर्फ़ उन 300 स्पॉर्टा के सैनिकों तथा उनके राजा लियोनाईडस की वाह वाही होती है जबकि उनके साथ आखिरी साँस तक लड़ते हुए शहीद हुए 700 गुमनाम थेस्पियन सैनिक अपने हिस्से की वाह-वाही से वंचित रह जाते हैं!!
तो बात यह भी नहीं है कि फ़िल्म जोधा-अक़बर में बताई गई गलत तारीख को हल्ला करने वाले इतिहास के विद्वानों ने अनदेखा कर दिया; बात यह है कि फ़िल्म को फ़िल्म की तरह ही लो यानि कि काल्पनिक कहानी के रूप में। यदि यह कहा जाता है कि फ़िल्म सच्ची घटनाओं पर बनी है और फिर उसमें कोई बात गलत दिखाई जाती है तो उसका विरोध लाज़मी है।
और जो हल्ला करने वाले लोग यह कहते हैं कि इस तरह की गलतियों से लोगों को गलत ज्ञान मिलता है तो भई जो व्यक्ति ठोस दर्ज किताबी ज्ञान लेने की जगह फ़िल्म देख यह ज्ञान लेता है कि अक़बर कब बादशाह बना और उसकी बीवी का क्या नाम था तो उस व्यक्ति और उसकी बुद्धि पर तरस ही आ सकता है!! 😉
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