नोट : मेरा उद्देश्य यहाँ किसी का उपहास करना नहीं है, केवल विचार प्रकट करना और ज्ञान बाँचना मात्र है।
मूर्खों की जाति बहुत पुरानी जाति है, कह सकते हैं कि बाबा आदम के ज़माने से चली आ रही वंशावली है। लोग कहते हैं कि चंद्रवंशी सम्राट भरत पहले राजा थे जिन्होंने इस बात को तरजीह दी कि योग्य व्यक्ति को राजा बनना चाहिए, राजा के अयोग्य पुत्र को सिर्फ़ इसलिए राजा नहीं बनाना चाहिए क्योंकि वह राजा का पुत्र है। पर यह प्रथा उनके बाद उनके वंश में बहुत आगे नहीं चली। राजा प्रतीप के बाद शंतनु को सिंहासन इसलिए मिला क्योंकि बड़े भाई ने कोढ़ी होने के कारण सन्यास ले लिया था और मझले को राज्य करने में कोई रुचि नहीं थी (इससे पहले भी यह चलन शुरु हो गया होगा लेकिन मुझे कहीं संदर्भ मिला नहीं)।
लेकिन शंतनु से चली आ रही कड़ी पूर्णतया लाइमलाईट में है (अरे भई रोशनी में है, हज़ार वॉट वाले चार बल्ब समान)। शंतनु ने कितने ही सद्कर्म किये हों, कितना ही ठीक से राज-काज संभाला हो, वो कहते हैं न कि कभी-२ एक गलती भी बहुत भारी पड़ जाती है। तो यदि हम किसी को आंकते हैं तो किन्हीं गिने-चुने लम्हों से नहीं आंकते वरन् पूरे जीवन के कर्मों के आधार पर आंका जाता है (ठीक वैसे ही जैसे यमराज के ऑफिस में चित्रगुप्त पूरा बही-खाता लिए जीवन की हरकतों को ऑडिट करते हैं)।
तो शंतनु की करी गड़बड़ के कारण योग्य देवव्रत हुए गद्दी से दूर और ऐसे शिशु को राजा बनाना स्वीकार हुआ जो कि अभी पैदा भी नहीं हुआ था, आखिर भई ठरक की कुछ तो कीमत अदा करनी ही पड़ती है। शंतनु के बाद राजा बने चित्रांगद क्योंकि सत्यवति के ज्येष्ठ पुत्र वही थे परन्तु गंधर्व राज चित्रांगद से द्वंद्व युद्ध में मारे गए और विचित्रवीर्य गद्दीनशीन हुए। संतान तो विचित्रवीर्य की हुई नहीं, जुगाड़ लगाकर धृतराष्ट्र और पाण्डु पैदा हुए जिनके समय पर विदुर ने योग्य शासक तो बनवा दिया अन्यथा भीष्म के चलते धृतराष्ट्र ने ही राजा बनना था। उसके बाद की कहानी सबको मालूम ही है, राजा का पुत्र राजा और उसको लेकर खामखा का झगड़ा, ब्लड-बॉथ इत्यादि!!
लो, हम तो पुराण बाँचने बैठ गए। बहरहाल, हम मूर्खो की बात कर रहे थे। तो जनाब बात यह है कि सम्राट भरत के रैडिकल निर्णय से पहले से एक जमात ऐसी चली आ रही है जहाँ योग्यता के बल पर एण्ट्री मिलती है। पुरातन काल में पण्डित उसको कहते थे जो महा-ज्ञानी हो, अपने विषय में मास्टर हो – जो कि प्रायः ब्राह्मण होते थे, लेकिन फिर समय बदला और पण्डित जात बन गई, पण्डित बाप है तो ऑटोमैटिकली उसका बेटा भी पण्डित हो गया चाहे अक्ल के मामले में दोनो ऐसे हों जैसे सौन्दर्य के मामले में मोगैम्बो! 😀
तो कहना यह होगा कि विद्वान पण्डित आदि भी वंश के दंश से दूर न रह पाए, ऐसा ही होता है, समझदार लोग ही इस तरह के हमलों में पहली कैय्जुअल्टी होते हैं। 😀 लेकिन मूर्ख समुदाय आज भी उसी परंपरा पर चला आ रहा है, सैकड़ों सदियाँ बीत गई लेकिन आज भी मेम्बरशिप के लिए आपको मूर्खता सिद्ध करनी पड़ती है क्योंकि योग्यता ही एकमात्र प्रमाण है कि आप अन्य मेम्बरान जैसी काबिलियत रखते हैं और समय आने पर आप कुल का नाम नीचा नहीं होने देंगे। यहाँ पर बाप-बेटा वाद नहीं चलता, यहाँ न कोई धृतराष्ट्र मिलेगा और न ही कोई दुर्योधन।
