परसों रात्रि कुछ समय मिला तो सोचा कि कुछ ब्लॉगों पर नज़र डाल ली जाए। ठंड थोड़ी बढ़ गई थी तो रजाई छोड़ने का मन नहीं हुआ, इसलिए मोबाईल पर ही नारद खोला और उपलब्ध 150 पोस्ट में देखने लगा कि कहाँ क्या छपा है। 28 तारीख को संपन्न हुए हिन्द युग्म के वार्षिकोत्सव में गए कुछ लोगों ने अपनी आशाओं और निराशाओं को पिरोकर अपने-२ अड्डों पर पोस्ट आदि ठेली तो थोड़ा उनको भी पढ़ा। यह बात सामने आई कि कुछ लोगों को इस बात से बुरा लगा कि सभा में पधारे खास अतिथि बोलते समय बीच-२ में अंग्रेज़ी क्यों बोल रहे थे!!

इसी बात से मेरा ध्यान कुछ समय पहले पढ़ी गई कुछ ब्लॉग पोस्टों की ओर गया जिनमें ब्लॉग वीरों ने कुछ ऐसी ही आपत्तियाँ कुछ अन्य लोगों और ब्लॉगरों के संदर्भ में व्यक्त की थीं और ऐसे दुष्कर्मों से हिन्दी के अपमानित होने की घोषणा की थी। मुझे यह बात समझ नहीं आई कि क्यों इन महानुभावों के अनुसार अंग्रेज़ी विरोध के बिना हिन्दी प्रचार संभव नहीं है!! यदि किसी दूसरी भाषा को नीचा दिखाए बिना हमारी भाषा आगे नहीं बढ़ सकती तो ऐसा मानने वालों को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए और इस बात से संतोष करना चाहिए कि हमारी भाषा आगे जाने लायक ही नहीं है क्योंकि यदि वह श्रेष्ठ है तो बिना किसी को नीचा दिखाए भी आगे बढ़ सकती है। अब बात आपत्ति की करें तो मुझे यह भी समझ नहीं आता कि हिन्दी में चार शब्द अंग्रेज़ी के प्रयोग होने पर बिलबिला उठने वाले लोग धड़ल्ले से उर्दू के शब्दों का प्रयोग अपनी हिन्दी में क्यों करते हैं? क्या वह उचित हिन्दी है? क्या उससे हिन्दी का अपमान नहीं होता?

ऐसे ही हिन्दी के उचित रूप से प्रयोग करने की वकालत करते लोगों को पढ़ता हूँ तो अधिकतर ऐसी ब्लॉग पोस्टों में व्याकरण की त्रुटियाँ आँखों के सामने भौंडा नृत्य करती हैं। व्याकरण की तो छोड़ो, वर्तनी की ऐसी गलतियाँ होती हैं कि यदि यह स्कूल में पाँचवीं कक्षा के बाद रही मेरी कोई भी हिन्दी अध्यापिका देख लें तो हकबकाए बिना न रह पाएँगी कि ऐसी वर्तनी स्कूल कॉलेज पास किए उन व्यस्कों की है जो हिन्दी के ऐसे उचित प्रयोग की वकालत कर रहे हैं!! तौबा!! ऐसे लोगों को तो पहली हिदायत यही दी जा सकती है कि मोहतरम/मोहतरमा, कृपया पहले अपनी हिन्दी तो सुधारिए उसके बाद ही किसी अन्य को हिन्दी सुधारने को कहिएगा!! लेकिन ऐसी हिदायतें मैं नहीं देता, तो इसलिए मैं नहीं दूँगा, मैं कोई हिन्दी का अध्यापक नहीं और ऐसे लोग शिष्य नहीं, जिसको अपनी त्रुटियाँ सुधारनी है वह अपने आप सुधारे!!

ऐसी ब्लॉग पोस्ट पढ़ सिवाय हंसी के कुछ नहीं आता, लेख मनोरंजक लगते हैं, पढ़ लेते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। किसी का मज़ाक उड़ाने से क्या लाभ, और वह भी ऐसे मामले में!! गिनाने वाले मेरी त्रुटियाँ गिना सकते हैं, अवश्य गिनाएँ (यदि मिले तो) और मैं सुधार कर लूँगा, लेकिन मैं फिर भी हिन्दी वकालत का ऐसा ढोल नहीं पीटूँगा क्योंकि मेरे अनुसार ऐसे हिन्दी का अपमान नहीं होता। हिन्दी का या किसी अन्य भाषा का मान कोई बेसन का लड्डू नहीं है कि कोई भी आया और आराम से गप्प कर गया। बेसन का लड्डू यहाँ इसलिए कहा कि लड्डुओं में यह मुझे खासा पसंद है। 😉 वैसे पसंद तो आटे का लड्डू भी है लेकिन दोनों में से एक चुनने का विकल्प हो तो रुझान बेसन के लड्डू की ओर होगा। आप अपनी पसंद के किसी अन्य लड्डू की यहाँ कल्पना कर सकते हैं यदि बेसन का लड्डू आपको पसंद नहीं है!!

