हमारा समाज किस ओर जा रहा है? व्यक्तिगत तौर पर हम किस गहरे गड्ढे में गिर रहे हैं? प्रायः इन विषयों पर मेरा ध्यान नहीं जाता, क्योंकि मैंने इस तरह के विषयों पर सोचना और ध्यान देना छोड़ कर पूर्णतया कन्ज़मप्शन और कनज़्यूमरिस्ट रवैया अपना लिया है, खाओ पियो और ऐश करो, क्यों बेकार में फालतू चीज़ों के बारे में सोच के अपना दिमाग खराब करना! लेकिन कभी-२ यह सेल्फ़ इनफ्लिक्टिड नशा कम होता है, मनस पटल पर छाई धुंध में कमी आती है (ईंधन बहुत महंगा हो गया है आजकल, हर समय जेनरेटर नहीं चला सकते), दिमाग मानों जागने का प्रयास करता है और फिलॉसोफिकल सेक्टर रीबूट होता है, कुछ पलों के लिए सुषुप्तवस्था में लीन इस भाग में इलेक्ट्रॉन प्रवाह आरंभ होता है और विचार अपनी लेजेन्डरी मन की गति से प्रवाहित होते हैं।
अभी कुछ दिन पहले गाड़ी से जा रहा था, गली में एक साहब बीचो-बीच गाड़ी खड़ी करके बैठे हुए थे, हॉर्न दिया तो उन्होंने साइड में लगाई, जाते हुए मैंने शीशा नीचे कर आराम से कहा कि भाई साहब गाड़ी को साइड में ही लगा लीजिए, आते जाते किसी को दिक्कत नहीं होगी और आपको भी नहीं होगी। बस उन साहब की तो मानो बुद्धि सटक गई, मुझे ही फालतू सुनाने लगे, मामला गाली-गलौच पर पहुँच गया। मामला खत्म करने के लिए मैं वहाँ से निकल लिया, ऐसे लोगों के साथ समय बर्बाद करने का कोई कारण नहीं। पूरा सीन दिमाग में रिवाइंड हुआ, जानने का प्रयास किया कि ऐसा मैंने क्या कह दिया कि वो जनाब भड़क गए?! क्या इतना मानसिक पतन हो गया है लोगों का कि आराम से किसी से बात ही नहीं कर सकते? दूसरी तरफ़ देखें तो आजकल सड़कें निन्जा ट्रेनिंग स्कूल बन गई हैं, गाड़ी चलाना ऐसा हो गया है जैसे सेनसई के नज़र फेरते ही शिष्य आपस में मौन कूटम-कुटाई आरंभ करते हैं टु सी हू इज़ द टॉप डॉग!! यदि आप सही सलामत गाड़ी के साथ मंज़िल पर पहुँज गए तो मानो इस राउंड में अव्वल, अगला राउंड पुनः आरंभ होगा। राउंड्स के दौरान घणा स्ट्रेस होता है दिमाग पर, और इस स्ट्रेस से निपटने के दो गुर हैं – या तो गुस्सैल फास्ट-बाऊलर की भांति घड़ी-२ सुनहरे शब्दों का प्रयोग करो या फिर मस्तिष्क को पर्-ब्रह्म से जोड़ अपनी स्पिरिचुअल साइड को जागृत कर ज़ेन स्टाईल में शांति बनाते हुए स्ट्रेस को दूसरा डाल के बोल्ड करो। कहने की आवश्यकता नहीं है कि गर्मी का मौसम है, शांत मस्तिष्क के लिए हर कोई अपने साथ ठंडा-२ कूल-२ लेकर नहीं चलता! 😀
