पिछले अंक से आगे …..

तो बिस्कुट, नमकीन, जूस आदि का पर्याप्त स्टॉक लेकर हम वापस होटल आ गए। पांगोंग सो (Pangong Tso) जाने के लिए आवश्यक आज्ञापत्र बनकर आ गए थे। यह लेह में ही बनते हैं और जाते समय दो जगह पर सेना वालों द्वारा जाँचे जाते हैं। यदि आप भारतीय नागरिक हैं तो इनको बनवाना झंझट वाला काम नहीं है, प्रत्येक (परमिट की चाह रखने वाले) व्यक्ति को अपना भारतीय सरकार द्वारा जारी ओरिजनल पहचान पत्र देना होता है (वोटर आईडी, पासपोर्ट, सरकारी महकमे का पहचान पत्र आदि) जिस पर फोटो और पता आदि दर्ज हो। आप जिस भी होटल में ठहरेंगे वे लोग यह बनवा देते हैं, स्वयं परमिट वाले दफ़्तर के धक्के खाने की आवश्यकता नहीं होती।

अगले रोज़ शनिवार सुबह सवेरे हम जाने के लिए तैयार थे, सामान पैक किया और स्कॉर्पियो में लाद दिया। ड्राइवर खुशनुमा बंदा था लेकिन ज़रा सा लल्लू था। उसको पता था कि तकरीबन 160 किलोमीटर एक तरफ़ का रास्ता है, पहाड़ी रास्ता है और लेह के बाहर कहीं पेट्रोल पंप मिलने वाला नहीं इसलिए डीज़ल भरवा के लाना था लेकिन वो खाली टंकी के साथ आ गया। हम रास्ते पर बढ़ चले, पहला पेट्रोल पंप आया लेकिन वहाँ ऐसी भीड़ थी कि कतार में खड़े होते तो शाम से पहले नंबर नहीं आता, इसलिए हम रूके नहीं। थोड़ा आगे जाकर एक और पेट्रोल पंप दिखा लेकिन उसके पास तेल नहीं था, सो हम सब ऊपर वाले का नाम लेकर आगे निकल लिए। आगे जाकर सड़क पर दाएँ और बाएँ दो रास्ते निकलते हैं, दाएँ वाला मनाली ले जाता है और बाएँ वाला पांगोंग की ओर जाता है। वहाँ से आगे निकले तो मस्त खुली सड़क थी, दोनों तरफ़ पहाड़ और कोई आबादी नहीं।


( यह पैनोरमा बड़े रूप में यहाँ देखें )


थोड़ा आगे बढ़े तो तरूण ने गाड़ी स्तकना मठ की ओर मुड़वा ली। यह मठ सिंधु नदी के किनारे है। नदी पर बने झूलते पुल पर हमारी गाड़ी जाने में असमर्थ लगी तो हमने गाड़ी एक तरफ़ रुकवा ली और पैदल ही पुल पार किया।



( स्तकना मठ – Stakna Monastery – बड़ा फोटो यहाँ देखें )


