उँगली की हड्डी उतर गई सीधे हाथ की, क्रिकेट खेलते हुए (ये न समझें कि आईपीएल का बुखार चढ़ा था)। तो फिलहाल दाहिना हाथ क्रेप बैन्डेज में लिपटा हुआ है, तर्जनी उँगली और अंगूठे ही आज़ाद हैं कि कुछ काम किया जा सके उस हाथ से, 8-10 दिन ये हाल रहना है, चार दिन बीत चुके हैं। इस कारण मोटरसाइकल की सवारी नहीं हो सकती, इसलिए कहीं आजू बाजू बाज़ार आदि जाना हो तो रिक्शे पर जाना पड़ता है। कुछ दिन पहले ज्ञान जी लिखे थे रिक्शे और उनके माइक्रोफाईनेन्स पर जो उनके इलाहाबाद में होता है और कैसे उससे रिक्शे वालों की ज़िंदगी बदलेगी। लेकिन यहाँ दिल्ली की बात करें तो अधिकतर रिक्शे वाले $%^& टाइप बर्ताव करते हैं।
कल ही की बात है, बैंक में कुछ काम था और उसके बाद दूसरी ओर बाज़ार में जाना था तो घर के पास से एक रिक्शा पकड़ा और निकल लिए। बैंक एक किलोमीटर दूर है और वहाँ से बाज़ार तकरीबन 600-700 मीटर, यानि कि कुल मिलाकर डेढ़-पौने दो किलोमीटर का रास्ता। बैंक में अधिक देर का काम नहीं, मात्र एक-दो मिनट लगे। बाज़ार में मैंने रिक्शा छोड़ दिया, मौजूदा रेट के अनुसार एक किलोमीटर के फासले के सात रूपए बनते हैं, सवारियाँ तगड़ा मोल-भाव करती हैं। मैंने मोल-भाव नहीं किया और डेढ़-पौने दो किलोमीटर के रास्ते के रिक्शे वाले को बीस रूपए पकड़ा दिए। कदाचित् यहीं गलती कर दी, चाहे रिक्शे वाला हो या ऑटोरिक्शे वाला, इन लोगों को बिना मोलभाव किए उचित या अधिक पैसे दे दो तो ये लोग शायद यह समझ लेते हैं कि व्यक्ति मूर्ख है, शहर में नया है और उसको ठगा जा सकता है। वहाँ भी यही हुआ, रिक्शे वाला फैल गया कि पाँच रूपए और दिए जाएँ क्योंकि किराया पच्चीस रूपए बनता है। जब मैंने उसको कहा कि मोलभाव करके मैं उसको सात रूपए के अनुसार चौदह-पंद्रह रूपए देता तो ठीक रहता, बीस देकर गलती कर दी तो उसको मानो झटका सा लगा। जाने के बाद वो बड़बड़ाता रहा थोड़ी देर और मैं यह सोच रहा था कि वाकई सीधेपन का ज़माना नहीं है, इन लोगों से टेढ़े रहकर मोलभाव करके ही रहा जा सकता है।
दिमाग में कुछ वर्ष पहले की तस्वीरें उस समय अवश्य ताज़ा हो आईं जब रिक्शे की सवारी नियमित होती थी और अनुभव से सीखा था कि रिक्शे वाले से हमेशा तगड़े टाइप मोलभाव किया जाए तो ही वे उचित किराया लेने को तैयार होते हैं, अपने आप यदि उचित किराया दे दो तो अधिक की चाह में फैल जाते हैं। ऐसा नहीं है कि उनको नहीं पता होता कि उनको मिला किराया उचित है कि नहीं, लेकिन फिर भी फैल जाते हैं, कदाचित् यह समझ कि बंदा नया है और इसको मुर्गा बना लिया जाए (अंजान जगह ठगे जाने का भी अनुभव रहा है)।
अब कोई यह पढ़ मुझे चीप (cheap) समझे तो समझता रहे कि पाँच रूपए पर खामखा एक पोस्ट ठेल दी जबकि मेरा वक्त उससे कहीं अधिक कीमती होगा, लेकिन यह पर्सनल ब्लॉग है, जो मन में आएगा वही तो लिखेंगे ना! उस समय मन में चीपनेस (cheapness) नहीं वरन् ये विचार घूम रहे थे, और फिर हमार मर्ज़ी कि अपने ब्लॉग पर का ठेलें, ऊ हमका कौनो और थोड़े ही बतलाएगा! 😉
Comments