कुकुर नामक जीव से मुझे बचपन से ही लगाव रहा है, कदाचित्‌ इसलिए कि छुटपन में दो कुत्तों का साथ रहा है – एक अम्मा (अपनी दादी जी को मैं यही कहता था) का पाला हुआ शैतान रॉकी था और एक नानी जी के यहाँ भोला (और कभी नटखट) शेरू। रॉकी के साथ मेरा अधिक समय नहीं बीता, और वह जल्दी ही चल बसा था लेकिन शेरू के साथ मैं काफ़ी खेला। छुट्टियों में जब अधिक समय के लिए नानी जी के घर जाना होता तो शाम को शेरू के साथ खेलना होता, छुट्टी का दिन होता तो सबसे छोटे वाले मामा जी (पूरे घर में उनको शेरू सबसे अधिक प्रिय था, लाए भी वे ही थे उसको जब वह छोटा सा पिल्ला था) भी बाग में साथ चलते और गेंद अथवा फ्रिसबी फेंक शेरू के साथ खेलते। सोसाइटी के सभी बच्चे (और बड़े भी) शेरू से डरते कि कहीं काट न ले (मिक्स्ड अलसेशियन जाती का था शेरू) और मैं उनके डर पर अचरज करता कि कितने डरपोक हैं, शेरू से डरने वाली कोई बात न थी, वह तो बहुत ही भोला था और यदि कोई अंजान व्यक्ति पास आता तो थोड़ा गुर्रा देता था मात्र चेतावनी के तौर पर। कितने ही बच्चों का डर मैंने भगाया जब उनको आराम से शेरू का सिर सहलाने देता, यह शेरू को बहुत पसंद था और वह इसका आनंद लेने के लिए सदैव तैयार रहता, जमीन पर पसर जाता अपनी मुंडी नीचे करके और पास में यदि कोई भी घर का व्यक्ति हो तो किसी से भी सिर सहलवा लेता। तेरह-चौदह वर्ष की आयु में जब शेरू चल बसा तो मुझे बहुत दुख हुआ था, मैं भी तब इतनी ही उम्र का था और ऐसा लगा था कि मानो एक प्यारा मित्र बिछड़ गया, प्यारा मित्र ही तो था शेरू!!

हमारा घर जिस गली में है उसमें दो कुकुर (एक नर और एक मादा) तथा दो पिल्ले वास करते हैं। इधर मोहल्ले में हर गली आदि में कम से कम एक कुकुर तो है ही, सबके इलाके बंटे हुए हैं। कुछ दिनों से सामने वाले दूसरे मोहल्ले से 2-3 कुकुरों का एक गुंडा दल इधर आने लगा है और इधर वाले कुकुर उनको देख हल्ला कर देते हैं। गली के मुहाने पर लगा द्वार बंद भी होगा और गुंडे कुकुर उसके बाहर भी होंगे तो भी अपने लोकल कुकुर भौंक-२ के आसमान सिर पर उठा लेते हैं। अपन शांतिप्रिय स्वभाव वाले हैं इसलिए बेवजह का हल्ला पसंद नहीं। और ये कुकुर तो दिन-रात कुछ देखते ही नहीं, हमारे घर के बाहर मोर्चा जमा के बैठ जाते हैं और सुबह 3 या 4 बजे ही मोर्चा खोल देते हैं, जैसे ही गुंडे कुकुर दिखाई दिए वैसे ही मोर्चा खुल जाता है!! उस समय बहुत गुस्सा आता है, मन करता है कि डंडे से जमकर इन नामुरादों की सेवा कर दी जाए, लेकिन अभी तक इस ख्याल को अंजाम देने के लिए मन नहीं माना। लोकल कुकुरों में अपना कुछ डर है इसलिए घर के बाहर की बत्ती जला उनको ज़ुबानी खड़का दो तो अपनी कीर्तन मंडली को लेकर भाग जाते हैं और बाकी की रात्रि चैन से कट जाती है!

आज सुबह-२ ऐसे ही घर से बाहर निकला तो अपनी गली का कुकुर और उसका पिल्ला नज़र आए, घर के बाहर ही विराजमान थे क्योंकि मेरी माता जी भी बाहर ही थी और वे आशा कर रहे थे कि आज तो समय से पहले उनको माता जी नाश्ता दे देंगी!! 😉 पिल्ले के चेहरे से जैसी मासूमियत टपक रही थी उसने मुझे शेरू की याद दिला दी। शेरू भी मुझको बिलकुल ऐसे ही मासूम भोली नज़र से देखता था! मन किया कि इस पिल्ले की फोटू ले ली जाए, तो झट से कैमरा निकाल मैं बाहर आया। मुझे कैमरे के साथ देखा तो पिल्ला अपनी पिछली टाँगों पर आराम से बैठ गया ताकि मैं उसका पोर्ट्रेट ले सकूँ। भोली नज़र है पिल्ले की लेकिन है समझदार, अपने आप ही पोज़ बना लिया फोटू खिंचवाने के लिए! 🙂 और मैं सोच रहा था कि रात को यही कमबख्त पिल्ला सबसे तेज़ भौंक के रात्रि की शांति भंग करेगा और मैं उसको पुनः गलियाऊँगा!!