अस्वीकरण (disclaimer): इस ब्लॉगपोस्ट में मानव शारीरिक संबन्धों आदि के विषय पर विचार आदि प्रस्तुत किए गए हैं जो कि वयस्कों के लिए ही हैं। यदि आप अट्ठारह वर्ष की आयु से कम हैं तो अपने अभिभावक की अनुमति ले लें। इस पोस्ट के लेखक के तौर पर मेरी ज़िम्मेदारी इस चेतावनी को देने के पश्चात समाप्त हो जाती है, मैं मॉरल पुलिस (moral police) नहीं हूँ इसलिए कृपया अपने विवेक का प्रयोग करें।
समलैंगिक संबन्धों पर कानून का रवैया पिछले कुछ दिनों से काफ़ी गर्मी खा रहा था, परसों मामला निपट गया जब दिल्ली उच्च न्यायालय ने 149 वर्ष पुराने कानून को पलटते हुए फैसला सुना दिया कि समलैंगिक संबन्धों पर रोक लगाना सभी लोगों की समानता (equality) के लिए सही नहीं है इसलिए समलैंगिक संबन्ध भी जायज़ हैं (अंग्रेज़ी में यहाँ पढ़ें)। इस फ़ैसले से बहुत लोग प्रसन्न हैं, मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि कानून ने इस विषय में भेदभाव समाप्त किया और लोगों को अपने संबन्धों के बारे में स्वयं सोचने और निर्णय लेने के लिए थोड़ी स्वतंत्रता और दी।
ऐसा नहीं है कि इस फैसले पर हाय तौबा मचाने वाले नहीं हैं; जामा मस्जिद के इमाम और भारत में कैथोलिक चर्च के प्रवक्ता फादर डोमिनिक इम्मैनुअल ने इस फैसले पर आपत्ति जताते हुए कहा कि समलैंगिक संबन्ध अप्राकृतिक होते हैं और कानून इनकी हरी झंडी नहीं दे सकता। इस सब को पढ़ मैं यह सोचता हूँ कि क्यों इमाम साहब और पादरी साहब को यह बात समझ नहीं आती कि भारत मध्य-पूर्व (middle east) का कोई देश अथवा वैटिकन (Vatican) नहीं है जिसके कानून इस बात पर आधारित हैं कि ऑफिशियल धर्म क्या कहता है। भारत का कोई ऑफीशियल धर्म नहीं है, सभी व्यक्ति अपनी पसंद का धर्म चुनने के लिए स्वतंत्र हैं और ऐसे ही शारीरिक संबन्धों के मामले में स्वतंत्रता इस कानून के द्वारा दी जा रही है। किसी इमाम, किसी पादरी, किसी पुजारी को कोई अधिकार नहीं कि वह किसी व्यक्ति को बताए कि उसको किसके साथ सेक्स करना चाहिए और किसके साथ नहीं करना चाहिए।
जहाँ इस विषय पर एकाध जगह नज़र डाल रहा था वहीं पता चला कि एडल्ट्री (adultery), यानि कि विवाहित होने के बावजूद पर पुरुष/स्त्री से शारीरिक संबन्ध रखने, के मामले में कानून पुरुषों के खिलाफ़ और स्त्रियों के पक्ष में पक्षपात करता है। भारतीय कानून सहिंता (IPC ) का सेक्शन 497 एडल्ट्री (adultery) पर है जिसमें लिखा है कि यदि कोई पुरुष किसी ऐसी स्त्री के साथ शारीरिक संबन्ध रखता है जो कि किसी अन्य पुरुष की विवाहिता हो या फिर जिसके विवाहित होने का उसे अनुमान हो तो ऐसी स्थिति में वह पुरुष दंड का अधिकारी है। लेकिन स्त्रियों के विषय में यह कानून मौन है, यानि कि यदि कोई अविवाहित स्त्री किसी विवाहित पुरुष से शारीरिक संबन्ध रखती है तो वह दंड की अपराधी नहीं। इस विषय में विस्तार से अंग्रेज़ी में यहाँ पढ़ा जा सकता है। लिंक किए गए लेख में स्त्री अधिकारवादियों के हो-हल्ले को भी अंकित किया गया है लेकिन वह महज़ बकवास समझ नज़रअंदाज़ किया जा सकता है क्योंकि वे सिर्फ़ इस बात को लेकर हो-हल्ले में हैं कि इस कानून का अर्थ वे यह निकालते हैं कि पत्नी पति की संपदा है क्योंकि एडल्ट्री तभी होती है जब विवाहित स्त्री अपने पति की रज़ामंदी के बगैरह किसी अन्य पुरुष से संबन्ध रखती है। जैसा कि प्रायः होता है, इन स्त्री अधिकारवादियों ने इस बात को कन्वीनियंटली (conveniently) अनदेखा कर दिया कि कानून एडल्ट्री का ज़िम्मेदार पुरुष को ही ठहराता है स्त्री नहीं। तो समान अधिकार की बात का ढोंग करने वाले ये स्त्री अधिकारवादी समान दंड की माँग क्यों नहीं करते!! 🙄
ढोंग की बात करें तो इस विषय में टाइम्स ऑफ़ इंडिया में कोई ढाई वर्ष पहले यह खबर छपी थी जिसके अनुसार केन्द्रीय सरकार ने एक प्रस्ताव राष्ट्रीय महिला आयोग (National Commission for Women) को भेजा था जिसमें सुझाव था कि आईपीसी 497 (IPC 497) में सुधार लाया जाए ताकि विवाह के बाहर शारीरिक संबन्धों में लिप्त स्त्रियों का फ्री पास (free pass) रद्द कर उनको भी दंड का अधिकारी बनाया जाए। लेकिन जैसा कि अपेक्षित था, महिला आयोग ने वाहियात कारण वगैरह बताते हुए इस संशोधन को नकार दिया। जय हो फेमिनिज़्म (feminism) और फेमिनिस्टों (feminist) की, समान अधिकारों की बात करने वालों की। पत्नी पति को दबोच सकती है एडल्ट्री के लिए लेकिन पति पत्नी को चूं भी नहीं कह सकता, वाह!! 🙄
ठीक इसी प्रकार भारतीय कानून सहिंता के सेक्शन 498 के अनुसार यदि कोई विवाहित स्त्री किसी पर पुरुष पर मोहित होकर अपने पति को छोड़ देती है तो उस मामले में भी दंड का भोगी वह पर पुरुष है। लेकिन यदि कोई स्त्री किसी विवाहित पुरुष को लुभा के उसकी पत्नी से दूर कर देती है तो उस मन मोहिनी स्त्री के पास अपने लिंग (Gender) के कारण गैट आऊट ऑफ़ जेल फ्री कार्ड है, फ्री पास है, उस पर मुकदमा नहीं चल सकता, उसे सज़ा नहीं हो सकती। सेक्शन 498 के अनुसार:
Enticing or taking away or detaining with criminal intent a married woman.
Whoever takes or entices away any woman who is and whom he knows or has reason to believe to be the wife of any other man, from that man, or from any person having the care of her on behalf of that man, with intent that she may have illicit intercourse with any person, or conceals or detains with that intent any such women, shall be punished with imprisonment of either description for a term which may extend to two years, or with fine, or with both.
ये तो सिर्फ़ दो उदाहरण हैं जिनके बारे में मैंने कहीं ज़िक्र पढ़ा और गूगल पर थोड़ी खोजबीन के बाद मसौदा मिल गया पढ़ने के लिए कि ऐसा इन दो धाराओं में क्या लिखा है। मुझे पूरी आशा है कि और खोजबीन की जाए तो ऐसे और मामले में सामने आ जाएँगे जिनमें स्त्रियों को फ्री पास मिला हुआ है। और इधर स्त्री अधिकारवादी हर समय रोते रहते हैं कि समानता नहीं है। हाँ वाकई अनफेयर (unfair) है, समानता वाकई नहीं है, सागर मथने से सिर्फ़ अमृत नहीं निकला था, इसलिए सिर्फ़ अमृत की माँग मत करो, विष भी उसके साथ स्वीकार करना पड़ेगा, विषपान हमेशा महेश क्यों करें!!
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