मूर्ख समुदाय में एक अलग बात यह भी है कि यहाँ भिन्न-२ प्रकार के मूर्ख तो होते ही हैं लेकिन यहाँ पर गोत्रवाद आदि नहीं है। ऐसा नहीं है गर्ग गर्ग रहेंगे और गोयल गोयल ही रहेंगे, कहार कहार रहेंगे और खत्री खत्री रहेंगे। यहाँ पर व्यक्ति के एक से अधिक गोत्र हो सकते हैं क्योंकि वे वंश के परिचय-सूचक नहीं होते वरन् योग्यताओं के सूचक होते हैं। तो व्यक्ति यदि टाइप ए प्रकार की मूर्खता करता है तो वह ए टाइप मूर्ख हुआ लेकिन यदि वह टाइप बी प्रकार की मूर्खता भी करके दिखा देता है तो बी टाइप का तमगा भी उसको मिल जाता है। यह ठीक वैसा ही है जैसे पुरातन काल में एक वेद को पढ़ने वाला वेदी कहलाता था, दो को पढ़ने वाला द्विवेदी, तीन जिसने पढ़ा वह त्रिवेदी और चारों जिसने पढ़े वह चतुर्वेदी। हालांकि बाद में तो वे मात्र सरनेम बनकर रह गए, बेटे ने चाहे एक भी वेद न पढ़ा हो लेकिन पप्पा ने चारों बाँच रखे हैं तो ऑटोमैटिकली वह चारों वेद का ज्ञाता मान लिया जाता। ठीक वैसे ही जैसे स्कूल के अध्यापक यदि मास्टर हैं तो बीवी ऑटोमैटिकली मास्टरनी हो जाती है, चौकीदार की बीवी चौकीदारनी हो जाती है!! 😀
बहरहाल, मूर्ख अलग-२ प्रकार के होते हैं, भिन्न-२ योग्यताओं का उनमें वास होता है। कुछ मूर्ख एक ही प्रकार के होते हैं और कुछ मूर्ख मल्टी-टैलेन्ट, मल्टी डिमेन्शनल होते हैं! मूर्ख समुदाय की मेम्बरशिप लेना कम्पलसरी नहीं है, बहुत से मूर्खों को तो यही नहीं पता होता कि वे मूर्ख हैं और बहुत से मूर्ख यह मानने को तैयार नहीं होते कि वे मूर्ख हैं। कई मूर्ख ऐसे भी होते हैं जिनको ज्ञात होता है कि वे मूर्ख हैं लेकिन वे इस छलावे में जीना चाहते हैं कि वे मूर्ख नहीं हैं, ठीक वैसे ही जैसे कुछ फक्क्ड़ इस छलावे में जीते हैं कि वे कितने रईस हैं। अब इस प्रकार के मूर्ख प्रायः ज्ञानियों का वेष धारण किए मिल जाते हैं, ठीक वैसे ही चोर-ठग साधुओं का वेष धारण कर लेते हैं, ताकि कोई उनको पहचान न सके। साधु बने चोर-ठग दूसरों को मूर्ख बना अपना काम निकालते हैं और ज्ञानी बने मूर्ख अपने आप और अपने जात भाईयों/बहनों को मूर्ख बनाते हैं कि वे कितने ज्ञानी हैं!! क्यों? अरे ज्ञानी तो तुरंत ऐसे मूर्खों को पहचान ही जाते हैं। शेर की खाल ओढ़ कर गधा बाकी जानवरों को चाहे मूर्ख बना ले लेकिन शेर के झुण्ड में घुसेगा तो तुरंत पकड़ा जाएगा कि नहीं?!! और फिर शेर तो आजकल वैसे भी बहुत कम रह गए हैं इसलिए वे लोग भी अपने यूनीक आईडी कार्ड डीएनए प्रिंट के साथ अपने पास रखते हैं ताकि पहचान करने में किसी को कोई दिक्कत न हो!!
हम्म….. वक्त बहुत बीत गया है, अब नींद आ रही है, तो इस विषय को फिर कभी आगे बढ़ाया जाएगा!!
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