चिट्ठाकार गूगल समूह में कॉमिक्स की बात क्या चली कि सभी को अपने दिन याद आ गए। इससे पहले तकरीबन दो साल पहले प्रतीक बाबू ने अपने अड्डे पर पोस्ट ठेल के सबको दिन याद दिलाए थे। पर इस बार तो यह शायद मियादी बुखार की तरह फैले, जीतू भाई और रवि जी अपने-२ अड्डों पर पोस्ट ठेल चुके हैं, एक मैंने भी यहाँ यह ठेल दी है, आगे पता नहीं कौन-२ चपेट में आता है। 😉

हाँ तो अब जीतू भाई तथा रवि जी तो ठहरे बुजुर्ग लोग, बाबा आदम के ज़माने की बातें बता रहे हैं इंद्रजाल कॉमिक्स आदि की(अपने टैम में तो न इंद्र शेष रहे न ही उनका जाल) तो मेरे जैसे छोकरों को भी पढ़ मज़ा आ गया कि अपने टैम में ये लोग कैसे-२ कांड(रवि जी तो शरीफ़ इंसान हैं, सिर्फ़ जीतू भाई) किए रहे!! 😉 खैर, अपन भी इनके बाद के समय के हैं तो कम तो किसी हालत में न थे। 👿

फौलादी सिंह
वैज्ञानिक शक्तियों से लैस – फौलादी सिंह

तो हुआ यूँ कि मेरे को कॉमिक्स का पहली बार पता चला जब मैं तीसरी कक्षा में पढ़ता था; तब तक मैं बहुत सीधा-साधा था और बुरी लतों(जैसे कॉमिक्स पढ़ना) का कोई अनुभव न होने के कारण उल्टी-सीधी हरकतों से बचा हुआ था। एक दिन कॉमिक्स का पता चला(अब याद नहीं कैसे) कि ये अख़बार में आती हैं तो अख़बार में उनको देखता, पढ़ने में तो कोई इतनी रुचि नहीं थी तो सिर्फ़ चित्र देख समझता था कि क्या है। फिर पता चला कि घर के पास वाले एक दुकानदार का लड़का अपनी कॉमिक्स किराए पर देता है, तो जाकर पचास पैसे प्रति कॉमिक की किराए दर पर एक-दो कॉमिक्स घर लाया, किस किरदार की थी यह पता नहीं बस पन्ने उलटने लगा। माँ ने कहा भी कि ये क्या लाया हूँ और बिना पढ़े क्यों पन्ने पलट रहा हूँ तो डाँट से बचने के लिए कह दिया कि सब समझ आ रहा है। एक बार लाकर दोबारा मन न हुआ कॉमिक्स लाने का; आखिर रोज़ का एक रुपया जेबखर्च मिलता था सिर्फ़ और उसमें ऐसे कॉमिक्स पढ़ डाली तो कैसे चलता, टॉफी कहाँ से आती फिर, क्योंकि तीसरी कक्षा में आते ही जेबखर्च मिलना शुरु हुआ था और माँ ने बाज़ार में टॉफियाँ आदि दिलाना लगभग बंद कर दिया था(पहले ही यह कह कम दिलाती थीं कि दांत खराब हो जाएँगे)। पापा के साथ अलग बात थी, उनके साथ कभी बाज़ार निकल लेता था(बहुत मेहनत का और कष्टकारी काम था, छुट्टी वाले दिन सुबह-२ सात बजे उठ के जाना पड़ता था क्योंकि वे उसी समय जाते थे) तो फिर चॉकलेट से कम में तो टलता ही न था!! 😀 खैर, एक दिन चाचा चौधरी की एक कॉमिक्स मोहल्ले के किसी लड़के से पढ़ने को मिल गई, मोटी डाइजेस्ट थी, तो उसे पढ़ा। पढ़कर मज़ा आया तो बचाए हुए जेबखर्च में से पैसे खर्च कर किराए पर चाचा चौधरी, पिंकी, बिल्लू की कॉमिक्स पढ़ने लगा, पर उस दुकानदार के लड़के के पास अधिक कॉमिक्स नहीं थी और जल्द ही वह अपने लिए बेकार हो गया, आजू-बाजू कोई अन्य कॉमिक्स न बेचता था न ही किराए पर देता था।

कुछ दिन बाद दुविधा का समाधान तब हुआ जब मैं और मोहल्ले का एक लड़का थोड़ी दूर दूसरे मोहल्ले में घूम रहे थे और एक रेहड़ी पर दुकान लगाए व्यक्ति को देखा जो कि हर तरह का सामान बेच रहा था – कंघी, शीशे, रुमाल, चेन, पर्स आदि। उसके पास कॉमिक्स दिखी तो उससे बात की, उसने किराए पर देने से साफ़ मना कर दिया, पुरानी कॉमिक्स उसके पास थीं जिनको वो सस्ते में देने को तैयार था। मरते क्या न करते, उससे एकाध कॉमिक्स खरीद ली। उसने आश्वासन दिया कि जब हम इनको पढ़ लें तो उसको ये कॉमिक्स वापस कर सकते हैं, दो रुपए प्रति कॉमिक्स वह काट के वापस ले लेगा और बदले में दूसरी कॉमिक्स दे देगा, यह सुन हमने राहत की सांस ली।

