जनवरी में बाली जाना हुआ, घूम-फिर आए, लेकिन साथ में एक शंका मन में ले आए – कैमरा अब पुराना हो गया है, नया लेना है। अब वह पहले वाला ज़माना नहीं रहा कि लोग एक ही चीज़ को बरसों सदियों तक घिसते रहते थे, दादा की जवानी की चीज़ पोता अपने बुढ़ापे तक घिस रहा होता था। आजकल लोग डेयरडेविल (daredevil), एडवेन्चुरस (adventurous) वगैरह हो गए हैं; फोन से एक साल में ऊब जाते हैं, नौकरी से दो साल में, गाड़ी से चार साल में और बीवी से दस साल में (कृपया राशन-पानी लेकर न चढ़ा जाए ऐसा मैंने सुना है)। अरे 5-10-15 साल में तो सरकार बदल जाती है, डिपेन्डिंग ऑन कि आप कौन से इलाके में रहते हैं। हम जो 7 साल से अपना कैमरा घिस रहे हैं, सोचा अब बदलाव का वक़्त आ गया है, हवाएँ चलनी शुरु हो गई हैं!

Panasonic Lumix DMC-FZ50
Panasonic Lumix DMC-FZ50

जब से यह पैनासोनिक (panasonic) लिया है तब से इससे खासा लगाव रहा है। हालांकि यह मॉडल अब बंद हो गया है लेकिन इस जैसा कैमरा पैनासोनिक ने दोबारा नहीं बनाया। यह सिर्फ़ अपने समय का ही शानदार कैमरा नहीं था, आज भी प्रयोग की दृष्टि से इसका कोई मुकाबला नहीं है। तो अब मुझे इससे भी उत्तम कैमरा दरकार था, पुनः एक प्रोज़्यूमर (prosumer) अथवा ब्रिज (bridge) कैमरे की चाह नहीं थी। तो झक मारकर इंटर-चेनजेबल लेन्स (inter-changeable lens) वाला कैमरा लेना ही था। यह समझ सकते हैं कि यह पड़ाव पहले आ गया होता लेकिन मैं तारीख़ पर तारीख़ आगे बढ़ाता गया और अपने आप को निन्यानवें के फ़ेर में डाले रखा। उत्सुक के मन में प्रश्न उठा होगा, ऐसा क्यों?

इसका कारण एक बहुत ही सीधा सा था; इंटर-चेनजेबल लेन्स वाले कैमरों की दुनिया में दो तरह के कैमरे होते हैं – मिरर सहित और मिरर विहीन – मेरा झुकाव मिरर विहीन पर था लेकिन कुछ समय पहले तक उनकी गुणवत्ता वैसी नहीं थी कि मन में घर कर जाए। अब उत्सुक व्यक्ति जानना चाहेगा कि ये दो कौन से जीव हैं।

दरअसल इंटर-चेनजेबल लेन्स वाले कैमरों में प्रायः लोग एक ही प्रकार के कैमरे को जानते हैं – एसएलआर (SLR) कैमरा यानि सिंगल लेन्स रिफ़्लेक्स (single lens reflex) कैमरा। कोई 65 वर्ष पूर्व रेक्टाफ़्लेक्स (Rectaflex) नाम की एक इटैलियन कंपनी ने एक नए किस्म का कैमरा निकाला था, फोकल प्लेन शटर (focal plane shutter) वाला एसएलआर जिसमें लेन्स बदल सकते थे और जो पेन्टाप्रिज़्म युक्त था ताकि ऊपर से नीचे की दिशा में देखने के स्थान पर आँखें सामने की ओर रखकर ही कैमरे में देखा जा सके (जैसे कि आज के कैमरों में देखते हैं)। अधिक तकनीकी जानकारी में न जाते हुए इस तकनीक को थोड़ा सरल लहज़े में देखते हैं।

