चार महीने होने को आए हैं, एक अनजान शहर में बोरिया बिस्तर उठा के चले आए, कदाचित् किसी सपने की तलाश में या फिर कुछ पाने की चाहत में। मैं नहीं जानता वह ड्राईविंग फोर्स क्या थी जिसने दिल्ली छोड़ कर आने के विचार को मन में बिठाया, मन को मनाया और फिर माँ को भी मनाया। माँ का मन नहीं था कि मैं जाऊँ, कैसे होता, कभी घर से बाहर रहा नहीं इस तरह, सदैव माँ के आँचल की छाँव रही है, सारा दिन या एक से अधिक दिन भी इधर-उधर भटक आता तो भी यह तसल्ली रहती थी कि शाम को घर पहुँच ही जाऊँगा। सबसे अधिक दिन घर से दूर १० दिन के लिए जब हंगरी गया था तब रहा था।
पिछले ऑफ़िस में आखिरी दिन; पता तो सभी को पहले से था कि मैं जा रहा हूँ, मुझे भी पता था कि फलाना दिन मेरा यहाँ आखिरी दिन होगा लेकिन उस अंतिम दिन बात ही कुछ अलग थी। टीम के सहकर्मी जो न जाने कब मित्र बन गए थे, उनको अलविदा कहते हुए बहुत अजीब सा लगा। साल भर पहले ही तो यहाँ आना हुआ था, यह समय कैसे बीत गया पता ही नहीं चला था। लैपटॉप आईटी विभाग में वापस कर प्रबंधन विभाग के मैनेजर को अपना एक्सेस कार्ड वापस लौटाना, जाने से पहले का उससे वार्तालाप और हाथ मिलाना, वापस अपनी डेस्क पर जाकर सामान समेटना, प्रोजेक्ट मैनेजमेन्ट टीम और क्यू-ए टीम के लोगों से हाथ मिला के अलविदा कहना, मेरी टीम के लोगों का नीचे तक छोड़ने आना, दो साथियों का आधे रास्ते तक साथ आना और बलगीर हो अलविदा कहना – मानो सब एक स्लो मोशन की रील की भांति चला। कदाचित् यही ह्यूमन इंटरेक्शन होता है, हम किसी से मिलते हैं तो उस समय के हमारे भाव दूसरे पर अपनी छाप छोड़ते हैं और दूसरे के भाव हम पर अपनी छाप छोड़ते हैं। वर्चुअल टीम में ऐसा नहीं होता, वहाँ पर्सनल लेवल पर इंटरेक्शन नहीं होता तो इसलिए कोई आता है या जाता है तो ऐसा महसूस नहीं होता।
और फिर ये एहसास वहीं तक नहीं रुके। नए शहर में आना, नए ऑफिस में जाना, नए लोगों से मिलना, फिर वही अजीब से भावों की बाढ़ का आना जो नई नौकरी नए ऑफिस के साथ आती है, धीरे-२ काम देखना शुरु करना और काम में रम जाना, रहने के ठिकाने का इंतज़ाम करना और नए ठिकाने पर पहली रात नींद का न आना, अगले दिन सुबह दिल्ली से मित्र का आ जाना और घर का मामला सैट कराना, दो दिन बाद उसका चले जाना और फिर वही खाली सी फीलिंग का लौट आना, रोज़ाना रात को माँ के फोन की प्रतीक्षा करना और माँ की आवाज़ सुन अकेले न होने की तसल्ली पाना, १२-१३ घंटे भी ऑफिस में रहकर यह सोच संतोष करना कि कम से कम घर पर बोरियत नहीं होगी जाकर बस सोना भर ही होगा।
और जब इन भावनाओं का शोर थोड़ा कम हुआ तो आस पास के माहौल पर पुनः एक दृष्टि डाली, पाया कि यह माहौल जाना पहचाना सा ही है, अलग है फिर भी अलग नहीं है। और ऐसे ही इस माहौल में मन रम गया, सबसे अच्छी बात यह कि दिल्ली दूर नहीं है, बस चार घंटे में घर। 🙂
चार महीने बाद अब मैं इस सब पर पुनः नज़र डालता हूँ तो एहसास होता है कि जो हुआ अच्छा ही हुआ, एक नए प्रकार का अनुभव हुआ, कई नई चीज़ों का पता चला। मैं जब भी वापस जाऊँगा यह अनुभव मेरे साथ रहेगा, इससे जो सीखने को अब तक मिला है और आगे जो मिलेगा वह जीवन में मार्गदर्शक रहेगा। आखिर वह मनुष्य ही क्या जो अपने अनुभवों से न सीखे और कुछ चीज़ें होती हैं जो अनुभव से ही सीखी जा सकती हैं।
फोटो साभार Leonard John Matthews, क्रिएटिव कॉमन्स लाइसेन्स (Creative Commons License) के अंतर्गत
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