जिसको पता चला वो ज़रा हैरानी जताते हुए पूछता है – “अच्छा लद्दाख हो आए?!”, और मैं शांतिपूर्वक उत्तर देता हूँ – “हाँ हो आए”। लेकिन मन में भीतर एक हलचल होती है, हैरानी भी होती है कि दूसरा व्यक्ति इस रहस्योद्घाटन से इतना हैरान क्यों है? ऐसा तो नहीं कि मैं चाँद पर होकर आया हूँ या टिम्बकटू की सैर निपटा के आया हूँ। चचा बतोले की भांति यह भी मैं नहीं कहता कि बस जॉगिंग करते-२ वहाँ पहुँच गया था और एकाध घंटे में लौट आया!! मानो लद्दाख न हुआ हव्वा हो गया, कश्मीर-श्रीनगर बोलता तो लोगों को इतना आश्चर्य न होता!
जैसा कि मेरे साथ प्रायः होता है, यह मामला भी एकाएक ही बना। एक मित्र नए-२ पप्पा बने दो-तीन महीने पहले, हमने पार्टी वगैरह को बोला था तो उसने पिछले महीने गुड़गाँव में अपने बंगले पर माता की चौकी और डिनर का कार्यक्रम रखा था। तरूण भी जा रहा था तो उसको मैंने बोला कि मेरे घर ही आ जाए और यहीं से साथ ही चलेंगे। तो बस वहीं से हम लोग रात को लौट रहे थे और तरूण ने पूछा – “लद्दाख चलोगे?”, और मैं सोच में पड़ गया, मन ही मन ऑफिस के कार्य आदि की इंवेन्टरी करी कि क्या चल रहा है कितना बाकी है आदि। सब मामला ठीक सा लगा तो मैंने तुरंत ही उत्तर दे दिया कि चल लेंगे लेकिन ज़्यादा दिन नहीं, सिर्फ़ चार दिन खर्च कर सकते हैं, दो सप्ताहांत के और दो छुट्टी ले लेंगे। मुझे पता है कि समय नाकाफ़ी है लेकिन फिलहाल इतना ही हो सकता है, टूरिस्ट की भांति नहीं जाएँगे, शहर और काम-धंधे की चिल्लपों से दूर कुछ दिन आराम करने के लिए, ठंडे मौसम के लिए, हवा-पानी बदलने के लिए जाएँगे। तरूण तैयार, अगले दिन फ्लाईट आदि देखी कौन सी उपलब्ध है और टिकट कर दी बुक। उधर तरूण क्योंकि जानकार बंदा है इसलिए उसको होटल आदि का काम सौंपा, टूर गाईड उसी को बनना था। शाम होते-२ तरूण का एक मित्र भी तैयार।
शुक्रवार सुबह पाँच बजे की जेट की फ्लाईट थी। तो बृहस्पतिवार की रात अपन ऑफिस का काम निपटाए, अमरीका में बैठे बॉस ने सावधान किया कि भई ध्यान से रहना कहीं यति वगैरह से न टकरा जाओ, तो मैंने कहा कि टेन्शन न लो यदि यति मिला तो ऑटोग्राफ़्ड फोटो ले लूँगा। 😀 नियत समय पर अपनी टैक्सी आ गई और अपन सामान उठा के उसमें लद गए और वह टर्मिनल-३ की ओर बढ़ चली। ड्राईवर बातूनी था और सारा रास्ता कुछ न कुछ बताता रहा, मैं सारा दिन काम करके दिमागी रूप से थोड़ा थक गया था, सोचा था कि पैंतालिस मिनट में कुछ बैट्री री-चार्ज की जाएगी, तो इसलिए हूँ-हाँ करता रहा कि बंदे को बुरा न लगे लेकिन अधिकतर चुप ही रहा और उसकी बातें सुनता रहा। हवाई अड्डे पर पहुँचा, जैसे ही द्वार पर सिक्योरिटी को पार कर अंदर घुसा काफ़ी ज़ोर से किसी के चिल्लाने की आवाज़ आई। आवाज़ उस तरफ़ से आ रही थी जिधर जेट के काऊँटर थे, सोचा देखा जाए क्या हुआ। पहुँच के देखा कि एयर इण्डिया के काऊँटर वाली कतार में कोई पंगा था, कोई यात्री कर्मचारियों पर चिल्ला रहा था, कदाचित् एयर इण्डिया की एक और उड़ान रद्द हो गई थी या समय बदल गया था। तौबा, मैं तो कभी फोकट में भी एयर इण्डिया में न जाऊँ, देश का नाम खराब कर रखा है!!
