….. कटा नहीं – “कथा”, सोच समझ के पढ़िएगा, पुराण नहीं है!! इसलिए बाँचने के लिए भी कुछ अधिक मसौदा नहीं है। वो तो अनूप जी अपने बड्डे का हाल बतलाए कि क्या साजिश वगैरह हुई और कैसे वो जेब ढीली करने से बचे तो लगे हाथ मैंने पूछ लिया कि ये मोबाइल की साजिश क्या कनपुरियों में ही होती है (क्योंकि जीतू भाई के साथ भी हुई इसी महीने) या फिर यह सितंबरी लालाओं के साथ ही होता है। अब यदि कनपुरियों की बात है तो अपन इतने नहीं टेन्शनियाते लेकिन यदि सितंबरी लालाओं पर ही यह मार पड़ती है तो अपना टेन्शनियाना जायज़ है क्योंकि इन्हीं दोनों महानुभावों की ही भांति अपन भी सितंबरी लाल हैं। वैसे यदि अपने साथ साजिश होती तो मोबाइल की न होती, अपना हाल तो यूँ है कि यदि दो-तीन साल में नया मोबाइल फोन ले भी लिया जाए तो माता जी हड़का देती हैं कि काहे खामखा फिजूल खर्च किया जब पुराने मोबाइल पर कॉल सही तरीके से आ जा रही थी!! 😉
वैसे एक रोचक बात यह देखने वाली है कि जीतू भाई, अनूप जी और मेरे जन्मदिन लगातार तीन सप्ताह में एक के बाद एक आते ही हैं, साथ ही सप्ताह के एक ही दिन भी पड़ते हैं, यानि कि ठीक सात-२ दिन के अंतराल के बाद। तो यदि जीतू भाई का जन्मदिन बुधवार को पड़ेगा तो अनूप जी का भी बुधवार को पड़ेगा और मेरा भी बुधवार को ही पड़ेगा, हा हा हा!! 😀
खैर, तो अनूप जी अपने प्रश्न को तो टाल गए, बोले रूपा बनियान के माफ़िक यह भी अंदर की बात है, तुमको न बताएँगे!! और साथ में पूछ लिए कि अपने बारे में बताओ बड्डे कैसा कटा तो अपन सोचे कि चलो एक पोस्ट इसी पर ठेल देते हैं। अब जैसा कि पहले भी बयान किया, आजकल अपनी ट्यूब खाली है, भरने की प्रतीक्षा है और इसी कारण बड़बड़ाने के लिए मसौदा नहीं मिलता है। तो अब यदि कोई चीज़ अपने आप ही चलकर पास आ जाए और बड़बड़ाने का मौका दे तो उस मौके को छोड़ना बहुत ज़ालिमाना स्वभाव हो जाएगा, इसलिए अपन भी थाम लिए दोनों हाथों और पैरों से पकड़कर, कि अब तो बड़बड़ा के ही रहेंगे, चाहे बड़बड़ाने के लिए कुछ गर्म मसाला और चंकी चाट मसाला न हो, चाहे नमक मिर्च से ही काम चलाना पड़े, लेकिन बड़बड़ाएँगे अवश्य, आखिर इस ब्लॉग पर सबसे अधिक बड़बड़ाए ही हैं तो क्या इज़्ज़त रह जाएगी यदि स्वयं ही चलकर आए मौके को छोड़ दिया जाए!! 😀
हाँ तो अपने बड्डे के बारे में बाँचने के लिए कुछ अधिक नहीं है, साधारण ही दिन बीतता है। सिल्वर जुबली पिछली बार मना लिए थे और इस बार गोल्डन जुबली के लिए लाईन में लग गए हैं। अनूप जी तो बता ही चुके हैं कि वे माशाल्लाह किला फतह करने के निकट हैं, 2013 में वो किला फतह कर लेंगे!! 😀
इधर रात को बारह बजने में आधा घंटा बाकी था, यानि कि ऑफिशियल बड्डे वाला दिन आने में समय था उधर एक अनजान नंबर से फुनवा आया और पूछा गया कि क्या अमित बोल रहे हैं। मैंने उत्तर दिया कि जी हाँ हम ही बोल रहे हैं तो फिर दूसरा प्रश्न पूछा गया कि क्या कल आपका जन्मदिन है। अब मुझे आश्चर्य हुआ कि भई नंबर पहचाना हुआ नहीं है, न ही आवाज़ पहचानी हुई और ये जनाब हमारा जन्मदिन जानते हैं। मैंने पूछा तो नाम सिर्फ़ “पाबला” बताया गया, एक बार को तो दिमाग में आया ही नहीं कि कौन साहब हैं लेकिन फिर कुछ और बात करने पर दिमाग में घंटी बजी कि ये हिन्दी ब्लॉगजगत के श्री बी.