वहीं थोड़ा और पढ़ा तो पता चला कि लोगों को हिन्द युग्म के वार्षिकोत्सव में खास अतिथि रहे राजेन्द्र यादव के सिगार पीने से भी तकलीफ़ हो गई कि भई ऐसा क्यों!! अमां उनका सिगार है, सभा का ऐसा कोई नियम न होगा कि धूम्रपान करना निषेध है तो आपको क्यों तकलीफ़ है कि वे सिगार पी रहे थे? वे ५०२ पताका बीड़ी फूँक रहे होते तो वह ठीक रहता?? या देशी इश्टाईल में हुक्का गुड़गुड़ा रहे होते तो वह ठीक रहता? कदाचित्‌….. कौन जाने किसी के मन की बात, मैं अंतर्यामी होने का कोई दावा नहीं करता!! वैसे निजी तौर पर धूम्रपान मुझे नापसंद है चाहे किसी भी रूप में हो। मैं नहीं जानता कि राजेन्द्र यादव कौन हैं इसलिए न ही उनसे कोई लगाव है और न ही कोई घृणा, लेकिन मुझे यह समझ नहीं आया कि क्यों कुछ हिन्दी वकालत करने वालों को सिगार नागवार लगा? लिखने के लहज़े से तो यही लगा कि सिगार इसलिए नागवार लगा क्योंकि कदाचित्‌ वह रईसी का प्रतीक है!! सिगार प्रायः बड़ी हैसियत के लोग फूँकते हैं और ये विदेशी होते हैं। तो क्या यह विरोध इसलिए था?? और क्या इसी कारण हिन्दी का अपमान हो गया? साहित्य का अपमान हो गया? कलाकारों का अपमान हो गया? यदि वह सिगरेट होती तो विरोध न होता?

सिगरेट में भी कई विदेशी प्रीमियम क्वालिटी ब्रांड हैं जैसे क्रेवन ए (Craven A), कैमल (Camel), रिचमंड (Richmond), लक्की स्ट्राईक (Lucky Strike), रोथमैन्स (Rothmans), बेनसन एण्ड हेजिस (Benson and Hedges), डेविडोफ़ (Davidoff) आदि लेकिन कदाचित्‌ अनाड़ी व्यक्ति ब्रांड को दूर से भांप नहीं पाता तो इसलिए सिगरेट तो प्रायः सभी समान ही लगती हैं, चाहे देशी हो या विदेशी, सस्ती हो या महँगी!! 😉 लेकिन सिगार (cigar) तो प्रायः दूर से ही पहचाना जाता है क्योंकि सिगार प्रायः मोटा होता है, पतले सिगारों का इतना चलन नहीं है क्योंकि वह एक स्पेशलटी (speciality) आईटम है जो हर सिगार प्रेमी को पसंद नहीं आती!! जबकि मिलने को तो यह पतले सिगार अधिक आसानी से मिल जाते हैं यदि दिल्ली के संदर्भ में कहूँ तो, किसी भी भारत पेट्रोलियम के पेट्रोल पंप पर स्थित इन एण्ड आऊट स्टोर में सस्ती ब्रांड वाले सिगरेट के साइज़ के पतले विदेशी सिगार का पैकेट दो-ढाई सौ रूपए में मिल जाएगा!!

अब बात यूँ है कि सिगरेट चाहे कितनी भी महंगी क्यों न हो, सभा आदि में प्रतिष्ठित व्यक्ति उसको फूँकना इसलिए भी पसंद नहीं करते क्योंकि वह चीप (cheap) लगती है, जो चार्म (charm) सिगार में है वह सिगरेट में नहीं है ऐसा कुछ धूम्रपान करने वालों का मानना है जिनमें मेरे कुछ मित्र भी शामिल हैं!! लेकिन हो सकता है कि राजेन्द्र यादव सिगार प्रेमी हों और सिगार ही फूँकते हों, किसी अन्य का उससे कैसे और क्योंकर अपमान होता है यह मैं नहीं जानता!!

मसिजीवी इस मामले में साफ़ सुथरी पोस्ट ठेले हैं। पिछले कुछ समय से वे हाई फाई लेखन करने लगे हैं, जो लिखते हैं वह मेरे जैसे कमअक्ल के सिर के ऊपर से गुज़र जाता है, लेकिन फिर भी प्रयास जारी है कि समझने की पुरजोर कोशिश की जाती है कि क्या लिखे हैं, ठीक वैसे ही जैसे अनूप जी को समझने की कोशिश करता हूँ। 🙂 इस प्रकरण में मसिजीवी कदाचित्‌ किन्हीं पुराने मामलों के रेफ़रेन्स में भी लिखे थे कुछ पात्रों के बारे में तो उन मामलों से अनभिज्ञ होने के कारण भी कदाचित्‌ उनका लिखा पूर्णतया समझ नहीं आया, वह सब अगली बार समय मिलने पर देखा जाएगा।