अगले कुछ महीनों में डॉयमण्ड कॉमिक्स के किरदार चाचा चौधरी, पिंकी, बिल्लू, ताऊजी, राजन इकबाल और फौलादी सिंह पढ़े। फौलादी सिंह कुछ सुपरमैन टाइप किरदार था जिसकी साइंस फिक्शन कॉमिक्स होती थी जिनमें विलेन हमेशा कोई न कोई परग्रही ऐलियन होता था। इसका जोड़ीदार होता था लम्बू नाम का किरदार जो कि साइज़ में इतना छोटा था कि एक हथेली पर खड़ा हो जाए पर जिसके शरीर का घनत्व इतना था कि पूछो ही मत!! 🙂 इनको वैज्ञानिक शक्तियाँ देने वाले और इनके सहायक थे एक प्रोफेसर साहब और ये लोग एक टापू पर अपना मुख्यालय बनाए हुए थे।

ताऊजी
जादुई चमत्कारों वाले – ताऊजी

ऐसे ही एक अन्य किरदार जो पसंद था उनका नाम था ताऊजी। इनकी कॉमिक्स में थोड़ा जादू-टोना होता था, ताऊजी भी तंतर-मंतर के जानकार थे और पास में था एक जादुई डंडा जो अच्छे अच्छों को डंडा दे सकता था। ताऊजी के साइडकिक का नाम याद नहीं आ रहा पर उसकी दाढ़ी खूब लंबी हो सकती थी, जादुई थी और कटती नहीं थी किसी चीज़ से। सोचो यदि इस दाढ़ी के बालों का प्रयोग पतंग उड़ाने के लिए किया जाता तो होती किसी की मजाल कि पतंग काट हमें “आई वो काटा” कह जाता!! 😉

खैर, तो अपन उस रेहड़ी वाले से कॉमिक्स लाते रहे, लेकिन दो रुपए प्रति कॉमिक्स देना बहुत भारी लगता था तो उसका जुगाड़ यह निकाला गया कि साथ के अन्य लड़कों को कॉमिक्स पढ़ाई जाती और उनसे हर कॉमिक्स के लिए एक अठन्नी ली जाती, इससे हमारे दो रुपए वसूल हो जाते क्योंकि तीन-चार लड़कों को तो पढ़ा ही देते थे। लेकिन ये पढ़ाने का सिलसिला ज़्यादा न चला तो उसके बाद पैसे अपनी जेब से ही दिए, इसलिए जेबखर्च में पैसे बचाने की आदत डाली। घर में यदि माँ से कॉमिक्स के पैसे माँगता तो डर था कि पापा से न कह दें और यदि पापा को कह दिया तो पापा ने सीधा कान के नीचे एक ज़ोरदार बजाना था और बोलना था

कमबख्त, पढ़ाई लिखाई होती नहीं और कॉमिक्स में लगा रहता है

और फिर कहीं हफ़्ते भर के लिए घर से निकलना बंद न हो जाए, बस यही सोच सिहरन दौड़ जाती बदन में और इसलिए न माँ से पैसे माँगे और पापा से तो कहने का मतलब ही नहीं था। अब ऐसा भी नहीं था कि पापा से पिटाई ही होती थी, पापा का मामला ज़रा एक्सट्रीम केस वाला था, गलत बात(उनकी नज़र में) पर जहाँ पिटाई तुरंत होती थी(गालियाँ बोनस में) वहीं मूड में होते थे तो फरमाईश भी जल्दी पूरी होती थी, यानि कुछ-२ कह लो भोले भंडारी शिव की तरह – नाराज़ हुए तो तांडव और खुश हुए तो मुँह माँगा वरदान, इसलिए पापा से मैं कुछ उनका मूड देखकर ही बोलता था, फरमाईश पूरी हो या न हो लेकिन पिटाई करवाने का मैं खास तमन्नाई नहीं होता था। 😉 तो ऐसे ही एक बार की बात है, छुट्टी का दिन था और शाम को पापा बाज़ार जा रहे थे तो मैं भी उनके साथ हो लिया, वे अपने किताब-मैगज़ीन वाले के पास पहुँचे अपनी महीने की पत्रिकाएँ और उपन्यास लेने तो मेरी नज़र जम्बू की (नई)कॉमिक्स पर पड़ी तो बस वहीं ज़िद पकड़ ली कि कॉमिक्स दिलवाई जाए। अब पापा मूड में थे(तभी तो मैं उनके साथ बाज़ार आया था) इसलिए थोड़ी ज़िद में पसीज गए और उस शाम मैं घर वापस बहुत खुशी-२ आया कि नई कॉमिक्स मिल गई और मेरी जमापूंजी में भी कोई कमी नहीं आई, माँ ने कॉमिक्स देखी तो उनकी भृकुटी चढ़ी और पापा से जवाब तलबी हुई कि काहे कॉमिक्स दिलाई तो पापा ने भी कंधे उचका दिए जैसे बोलना चाह रहे हों कि क्या करता ये तो वहाँ पसर गया था और लिए बिना टल नहीं रहा था!! 😉

अरे, बतियाते-२ इतना समय हो गया पता ही नहीं चला!! चलिए इस बारे में अगले भाग में आगे बतियाएँगे, प्रतीक्षा कीजिए। किस्सा-ए-कॉमिक्स यहाँ जारी है 🙂