एस.पाबला हैं। वे बोले कि मेरे जन्मदिन की शुभकामना देती ब्लॉग पोस्ट लिख लिए हैं लेकिन एक बार कन्फर्म करना बेहतर जाना कि पता तो कर लें कि जन्मदिन कल ही है कि नहीं। मैंने कन्फर्म किया और उन्होंने अग्रिम ही शुभकामनाएँ दे दीं और भविष्य में संपर्क बनाए रखने की बात के साथ वह वार्तालाप समाप्त हुआ। इधर बारह बजे और उधर फेसबुक, ईमेल, मोबाइल लघु संदेश आदि द्वारा मित्रों और परिचितों की शुभकामनाएँ आनी शुरु हो गई।
जन्मदिन अपने यहाँ कोई खास तरीके से नहीं मनाया जाता। बचपन में अवश्य शौक रहा करता था कि अपना जन्मदिन मनाया जाए, लेकिन अम्मा (अपनी दादी जी को मैं और चचेरे भाई यही कहकर संबोधित किया करते थे) ने मना कर रखा था कि अपने यहाँ लड़कों के जन्मदिन नहीं मनाए जाते। तो माता जी मेरा मन रखने के लिए जन्मदिन से पहले दिन टॉफ़ियाँ और पेन्सिल दिलवा देती थीं कि अगले दिन क्लास में सहपाठियों को वह बाँट के बड्डे मना लिया जाए और शाम को घर पर फैमिली डिनर हो जाया करता था जिसमें सभी मामा-मामियाँ और मौसी की शिरकत हो जाया करती थी और अपन भी खुश हो जाते थे कि अपना बड्डे सेलीब्रेट हो गया। चूंकि बड्डे नहीं मनाया जाता इसलिए केक काटने का भी रिवाज़ नहीं, माता जी उसकी जगह सूजी का हलवा बना दिया करती थीं (आटे का हलवा भी अपने को पसंद है लेकिन सूजी का हलवा अधिक पसंद है)।
जब बड़े हो गए तो यह चलन भी धीरे-२ कम होता गया, क्लास में टॉफ़ियाँ बांटना बंद हुआ, कुछ खास मित्रों को कैन्टीन ले जाकर वहाँ समोसे ब्रेड-पकौड़े और पेप्सी की दावत दे दी जाती थी। इसके लिए माता जी अलग से पैसे नहीं देती थीं, अपनी ही जेब से रोकड़ा देना पड़ता था। वह बात अलग है कि बाद में मौका देख पिता जी से वसूली की जाती थी। 😀
पर एक चीज़ जो बचपन से कायम है वह यह कि माता जी मेरे हर जन्मदिन पर मंदिर में ले जाकर पंडित जी द्वारा पूजा करवाती हैं। अब पूजा अर्चना में अपनी ऐसी कोई आस्था है नहीं, जब ईश्वर में ही नहीं है तो ज़ाहिर है कि ईश्वर अर्चना में भी नहीं होगी। लेकिन माता जी का मन रखने के लिए चला जाता हूँ कि यदि इससे उनके मन को शांति मिलती है तो अपने को कोई दिक्कत नहीं क्योंकि अपना कोई नुकसान तो हो नहीं रहा।
तो इस बार का भी बड्डे एज़ यूज़युअल साधारण दिन ही की भांति बीता; मित्रों, परिचितों और परिवार वालों से शुभकामनाएँ और आशीष मिले, मन्दिर में जाकर पूजा करवाई गई और शाम को हर जन्मदिन की भांति पूरी छोले और खीर का भोग लगाया गया।
कॉलेज के समय से ही मेरी कुछ ऐसी प्रवृत्ति हो गई कि जन्मदिन वाले दिवस मैं एकांत और शांत रहना पसंद करता हूँ, कहीं आना जाना नहीं और न ही परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त किसी से मिलना जुलना। यार-दोस्त यदि दावत की फरमाईश करते हैं तो अगले दिन या आने वाले सप्ताहांत पर उनको दावत दे दी जाती है, जन्मदिन पर नहीं। ऐसा स्वभाव क्यों हुआ इसका कारण मुझे नहीं पता लेकिन ऐसा ही मन को अच्छा लगता है, वर्ष में एक शांत दिन गारंटी के साथ। :tup:
हलवे की फोटो साभार mtsn, क्रिएटिव कॉमन्स लाइसेन्स (Creative Commons License) के अंतर्गत
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