लानती बात है कि पिछला भाग नवंबर 2008 में लिखा था और अब पाँच महीने बाद जाकर यह तीसरी कड़ी लिखने का होश आया है!! खैर देर आए दुरूस्त आए!! 😉

….. पिछले भाग से आगे

रविवार 22 जून को सुबह सवेरे अलॉर्म बजते ही आँख खुल गई, तकरीबन नौ-दस घंटे की नींद ली थी और अपने को बहुत तरोताज़ा महसूस किया, दुर्लभ क्षण लगा क्योंकि आलस्य की मौजूदगी का एहसास नहीं हुआ। 😀 सुबह का नाश्ता हॉस्टल की ओर से फोकटी होता था, बुफ़े (Buffet) टाइप। ब्रेड, कॉर्न फ्लेक्स, दूध, कॉफ़ी इत्यादि रसोई में टेबल पर रखा होता था, जितना मर्ज़ी खाओ पियो और मौज करो। तो नाश्ते के साथ-२ इमेल इत्यादि जाँच ली और बैकअप के लिए फोटो कैमरे के कार्ड से पेन ड्राइव में स्थानांतरित कर ली। हॉस्टल में एक और लाभ यह था कि यदि तीन दिन या अधिक की बुकिंग है तो कपड़ों की धुलाई मुफ़्त थी। लेकिन एक पंगा अभी भी था और वह यह कि पिछले रोज़ बेल्ट नहीं मिली थी और वह अति आवश्यक थी। तो इसलिए सबसे पहले बेल्ट ढूँढ के उसको लेने की सोची।

ट्रॉम पकड़ न्युगाती पॉल्याउद्वार (Nyugati pályaudvar) यानि पश्चिमी रेलवे स्टेशन पहुँचा और उसके बगल में मौजूद बुडापेस्ट के सबसे बड़े मॉल वेस्टेन्ड सिटी सेन्टर (Westend City Center) में दाखिल हुआ। मॉल काफ़ी बड़ा था लेकिन गुड़गाँव नोएडा आदि के मॉलों के सामने टिक सके ऐसा न लगा! मॉल में घुसते ही कुछ दुकानें छोड़ मर्दाना कपड़ों आदि की एक दुकान दिख गई और वहाँ चमड़े की एक साधारण लुक्स वाली (डिज़ाइनर नहीं) बेल्ट भी मिल गई। जर्मन ब्रांड थी, दाम पड़ा कोई आठ हज़ार चार सौ फोरिन्ट (तकरीबन चौबीस सौ रूपए), मजबूरी थी और मामला अर्जेन्ट था इसलिए कुछ कर नहीं सकते थे और अपना उल्लू कटा के उसको ले लिया गया।

अब कम के कम एक टेन्शन समाप्त हुई थी, इसलिए इधर-उधर घूमने फिरने पर ध्यान दिया गया। मॉल में एक चक्कर लगा के बाहर आ गया और मेट्रो के भूमिगत स्टेशन की ओर बढ़ गया और वहाँ से एम2 मेट्रो पकड़ के दीआक टर्मिनल (Deák Ferenc tér) पहुँचा। एक बात जो नोटिस की वह यह थी कि मॉल में प्राय: हर चीज़ महँगी थी। मॉल में आधे लीटर पानी की बोतल छह सौ फोरिन्ट (तकरीबन एक सौ सत्तर रूपए) में मिल रही थी जबकि दीआक टर्मिनल से बाहर आकर बाजू की एक फलों की दुकान से मैंने उसी ब्रांड की दो लीटर की पानी की बोतल ढाई सौ फोरिन्ट (तकरीबन सत्तर रूपए) में खरीदी। यहीं दीआक टर्मिनल के सामने ही एक गिरजाघर है जहाँ से अगले दिन शाम का वॉकिंग टूर चालू होना था, तो इस तरफ़ आने का मुख्य मकसद तो जगह देखना था।


( इस फोटो को अन्य रूप और बड़े आकार में यहाँ देखें )


तत्पश्चात एक दिशा निर्धारित की और उस ओर चल पड़ा। जिस ओर से आ रहा था उस दिशा में संत स्टीफ़न का गिरजाघर था जो कि अगले दिन के शाम के टूर में देखा जाना था और जिस दिशा में मैं जा रहा था उस तरफ़ एक अन्य गिरजाघर था जो कि टूर के दौरान नहीं देखा जाना था इसलिए बेहतर था कि उसको पहले देख लिया जाए।

ईसाई धर्म प्रभुत्व वाले देशों में प्रायः उनके इतिहास, संस्कृति, कला आदि के लंबे सफ़र के बारे में जानने का बढ़िया ज़रिया गिरजाघर ही होते हैं। भारत में तो मंदिरों मस्जिदों के अतिरिक्त किले महल आदि भी इतिहास के लंबे सफ़र के दौरान हुए विभिन्न बदलावों की कहानी बयान करते हैं लेकिन योरोप के देशों में प्रायः किले महल उतना अधिक बयान नहीं करते जितना वहाँ के गिरजागर करते हैं क्योंकि जितने कलात्मक कार्य गिरजाघरों में होते थे उतने कहीं अन्य नहीं होते थे।

यह गिरजाघर छोटा था और इसमें मरम्मत का कार्य चल रहा था, इसलिए इसको अंदर से देखना न हो पाया, बस बाहर से ही फोटू लेकर अपन वापस दीआक चौक की ओर बढ़ चले। चलते-२ एक और बात यह देखी कि मुख्य सड़क से हट मकानों के बीच से जाने वाली गलियाँ और सड़कें छोटी थीं लेकिन उन पर खड़ी की गई गाड़ियाँ तमीज़ के साथ एक सीधी कतार में किनारे पर थीं, अपने यहाँ की तरह बेतरतीब आड़ी तिरछी नहीं थीं।


दीआक चौक पार कर संत स्टीफ़न के गिरजाघर की ओर बढ़ चला तो सड़क पार करते ही एक कम्यूनिस्ट काल की ग्रे रंग की इमारत नज़र आई जिसके बारे में अगले दिन शाम की टूर गाईड ने बताया कि वह पहले बस टर्मिनल हुआ करती थी। उस इमारत के भूमितल वाला भाग खुला और खाली था, कदाचित पार्किंग आदि करने के लिए। वहाँ कुछ आवारा किस्म के दिखने वाले लड़के अपनी-२ साईकिलों के साथ बैठे थे और कूल लगने का पूरा प्रयत्न करते हुए सुट्टे मार रहे थे!! इमारत के बाजू में एक हरा भरा एक छोटा सा पार्क था जहाँ रविवार होने के कारण अच्छी खासी चहल पहल थी, एक तरण ताल था जिसके किनारे पर बैठे लोग पानी में पैर डाल आराम से बैठे आपस में बतिया रहे थे। पार्क की सतह के नीचे एक ओपन एयर रेस्तरां भी था जिसकी कुर्सियों पर बैठे लोगों में बीयर आदि के दौर चल रहे थे।


थोड़ी देर वहाँ एक पेड़ की छाँव में मौजूद बेन्च पर बैठ आराम किया और उसके बाद दीआक चौक के बाजू से जाती एक अन्य सड़क पर बढ़ चला जो कि फैशन स्ट्रीट के नाम से जानी जाती है। अब क्या कहें, किन्हीं आला लोगों को लगा होगा कि लंदन की बांड स्ट्रीट (Bond Street) और पैरिस की रूआ दु फाऊबर्ग सेंट ऑनउहरे (Rue du Faubourg Saint-Honoré) के मुकाबले की जगह बुडापेस्ट में भी होनी चाहिए जहाँ बड़े-२ और एक से बढ़कर एक महँगे फैशन हाऊसों की दुकानें हों फैशनेबल और महँगे लिबास आदि बेचने के लिए।


फैशन की इसी चाहत के चलते नवंबर 2007 में निर्माण आरंभ हुआ फैशन स्ट्रीट (Fashion Street) का जो कि मार्च 2008 के आसपास निपटा होगा, वैसे मुझे नहीं लगा कि निर्माण/मरम्मत पूर्णतया समाप्त हो गया था, क्योंकि कुछेक जगह काम चलता दिखाई दिया। जितनी दुकानें थीं वे भी कम न थीं, एक से बढ़कर एक हाईफाई लिबास और अन्य सामान जैसे कि बीस हज़ार पाँच सौ फोरिन्ट (तकरीबन पाँच हज़ार आठ सौ) की एक टी-शर्ट या एक लाख पाँच हज़ार फोरिन्ट (तकरीबन तीस हज़ार रूपए) का एक बैग!! अपन तो बस ऐसी दुकानों और उनके ऐसे सामान को देख कर अचरज ही कर सकते थे और चकाचौंध हो सकते थे, फोटू नहीं लिए कि कहीं कोई उसके लिए थाम न ले!! 😀