और फिर अन्य भी कई तरह के स्ट्रेस हैं व्यक्ति के जीवन में। महंगाई बढ़ रही है, रात दूनी दिन चौगुनी, घूसखोरों का हर जगह राज है, सरकार देश का भला करने में लगी हुई है। मुझे पता है बोलने वाले अपने बोलने का इंतज़ार कर रहे हैं, उनको अब प्वायंट मिल गया है – यदि सरकार से इतने ही त्रस्त हो तो खुद कुछ क्यों नहीं करते, गटर साफ़ करने के लिए उसमें उतरना ही पड़ता है। अब भई ऐसा है कि न तो मैं “नायक” का अनिल कपूर हूँ और न ही “आप” उस फिल्म के परेश रावल, ये डॉयलाग उस फिल्म में ही अच्छा लगा था, और न ही मेरी शिवाजी द बॉस बनने की इच्छा है। मानता हूँ कि गटर साफ़ करने के लिए उसमें उतरना ही पड़ता है लेकिन किसने कहा है कि स्वयं ही करना पड़ेगा?! ज़रूरत पड़ने पर किसान बंदूक उठा के सिपाही बन जाता है लेकिन मियां फिर खेती कौन करेगा? हर काम स्वयं करना यदि इतना मुफ़ीद होता तो हम आज भी स्वयं ही शिकार कर या खेती कर खाना खाते, स्वयं ही अपने कपड़े सिलते, स्वयं ही अपने जूते बनाते।
फिर एक अन्य टेन्शन युवराज का। जहाँ छोटे-मोटे कॉर्पोरेटर ब्लैक कैट कमाण्डो लेकर घूमते हैं वहीं युवराज बिना सिक्योरिटी के क्यों? आखिर वो देश की धरोहर हैं, माना कि जनता से उनको कोई खतरा नहीं, सबकी आँखों के सेब हैं लेकिन बुरी नज़र वालों के मुँह काले नहीं होते न, वे जनता के बीच छुप कर ही वार करते हैं। माननीय राजीव गांधी का इन्तकाल हुए अभी कोई बीस वर्ष ही हुए हैं, जनता के बीच छुप कर ही भेड़ियों ने उनको शहीद किया था। 🙁 लेटेस्ट खबर अभी पता नहीं है कि युवराज कौन से गाँव में जनता के साथ रोटी तोड़ आत्मीयता बढ़ा रहे हैं, लेकिन जहाँ भी हों मेरी सरकार से गुज़ारिश है कि उनको सिक्योरिटी प्रदान की जाए।
खबर से याद आया, हमारे समाचार माध्यमों का भी पतन हो रहा है। चौथी फेल आईआईटी आदि के नए सत्र आदि की रिपोर्टिंग करते हैं, जिनको खेती-बाड़ी का “ख” नहीं पता वो नए बीजों और फसलों आदि के बारे में लिखते हैं और जिनको कंप्यूटर चालू करना ही मात्र ठीक से आता है वे हमें टेक्नॉलोजी के बारे में बतलाते हैं। जैसे यह खबर कल छपी – 15 साल के लड़के ने सोशल नेटवर्किंग साइट बनाई (यहाँ पढ़ें)। पढ़ के मुझे लगा कि कहीं मैं किसी पैरालल डाईमेन्शन में तो नहीं आ गया जहाँ सब मूर्ख हैं? राई को पहाड़ बनाते हुए इन पत्रकार महोदय ने फेसबुक वाले मार्क ज़करबर्ग से तुलनाएँ कर दी कि देखो हमारे यहाँ के लड़के ने पाँच साल से ज़करबर्ग को ऊँगली कर दी, उसने बीस की उम्र में बनाई थी हमारे लड़के ने पंद्रह की आयु में ही बना दी! साथ में माँ-बाप के वन लाईनर चिपका दिए कि कितनी बड़ी तोप चलाई है लड़के ने, खानदान का नाम रौशन कर दिया। कंप्यूटर टीचर ने भी सर्टिफाई किया कि लड़का टॉपर है और स्कूल के आईटी क्लब का अध्यक्ष है। लड़का आगे बताता है कि पहले दिन सर्वर क्रैश हो गया क्योंकि तीन सौ लोगों का बोझ नहीं संभाल पाया, अब उसने बेहतर सर्वर खरीदा है। क्या कहने!! 🙄
