प्राय: सुनने में आता है कि हिन्दी पुस्तकें खरीदने के मामले में लोग कंजूसी दिखाते हैं, वे उसका लिखित दाम देने से कतराते हैं इसलिए बढ़िया पुस्तकें नहीं बिकती, जबकि अंग्रेज़ी पुस्तकें 500-800 दाम होने के बावजूद बिक जाती हैं! पता नहीं अब इसमें कितनी सच्चाई है, लेकिन इतना कह सकता हूँ कि मैं कोई पुस्तक दाम देख के नहीं खरीदता। पुस्तक महँगी होगी तो मैं उसका सस्ता संस्करण खोजने का प्रयत्न करता हूँ या फिर यह देखता हूँ कि सस्ती कहाँ से मिल सकेगी। जैसे हैरी पॉटर की पिछली पुस्तकें तकरीबन 900 रूपए के लिखित दाम पर आईं, तो पिछली दो पुस्तकें मैंने ऑनलाईन खरीदीं जहाँ वे मुझे 300 रूपए के डिस्काऊँट पर मिल गईं। ऐसे ही एक उपन्यास की शृंखला का नया उपन्यास आया था तो हार्ड कवर (hard cover) में आया था जो कि 700 रूपए का था, थोड़ी प्रतीक्षा की तो उसका पेपरबैक (paperback) संस्करण भी आ गया जिसके सिर्फ़ 350 रूपए चुकाए!! :tup: दाम बचाने के लिए पॉयरेटिड पुस्तकें खरीदना अपने को नहीं भाता है क्योंकि उसमें प्रकाशक और लेखक दोनों का पैसा मारा जाता है और चोर (जो पॉयरेटिड छाप रहा है) की खामखा की कमाई हो जाती है। :tdown:

लेकिन हिन्दी पुस्तकों की बात कहें तो उनमें मैंने प्रायः एक खामी यह देखी है कि उनके कवर पर पुस्तक के बारे में मुश्किल से दो-तीन लाईन लिखी होती हैं। अन्यथा या तो लेखक के बारे में छपा होगा या कुछ नहीं छपा होगा, पुस्तक के अंदर के माल की कोई झलक नहीं छपी होती। तो ऐसे में कैसे पता चले कि पुस्तक किस प्रकार की है और उसके अंदर का माल रूचिकर है कि नहीं, अब दुकान में किताब तो नहीं पढ़ने बैठेंगे, इतनी सारी किताबें होती हैं और सभी को अंदर से देखने लगे तो हो लिया काम!! :tdown:

मेरे साथ भी कई बार ऐसा हुआ है, शीर्षक आदि से कोई हिन्दी पुस्तक या उपन्यास रूचिकर लगा लेकिन भीतर के माल की झलक बाहर न छपे होने के कारण मैंने उसके अंदर झाँकने की ज़हमत नहीं उठाई। अंग्रेज़ी के जितने भी उपन्यास देखे हैं सब के कवर पर पीछे कहानी की एक झलक होती है जिससे यह निर्धारित होता है कि उपन्यास खरीदने लायक है कि नहीं और जिस उपन्यास की झलक अच्छी लगती है तो उसके अंदर झाँक के देखा जाता है खरीद के बारे में आखिरी निर्णय लेने के लिए। अधिकतर उपन्यासों की झलक ही पसंद नहीं आती इसलिए वे वहीं रिजेक्ट हो जाते हैं। इस तरह से कम समय में अधिक उपन्यासों के ढेर में से कुछ उपन्यास छाँटे जा सकते हैं जो खरीदने और पढ़ने लायक हों। यह बात किसी हिन्दी प्रकाशक को समझ क्यों नहीं आती??!!