पेन्टाप्रिज़्म वाले एसएलआर कुछ इस तरीके से काम करते हैं: लेन्स के द्वारा प्रकाश कैमरे के अंदर जाता है और लेन्स के पीछे मौजूद एक आईने पर पड़ता है, उस आईने से परावर्तित (reflect) होकर वह प्रकाश ऊपर की ओर जाता है जहाँ एक पाँच कोण का आईना (pentamirror) होता है जो प्रकाश को दो बार पुनः मोड़ कर व्यूफ़ाईन्डर (viewfinder) के ज़रिए बाहर निकालता है। तो जब आप किसी सामान्य एसएलआर कैमरे के व्यूफ़ाईन्डर में देखते हैं तो आपको छवि इसी प्रकार नज़र आती है। और जब शटर का बटन दबता है तो लेन्स के पीछे वाला आईना ऊपर उठ जाता है और प्रकाश व्यूफ़ाईन्डर में जाने के स्थान पर फ़िल्म पर पड़ता है जिस पर छवि अंकित हो जाती है। मोटे तौर पर एक सामान्य एसएलआर कैमरे की यही कार्यशैली है।

तो कोई 65 वर्ष पूर्व जब ऐसा कैमरा आया तो यह तकनीक बहुत ही क्रांतिकारी थी और कुछ ही समय में यह तकनीक आम हो गई, एसएलआर कैमरे इसी प्रकार के बनने लगे। उस समय से कोई चालीस वर्ष बाद 1990 का दशक आते-२ कोडैक (Kodak), पैन्टैक्स (Pentax), मिनोल्टा (Minolta) आदि महारथियों का सूर्यास्त हो रहा था, निकोन (Nikon) और कैनन (Canon) ही दो एसएलआर महारथी झण्डा ऊँचा किए खड़े थे। डिजिटल कैमरों का जब दौर आया तो इन्होंने छोटे डिजिटल कैमरे तो बनाए लेकिन बुढ़ा रही पेन्टाप्रिज़्म एसएलआर तकनीक की जगह लेने के लिए कुछ नया करने के स्थान पर इन्होंने उसी बुढ़ाती तकनीक को डिजिटल कर दिया, यानि फ़िल्म की जगह डिजिटल सेन्सर (sensor) लग गया और पुराना कूड़ा रीसाईकल (recycle) हो गया। और पिछले 15-20 वर्षों से ये दोनों महारथी डिजिटल एसएलआर घिस रहे हैं।

चाहे निकोन और कैनन यह बुढ़ा गई तकनीक बेचने में लगे रहें, लेकिन डिजिटल युग में इस तकनीक की कोई आवश्यकता नहीं थी। लेन्स से आते प्रकाश को आईने द्वारा परावर्तित करने के स्थान पर सीधे सेन्सर पर जाने दिया जाए और फ़िर वहाँ से एक डिजिटल छवि इलेक्ट्रॉनिक व्यूफ़ाईन्डर पर दिखाई जाए, यही डिजिटल तकनीक होनी चाहिए और इसी तकनीक से कैमरे बने जिनको मिरर-विहीन (mirror less) कैमरे कहा जाता है। कैमरे से वह आईने, आदि फालतू सामान निकल जाने से कैमरे हल्के तो हो ही गए, उनका आकार में भी छोटा होना संभव हो गया। एक अन्य लाभ यह भी हुआ कि इन कैमरों के लेन्स भी हल्के हो गए, पेन्टाप्रिज़्म वाले एसएलआर लेन्सों के अत्यधिक भार की कोई आवश्यकता नहीं रह गई।

रोने वाले पेन्टाप्रिज़्म एसएलआर के ऑप्टिकल व्यूफ़ाईन्डर की गुणवत्ता का बखान करते रोते रहते हैं और इलेक्ट्रॉनिक व्यूफ़ाईन्डर को कोसते रहते हैं लेकिन मेरी नज़र में ये लोग मात्र बदलाव से डरने वाले लोग हैं। इलेक्ट्रॉनिक व्यूफ़ाईन्डर काफ़ी विकसित हो चुके हैं और उसमे ऑप्टिकल व्यूफ़ाईन्डर के मुकाबले कई लाभ भी हैं।