स्तकना मठ के बस बाहर से ही फोटो आदि लेकर हम वापस गाड़ी में लद अपने रास्ते हो लिए। कुछ ही देर बाद पहाड़ी सड़क आरम्भ हो गई, मानो किसी सर्प की भांति पहाड़ी के ईर्द-गिर्द कुण्डली मारे बैठी हो और हम उस पर सरपट भागे चले जा रहे थे। एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी फिर तीसरी पहाड़ी, ऐसे ही बढ़े चले जा रहे थे। कुछ समय बाद बर्फ़ीले पहाड़ आरम्भ हो गए, सड़क के दोनो ओर बर्फ़ जमी हुई थी, कदाचित्‌ यहाँ की बर्फ़ कभी पिघलती नहीं। तकरीबन चार घंटे के नॉनस्टॉप सफ़र के बाद हम चांग ला (Chang La) पहुँच गए। यह एक काफ़ी ऊँचाई पर स्थित दर्रा (mountain pass) है, ऊँचाई के हिसाब से गाड़ी चला सकने लायक यह दुनिया में तीसरी सबसे ऊँची सड़क है, पहले दो नंबर पर स्थित सड़कें तिब्बत में हैं। कुछेक गलत धारणाओं के चलते लोग खरदुंग ला (Khardung La) को दुनिया की सबसे ऊँची सड़क बताते हैं और चांग ला को दूसरी सबसे ऊँची। वास्तव में खरदुंग ला की सागर स्तर से ऊँचाई 17582 फीट है और चांग ला की 17590 फीट है। इनसे ऊँचे दो दर्रे तिब्बत स्थित सेमो ला (18258 फीट) और सुजे ला (17815 फीट) हैं। तो हम दुनिया की तीसरी सबसे ऊँची और भारत की सबसे ऊँची सड़क वाले दर्रे पर कुछ देर रुके। बड़ी अचीवमेन्ट थी जी आखिर, इतनी ऊँचाई पर इससे पहले नहीं आए थे, इससे पहले मेरा पर्सनल रिकॉर्ड कोई 12000 फीट का था जो कि तुन्गनाथ पर जाकर बना था। तो यानि कि यदि विमान की उड़ान न गिनी जाए (हवाई जहाज़ प्राय: 40000 फीट की ऊँचाई पर उड़ते हैं) तो यह 17590 फीट की ऊँचाई नया पर्सनल रिकॉर्ड बना। साथ ही बर्फ़ देखने की तमन्ना भी पूर्ण हुई, असली में अभी तक बर्फ़ न देखी थी और यहाँ तो हाल यह कि बर्फ़ कभी पिघलती ही नहीं, सारा साल बर्फ़ रहती है। चांग ला का दर्रा गाड़ियों के लिए साल में सिर्फ़ तीन माह खुलता है, यहाँ सेना की चौकी है और बाकी के नौ माह सिर्फ़ सेना की ही आवाजाही होती है ट्रकों में, गाड़ियाँ नहीं जा सकती।


( चांग ला दर्रे पर पोज़ बनाते हुए युअर्स ट्रूली )


फोटो सैशन समाप्त हुआ, बर्फ़ गिरनी आरम्भ हो गई तो हम लोग गाड़ी में पुनः लद अपने रास्ते लगे, अभी तकरीबन आधा रास्ता बाकी था। जल्द ही हम लोग पहाड़ी रास्ते को पीछे छोड़ फिर से सपाट सड़क पर सरपट निकले जा रहे थे। कोई दो घंटे बाद एक सात-आठ घर वाले गाँव में गाड़ी रोकी गई, सबको चाय की तलब हो रही थी। सड़क किनारे एक दुकान सी थी, बगल वाले कमरे में टेबल कुर्सी डाल के कैफ़े बनाया हुआ था। तरूण और इशान चाय और मैगी निपटाने लगे, मैं ऐसे ही बाहर टहल रहा था। कुछ देर बाद एक गाड़ी सामने से तेज़ी से आई और हमारी गाड़ी के पास रूकी, उसमें से कुछ लड़की-लड़के निकले। उनमे से एकाध से बातचीत हुई, पता चला वे लोग मुम्बई से थे और सुबह सवेरे पांगोंग गए थे और अब वापस लेह लौट रहे थे। उनसे पूछा तो पता चला कि पांगोंग पर तापमान काफ़ी कम है, ठण्ड है। मैंने सोचा कि ये लोग मुम्बई से हैं, इनके लिए तो दस-बारह डिग्री का तापमान ही “बहुत ठण्ड” हो जाता होगा, हम दिल्ली वाले हैं हमें पता है कि सर्दी और गर्मी क्या होती है। 😀


चायपान करके हम पुनः मंज़िल की ओर बढ़ चले। नींद सी आ रही थी तो पीछे बैठे इशान और मैं ऊँघ रहे थे, ड्राइवर के बगल में बैठा तरूण कैमरा हाथ में लिए बैठा था और कुछेक अंतराल बाद उसको कुछ नज़र आता तो फोटो लेता जा रहा था। तकरीबन दो घंटे बाद एकाएक वो बोला कि पहुँच गए और इशान तथा मैं उठ के सीधे हो गए, दूर हमें पांगोंग झील नज़र आ गई थी। जल्दी ही गाड़ी पहाड़ी से उतर आई और हम पांगोंग किनारे रेतीले मैदान पर थे।