अभी कल ही गुड़गाँव में एक मित्र से मिलने गया तो एम्बियंस मॉल में मिलना तय हुआ। वहाँ रिलायंस की तीन मंज़िली महलनुमा दुकान है जिसमें पहली मंज़िल पर सिर्फ़ किताबें और खिलौने हैं। मित्र की प्रतीक्षा करते हुए मैंने सोचा कि किताबों पर एक नज़र मार ली जाए, कुछ पसंद आया तो ले लिया जाएगा। पिछली बार जब रिलायंस की उस दुकान में गया था तो वहाँ अधिक किताबें नहीं थी लेकिन इस बार काफ़ी सारी किताबें थीं और हिन्दी की किताबें भी अच्छी खासी मात्रा में थीं। उन्हीं में श्रीलाल शुक्ल द्वारा लिखा उपन्यास राग दरबारी सामने दिख गया, उठा के उलट पलट के देखा तो अन्य हिन्दी पुस्तकों की भांति हाल था, कवर पर अंदर के माल की कोई झलक नहीं। इसको भी मैंने रख ही दिया था वापस लेकिन तभी ध्यान आया कि अनूप जी ने इसकी प्रशंसा में लिखा था, तो झट से उनको फोन मिलाया इसके बारे में पता करने के लिए, और अनूप जी ने इसकी काफ़ी तारीफ़ की और पढ़ने की सलाह दी तो उनके सुझाव पर राग दरबारी खरीद लिया गया। :tup: राजकमल प्रकाशन द्वारा छापा गया हिन्दी का संस्करण है और चूँकि पॉयरेटिड नहीं है तो इसलिए 450 रूपए की पूरी लिखित कीमत चुकाई। यह उपन्यास मुझे कैसा लगा यह तो पढ़ने के बाद ही बता पाऊँगा लेकिन इतना तय है कि यदि इसका रिकमेन्डेशन नहीं मिला होता तो सौ प्रतिशत तय है कि इस पुस्तक को नहीं खरीदता!! 🙂

अंत-पंत मामला यही है कि हिन्दी की पुस्तकों का ऊँचा दाम चुका न खरीदे जाने के पीछे भाषा और दाम कारण के रूप में अधिक कमज़ोर नज़र आते हैं, असली कारण पुस्तक के आवरण और छपाई से लेकर उसके प्रमोशन की कमी अधिक लगते हैं। पुस्तक के पीछे उसके माल की झलक भी एक तरह का प्रमोशन है, पुस्तक का विज्ञापन है और जितने लोगों को मैंने उपन्यास आदि खरीदते हुए देखा है वे सबसे पहले पुस्तक के पिछले कवर को देखते हैं उसके बारे में जानने के लिए और उसके बाद ही उसके अंदर झाँकते हैं। हो सकता है कि भाषा के खिलाफ़ पक्षपात का आरोप लगाने वाले सज्जनों का ध्यान इन छोटी बातों पर न जाता हो पर इनकी महत्ता को कम से कम मैं अपने मामले में नहीं नकार सकता। मैंने 200-250 रूपए की कीमत वाले ऐसे हिन्दी उपन्यास भी देखे हैं जिनकी छपाई और प्रयोग किया कागज़ घटिया दर्जे का होता है जबकि विदेशी उपन्यास जो उतनी कीमत में मिलते हैं उनकी छपाई और कागज़ बेहतर होता है, वह भी तब जब वे विदेश में छपे होते हैं जहाँ छपाई भारत के मुकाबले महँगी होती है। तो इस पर व्यक्ति के मन में बहुत ही आराम से विचार आ सकता है कि जब घटिया छपाई ही चाहिए तो पचास रूपए में पॉयरेटिड माल ही खरीदो, काहे इतने पैसे खर्च किए जाएँ। पता नहीं हिन्दी की ऐसी पुस्तकों के पॉयरेटिड संस्करण मिलते भी हैं कि नहीं, मैंने दिल्ली में तो कहीं देखे नहीं। लोकल बाज़ार में, सड़क-चौराहों पर और क्नॉट प्लेस आदि में अंग्रेज़ी उपन्यासों के पॉयरेटिड संस्करण धड़ल्ले से बिकते हैं यह तो मुझे पता है, आते-जाते सामने दिखते ही हैं!! वैसे यहाँ भी डिमांड एण्ड सप्लाई का नियम लागू होता है, अंग्रेज़ी उपन्यास काफ़ी बिकते हैं इसलिए उनके पॉयरेटिड संस्करण निकालने में लाभ होता है, पता नहीं कि हिन्दी के उपन्यासों के पॉयरेटिड संस्करण निकालने में लाभ है कि नहीं!! खैर अपने को क्या!! 😉