  • ऑप्टिकल व्यूफ़ाईन्डर में जो दिखाई देता है फोटो वैसी कभी नहीं आती, क्योंकि मनुष्य की आँखें किसी भी कैमरे के सेन्सर से कहीं अधिक बेहतर होती हैं। क्योंकि ऑप्टिकल व्यूफ़ाईन्डर में छवि कैमरे के सेन्सर से नहीं आती इसलिए फोटो लेने के बाद ही पता चलता है कि कैसी फोटो ली गई है। वहीं इलेक्ट्रॉनिक व्यूफ़ाईन्डर में छवि कैमरे के सेन्सर से आती है इसलिए जैसा दिखाई दे रहा है फोटो लगभग वैसी ही खिंचती है। कम प्रकाश अथवा अंधेरे में फोटो लेते समय इलेक्ट्रॉनिक व्यूफ़ाईन्डर और अधिक सहायक हो जाते हैं क्योंकि उनमें दिखाई देगा कि कैसी फोटो आएगी जबकि सभी ऑप्टिकल व्यूफ़ाईन्डर ऐसे समय में चवन्नी छाप हो जाते हैं (कैमरे का सेन्सर अंधेरे में मनुष्य की आँखों से बेहतर देख सकता है)।
  • इलेक्ट्रॉनिक व्यूफ़ाईन्डर का एक अन्य लाभ यह है कि छवि के साथ-२ आप कई प्रकार के आंकणे देख सकते हैं। जैसे मैं अपने इलेक्ट्रॉनिक व्यूफ़ाईन्डर पर ग्रिड (grid) रखता हूँ ताकि फोटो कंपोज़िशन में आसानी रहे, प्रकाश का हिस्टोग्राम (histogram) रखता हूँ ताकि पता रहे प्रकाश का स्तर कैसा है। मेरे नए कैमरे में होराइज़न लेवल इंडीकेटर (horizon level indicator) भी है जिससे फोटो अनजाने में टेढ़ी न खिंच जाए। यह डिसप्ले व्यक्ति अपनी मन मर्ज़ी के अनुसार सैट कर सकता है, जबकि ऑप्टिकल व्यूफ़ाईन्डर में जो कैमरा निर्माता ने दे दिया वही सहायक आंकड़े दिखेंगे और हिस्टोग्राम तथा होराइज़न लेवल इंडीकेटर जैसी एडवांस्ड सहायक फीचर नहीं उपलब्ध होती।
  • कुछ लोग इस बात का रोना अभी भी रोते हैं कि इलेक्ट्रॉनिक व्यूफ़ाईन्डर में शटर दबाने पर डिस्प्ले गायब हो जाता है क्योंकि फोटो स्टोर होने में समय अधिक लगता है जबकि ऑप्टिकल व्यूफ़ाईन्डर में ऐसी समस्या नहीं है। ऐसे लोगों को यह जान कर अत्यधिक हर्ष होगा कि अब हम इक्कीसवीं सदी में हैं, आजकल क्वाड कोर मोबाइल फोन होना आम बात है, विज्ञान ने काफ़ी तरक्की कर ली है इसलिए मोहन प्यारे अब जाग जाओ, गुड मॉर्निंग।

कुछ वर्ष पूर्व पैनासोनिक और ओलम्पस (Olympus) ने अपने फ़ोर-थर्ड सेन्सर (four third sensor) को आकार में थोड़ा छोटा कर माइक्रो फ़ोर-थर्ड (micro four third) सेन्सर बनाया और उसको प्रयोग कर मिरर विहीन इंटर-चेनजेबल लेन्स (mirror less inter-changeable lens) वाला कैमरा बनाया। ये दोनों मिरर विहीन कैमरा बनाने वाली पहली कंपनियाँ नहीं थीं लेकिन शिद्दत से मिरर विहीन तकनीक को विकसित करने में लगने वाले ये पहले कैमरा निर्माता थे। आज सोनी, सैमसंग, फूजी आदि ने तो मिरर विहीन कैमरे बनाने आरंभ कर ही दिए हैं, कैनन और निकोन ने भी अपने मिरर विहीन कैमरे निकाल दिए हैं। हालांकि कैनन और निकोन आज भी पूरे ज़ोर-शोर से पेन्टाप्रिज़्म डिजिटल एसएलआर बेच रहे हैं लेकिन मिरर विहीन कैमरे बाज़ार पकड़ रहे हैं और उनका भविष्य उज्जवल है, वे आज के ज़माने के कैमरे हैं। :tup:

Panasonic Lumix DMC-GM1
Panasonic Lumix DMC-GM1
(फोटो साभार)

बुढाती तकनीक और फालतू के भार के कारण ही मुझे कभी डिजिटल एसएलआर लेने का मन नहीं हुआ। मिरर विहीन कैमरे आए तो लगा कि चलो किसी ने तो अक्ल का प्रयोग किया। लेकिन किसी भी नई चीज़ को सुधरने और परिपक्व होने में कुछ समय लगता है। एडवेन्चुरस लोग तुरंत ही नई चीज़ को आज़माते हैं और उनके अनुभवों के अनुसार निर्माता माल में सुधार करते हैं और फिर उसके बाद समझदार लोग उस माल को अपनाते हैं। मिरर विहीन तो परिपक्व हो गया लेकिन समस्या यह थी कि मौजूदा कैमरे के ही आकार से मिलते-जुलते आकार का कैमरा लिया जाए या फिर छोटे आकार का कैमरा लिया जाए। पैनासोनिक ने जीएम-1 (GM-1) मिरर विहीन कैमरा बनाकर बाज़ार में उतार दिया है जो कि इतना छोटा है कि हथेली में समा जाए और यह फ़िलहाल दुनिया का सबसे छोटा मिरर विहीन कैमरा है। सब सोच विचार कर निर्णय लिया कि बड़े आकार का ही कैमरा लेना है, जो बैलेन्स हाथों में बना हुआ है फिलहाल उसी को रखना है, छोटा कैमरा लेने पर उसके आकार पर अभ्यस्त होने में समय लगेगा। अनेकों आंकणों, अनुभवों आदि के मूल्यांकन के पश्चात आखिरकार पैनासोनिक ल्यूमिक्स जी6 (Panasonic Lumix G6) ले लिया गया।


( Panasonic Lumix DMC G6 )


माइक्रो फ़ोर-थर्ड (m43) वाला मिरर विहीन कैमरा लेने के पीछे सबसे बड़ा कारण गुणवत्ता है। सोनी, कैनन, निकोन आदि सब अपने-२ माऊंट और सेन्सर आकार के मिरर विहीन कैमरे बना रहे हैं और किसी एक प्रकार के सेन्सर के लेन्स दूसरे सेन्सर के कैमरे में नहीं लगते (जुगाड़ करके तो खैर कुछ भी कहीं भी लगाया जा सकता है)। इसलिए जिस भी सेन्सर को चुनें उसमें कैमरों के विकल्पों के साथ-२ लेन्स के विकल्प देखना भी आवश्यक है। पैनासोनिक और ओलम्पस के अलावा अन्य निर्माता अभी मिरर विहीन के मामले में नए हैं और लेन्स आदि के उतने विकल्प नहीं हैं। माइक्रो फ़ोर-थर्ड सिस्टम में फिलहाल सबसे अधिक लेन्स के विकल्प हैं और सबसे अधिक कैमरों के विकल्प भी हैं। मेरे लिए कैमरे का चयन करने में यह दोनो महत्वपूर्ण कारण थे।

एक अरसा पहले मैंने डिजिटल कैमरे का चयन करने के लिए चार भाग की शृंख्ला में एक लेख लिखा था। यदि इंटर-चेनजेबल लेन्स वाले कैमरे की जगह साधरण डिजिटल कैमरे के चयन में सहायता चाहिए तो वह शृंख्ला आज भी पढ़ने योग्य है:

  1. डिजिटल कैमरा …..
  2. डिजिटल कैमरा ….. – भाग २
  3. डिजिटल कैमरा ….. – भाग ३
  4. डिजिटल कैमरा ….. – भाग ४