कुछ देर बाद तरूण और इशान भी पहुँच गए, हमने अपने-२ बोर्डिंग पास लिए और सामान जेट वालों के हवाले किया। बोर्डिंग पास का भी लफ़ड़ा था, फ्लाईट भरी हुई थी और तरूण काऊंटर पर बैठी मोहतरमा से कह रहा था कि तीन खिड़की वाली सीटें चाहिए और वह भी दायीं तरफ़ और आगे या पीछे, पंख पर नहीं चाहिए। मोहतरमा थोड़ी हकबका गई कि ये क्या जीव है, तो मैंने मुस्कुराते हुए मोहतरमा को समझाया कि यह सब फोटू लेने का चक्कर है, सूर्योदय होगा तो दायीं तरफ़ से दिखेगा और हम वही सब करना चाहते हैं। मोहतरमा मुस्कुराई, कदाचित् उनको दाढ़ी वाले मौजी बाबा की जगह क्लीन शेव्ड हैण्डसम की बात जल्दी समझ आई! 😀 बहरहाल, बोर्डिंग पास लिए और सिक्योरिटी चैक के बाद हम अंदर पहुँचे, चार बज रहे थे, एक घंटा था तो हमने कुछ पेट-पूजा की सोची। मैंने कहा कि मैकडॉनल्ड में निपटा लेते हैं लेकिन तरूण को स्वास्थ्यवर्धक खाना चाहिए था इसलिए मना करने पर भी वो सबवे की तरफ़ गया और उल्टे पैर लौट आया क्योंकि सबवे बंद था। 😉
खा-पी कर हम तृप्त हुए और अपने बोर्डिंग द्वार की ओर बढ़ चले, लगभग आखिर में था, यानि कोई 25-26 द्वार पार करने थे कम से कम। हम लोग आराम से चल रहे थे कि मानो दुनिया में कोई फिक्र ही नहीं। एकाएक ही हमारी फ्लाईट की घोषणा हुई कि बचे-कुचे लोग जल्दी पहुँचे वर्ना पीछे ही छोड़ दिए जाएँगे, हमने अपनी बेतकल्लुफ़ी त्यागी और स्पीड बढ़ा दी। विमान पूरा भर चुका था, हम ही थे आखिरी में पहुँचने वाले!!! हम ठाठ से राजे-महाराजों की तरह अंदर घुए और कई यात्री हमको देख सोच रहे थे “ये साले टिपिकल हिन्दुस्तानी हैं, कभी साले टाइम से नहीं पहुँचते”!! 😀
एक-सवा घंटे मात्र की फ्लाईट थी। ऐयर-होस्टेस ऐसी बद्तमीज़ और अन-प्रोफेशनल कि सबसे पीछे की सीटों पर बैठे हम लोगों से चाय-कॉफी भी न पूछी और बाकियों को नाश्ता परोस दिया। ऐयर-स्टीवर्ड को बोला तो उसने पेप्सी लाकर दी। यही वजह है कि मुझे जेट की उड़ान पसंद नहीं है, कहने को फुल-फेयर फ्लाईट है, अपने को बेहतरीन बताते हैं लेकिन सर्विस दो-कौड़ी की नहीं है; फटीचर जहाज़, फटीचर कर्मचारी और फटीचर सर्विस!! 😡 मेरी अब तक की पसंदीदा फ्लाईट किंगफिशर रही है, उत्तम जहाज़ और ए-वन सर्विस, बद्-किस्मती से उसकी हालत टाईट है और इसलिए आजकल उसमें कहीं भी जाना एयर इण्डिया से ज़्यादा खतरनाक है!! 🙁 बहरहाल, पौ फटी, उजाला हुआ और नीचे बर्फ़ में ढके हिमालय के पर्वत नज़र आए। कुछ ही देर में सूर्योदय हो गया, तरूण आगे वाली सीट पर लगा हुआ था अपना घणा हाई-फाई कैमरा लेकर। मैंने एकाध फोटो लिए लेकिन मज़ा नहीं आया, सुस्ती सी आ रही थी, तो मैंने कैमरा रखा वापस, खिड़की पर पर्दा किया और साथ लाई किताब – वन लाइफ़ टू राईड – पढ़ने लगा। कुछ ही मिनट बाद हम लेह के हवाई अड्डे पर उतर गए।
हवाई जहाज़ से उतरे तो ठंड का एहसाह हुआ, लगा कि हाँ बहुत सर्द है मौसम। हवाई अड्डे के अंदर पहुँच अपना सामान संभाला और तरूण से उधार ली उसकी जैकेट डाली। बस यहीं पर पंगा हो गया। दिल्ली में यह जैकेट आज़माई थी तो आराम से आई थी, बंद भी हो गई थी। अब दरअसल मैं एक पतली स्वेटशर्ट पहने हुए था, उस पर जैकेट डाली तो बंद न हुई। जैकेट बंद न होगी तो किसी काम की न रहेगी, इससे एक साइज़ बड़ा चाहिए। तो फिलहाल उसको ऐसे ही डाल लिया कि बाद में बाज़ार निकलेंगे और वहाँ से लेंगे, आज का दिन तो वैसे ही लेह में गुज़ारना था।
होटल पहुँच हम सबने नाश्ता आदि किया और उसके बाद लंबे हो गए बिस्तरों पर। कोई छह घंटे की नींद के बाद उठे और बाज़ार निकल लिए। सबसे पहले जैकेट लेनी थी, तो जिस दुकान से तरूण ने ली उस दुकान पे पहुँचे। कई जैकेट देखी, एक से एक भारी और गर्म, आखिर में एक लाल-रंग की पसंद आई। तरूण वाली उतार के नई जैकेट पहन ली, ऐसा लगा मानो बोझ कम हुआ और फिर और अधिक बोझ पड़ गया। जैकेट ने कम से कम पाँच-छह किलो वज़न तो बढ़ा दिया होगा। इस दुकान से निपटने के बाद हम आगे बढ़े, कुछ और सामान लिया, और जेब ढीली करी। तत्पश्चात एक टैक्सी ली और हम सेमो मठ (Namgyal Tsemo Monastery) की तरफ़ निकल लिए।
( सेमो मठ – Namgyal Tsemo Monastery )
शाम हो रही थी, ठंड बढ़ रही थी, सूर्यास्त का समय और मठ से लेह शहर नज़र आ रहा था, सेमो मठ एक पहाड़ी पर है।
इसके बाद बढ़िया कश्मीरी सेब के जूस और मोमोज़ का रात्रि भोज किया। रेस्तरां के सामने ही एक किराने की दुकान थी तो वहाँ से हमने खाने-पीने का पैक्ड सामान लिया, अगले दिन पांगोंग झील की तरफ़ निकलना था वहाँ कुछ मिलना नहीं तो बेहतर पहले से स्टॉक ले लिया जाए।
अगले अंक में जारी …..
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