( पांगोंग झील – Pangong Tso )



( पांगोंग झील – Pangong Tso – यह पैनोरमा बड़े रूप में यहाँ देखें )



( पांगोंग झील – Pangong Tso )



( यह पैनोरमा बड़े रूप में यहाँ देखें )


झील और उसके आसपास का नज़ारा ऐसा था कि मन में एक ही बात आई – गोली मारो स्वर्ग को, इससे बढ़िया नज़ारा वहाँ भी क्या होगा!! 🙂 पानी, रेत, और बर्फ़ से ढकी चोटियों वाले पहाड़ – और कुछ नहीं यहाँ पर। पानी भी खारा जिसको किसी कार्य में नहीं लाया जा सकता, ठण्ड अच्छी खासी और ठण्ड से ज़्यादा ठण्डी तेज़ सर्द हवाएँ जो सामने की बर्फ़ीली पहाड़ियों से आती और झील को पार कर हमसे टकराती। सीधे-२ बात समझ आती कि देखने में जितनी सुंदर यह जगह लग रही है उससे कहीं अधिक कठिन है, यहाँ रहना अति कठिन है।



( बड़ा फोटो यहाँ देखें )


फोटो आदि लेकर हम आगे बढ़ चले। झील के किनारे कई कैम्प बने हुए हैं और इनमें से एक कैम्प वॉटरमार्क में हमारी बुकिंग थी। लेकिन जब हम कैम्प वॉटरमार्क पहुँचे तो वहाँ के मैनेजर ने हमारी बुकिंग मानने से इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि उसके पास इस विषय में कोई संदेश उनके बुकिंग ऑफिस से नहीं आया था, हमने बुकिंग क्लीयरट्रिप (Cleartrip) से करवाई थी जिसने पैसे तो हमसे कैम्प वॉटरमार्क के लिए और बुकिंग हमारी उसके बाजू वाले एक थकेले कैम्प में कर दी जो कि खस्ता हाल था, जिसके तम्बू बहुत ही साधारण थे और इस मौसम के लिहाज़ से नहीं थे, रजाईयाँ भी उसके पास पतली सी थी!! गुस्सा तो हमको बहुत आया लेकिन फिलहाल कोई विकल्प नहीं था, कैम्प वॉटरमार्क वाला हमको बिना बुकिंग के तम्बू देने को तैयार नहीं था और शाम हो चुकी थी इसलिए हम लोग वापस भी नहीं लौट सकते थे। क्लीयरट्रिप (Cleartrip) को हमने जमकर कोसा और इस फटीचर कैम्प के एक तंबू में अपना सामान पटक दिया।


( कैम्प फटीचर में हमारे तम्बू के बाहर से गोधूली के समय )


कैम्प वालों के रवैये से ऐसा लग रहा था कि उनके लिए मानो दीपावली जल्दी आ गई हो क्योंकि मुझे नहीं लगता वैसे कोई उसमें आता होगा। रात का खाना आदि हमने जल्दी कर लिया और हम तम्बू में वापस आकर बिस्तर पर पसर गए। ठण्ड बढ़ गई थी, अपनी भारी जैकेट और दो रजाईयों के बावजूद मुझे ठण्ड लग रही थी, हमारे तम्बू के अंदर ही एक डिग्री तापमान था तो बाहर यकीनन शून्य से नीचे था। बाहर ज़ोरों की हवा चल रही थी, हाल यह था कि साथ लाया गया तरल साबुन भी जम गया था! ❗ सभी का एकमत निर्णय था कि रात किसी तरह काटी जाए, अगले दिन सुबह वापस निकल लेंगे, एक रात और ऐसे फटीचर तम्बू में निकाली तो कल्याण हो जाएगा। धोखेबाज़ और ठग क्लीयरट्रिप (Cleartrip) वालों से हम दिल्ली पहुँच के निपटेंगे!

 
अगले अंक में जारी …..