लड़के ने बस यह नहीं बताया कि उसने पीएचपी फॉक्स (phpfox) नामक बने बनाए सॉफ़्टवेयर को इंस्टॉल किया है (बहुतया संभव है पाईरेटिड वर्ज़न क्योंकि यह सौ डॉलर का सॉफ़्टवेयर है) जो कि कोई तोप चलाने वाला काम नहीं है। कोई भी अपना सोशल नेटवर्क बना सकता है, पीएचपी फॉक्स, बड्डीप्रेस आदि जैसे बहुत से तैयार सॉफ़्टवेयर उपलब्ध हैं, इंस्टॉल करो और अपना सोशल नेटवर्क खड़ा करो! मेरा सवाल इन पत्रकार से यह है कि मैं जब दस साल का था तब कंप्यूटर प्रोग्राम स्वयं लिखता था, अपनी कक्षा में शैतान पलटन का कप्तान था और प्रेमचंद के उपन्यास पढ़ चुका था – ऐसी प्रतिभाएँ जिनका मेल युगों में नहीं होता। तो क्या मेरी अचीवमेन्ट पर भी लेख लिखेंगे? 😀
खैर ऐसे लोगों की कमी नहीं है। अभी एक महीना पहले टोफल (TOEFL) का टैस्ट देने गया था, टैस्ट सेन्टर पर मेरे साथ टैस्ट देने वाले सभी बारहवीं पास कर निकले बालक थे। अब मेरे लिये तो टैस्ट एक औपचारिकता था, इसलिए फटाफट खत्म करने के प्रयास में था। इसका एक बड़ा कारण यह था कि मुझे नींद आ रही थी, रात भर ऑफिस का काम कर सुबह टैस्ट देने गया था, नींद आने के पहले घर वापस पहुँचना था। आधे से अधिक टैस्ट नींद में दिया, लेकिन एक बात नोटिस की, मेरे साथ बैठा एक बालक मेरी स्क्रीन पर ही नज़रें लगाए हुए था, मुझसे एक भाग पीछे चल रहा था और मेरी स्क्रीन को देख नोट्स लिए जा रहा था। समझने के लिए आईन्स्टाइन होना आवश्यक नहीं, बालक नकल कर रहा था लेकिन कर रहा था तो करे, मेरी बला से, कब तक नकल करके पास होगा। टैस्ट सबसे पहले समाप्त कर मैं बाहर निकला, उसी बालक की माता जी इंतज़ार कर रही थी कि नौनिहाल किला फतह करके आएँ तो उनको घर ले जाएँ। कुछ देर उन के साथ ऐसी ही बातचीत हुई, माता जी खुद को कम हाई फाई नहीं समझती थी, मुझे करियर एडवाइस देने लग गई! 😀 मन में आया कि बोल दूं कि माता जी अपने लड़के से बहुत अधिक उम्मीद मत रखना, इस टैस्ट में तो मेरी वजह से नंबर ले आएगा लेकिन यह तरीका हर जगह नहीं चलेगा। स्टैनफोर्ड, प्रिंसटन या कैलटेक के सपने छोड़ दो अपने लड़के के लिए और ऐमिटी आदि कहीं दाखिला दिलवा दो, सुना है लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी भी बहुत अच्छी है। 😀 ऐसे बालकों का दाखिला माँ-बाप की गहरी जेब के चलते ही हो सकता है, बालक की खुद की काबिलियत के चलते तो छोले बेचने की नौबत आ जाएगी!
वी आर ए सोसाईटी मूविंग टुवर्ड्स डेकाडेन्स, देख कर महसूस कर दुख होता है गब्बर, इसलिए मैं अपने खाओ-पियो ऐश करो वाले नशे की धुंध में रहता हूँ ताकि दिमाग ठण्डा रहे, ठण्डा-ठण्डा कूल-कूल! :tup:
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