टहल टहलाकर शाम को वापस हॉस्टल पहुँचा। मेरी डॉर्मिटरी में से एक बंदा चला गया था और उसकी जगह एक वियतनामी व्यक्ति आकर ठहरा था। उससे बातचीत हुई तो पता चला कि वह अपने दफ़्तर के कार्य से जर्मनी में था और छुट्टियाँ मनाने बुडापेस्ट आया था। उसका नाम न्यूयेन थान हा (Nguyên Thanh Hà) था। मेरे बंक बेड (bunk bed) के नीचे वाले बंक और बाजू वाले बंक पर दो स्विस कन्याएँ थीं जिनसे बातचीत के दौरान पता चला कि वे स्विट्ज़रलैन्ड के फ्रेन्च भाषी इलाके से थीं, उनकी अंग्रेज़ी अधिक अच्छी नहीं थी और वे पूर्वी योरोप के भ्रमण पर निकली थीं।

डॉर्मिटरी के तीसरे और अंतिम बंक बेड पर नीचे न्यूज़ीलैन्ड (New Zealand) की एक कन्या थी जो कि पूर्वी योरोप के भ्रमण पर थी और उसके ऊपर वाले बंक पर शनिवार को एक अन्य कन्या थी लेकिन रविवार को वह चली गई थी और उसकी जगह एक जर्मन अंकल आ गए थे जो कि पचपन वर्ष की उम्र से अधिक थे तथा जर्मनी के म्यूनिक (Munich) शहर से बुडापेस्ट तक के तकरीबन एक हज़ार किलोमीटर के सड़क के रास्ते पर साइकिल चला के आए थे!! मैं अचरज भर गया, वाकई मन में जो बात ठान ली जाए और इरादों में दम हो तो कोई कार्य कठिन नहीं!! 🙂

रात्रि हो आई तो मैंने और वियतनामी सहयात्री ने भोजन कर आने की सोची, सप्ताहांत के कारण हॉस्टल के आसपास अधिकतर रेस्तरां आदि बंद थे, हॉस्टल के मैनेजर क्रिस ने जिस लोकल रेस्तरां के बारे में बताया था जहाँ हंगरियन खाना मिल जाएगा वह रेस्तरां काफ़ी भटकने के बाद भी हम को नहीं मिला तो हम दोनों ने सोचा कि यह अगले दिन आदि देख लेंगे और फिलहाल काम चलाने के लिए वेस्टेन्ड सिटी सेन्टर पहुँचे और वहाँ हंगरियन जंक फूड खाया गया। जो चीज़ ली थी उसका नाम तो ध्यान नहीं, माग्यार भाषा में कुछ अजीब सा नाम था जो तुरंत ही दिमाग से उतर गया था, बस इतना याद है कि बावर्ची के सुझाव पर उसको लिया गया था और वह फ्रेन्च फ्राई और चिकन का कुछ मिला जुला रूप था जिसके ऊपर सलाद आदि की ड्रेसिंग थी और साथ में एक बड़े गिलास में कोका कोला दी गई थी!! वह जो भी था स्वाद में बुरा नहीं था लेकिन बिना मसाले का सिर्फ़ नमक डला खाना था। उस समय भूख अधिक लग रही थी इसलिए स्वाद पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया।


खाने के बाद हम लोग मॉल की उस भूमिगत मंज़िल पर थोड़ा बहुत टहले, और उसके बाद टहलते हुए वापस हॉस्टल आ गए। अगले दिन सोमवार सुबह हम दोनों ने बुडा के किले जाने का निश्चय किया, वहाँ हाऊस ऑफ़ हंगरियन वाइन्स (House of Hungarian Wines) भी था और चूंकि मेरे पास बुडापेस्ट कार्ड था तो इसलिए फोकट में वाइन चख सकने की सुविधा थी और वाइन की खरीद पर पंद्रह प्रतिशत की छूट। 😀 साथ ही यह अलग बात पता थी कि बुडा किला देखने में काफ़ी अच्छा था, मथायस चर्च (Matthias Church) भी वहीं था और मछुआरे का बुर्ज (Fisherman’s Bastion) भी वहाँ था।

 
क्रमशः