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उरी - द सर्जिकल स्ट्राइक

परसों उरी – द सर्जिकल स्ट्राइक (Uri: The Surgical Strike) देखी; बॉलीवुड से ढंग की वॉर फिल्म नहीं बनती लेकिन इस फिल्म ने फिर एक उम्मीद बंधा दी है कि शायद बॉलीवुड सुधर रहा है। फिल्म की पटकथा और निर्देशन कसा हुआ है और अभिनय भी ठीक-ठाक है। विक्की कौशल ने काम अच्छा किया है, यामी गौतम मुझे अभी भी कोई ख़ास नहीं लगी हालाँकि उनके चाहने वालों की अलग बिरादरी है। अब चाहने वालों की तादाद यदि निर्णय लेती कि कौन बढ़िया अभिनेता/अभिनेत्री है तो ऐश्वर्या राय एक महान अभिनेत्री के रूप में जानी जाती।

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धर्म-निर्पेक्षता का नया आयाम

भारत – एक ऐसा देश जिसने कई चीज़ों के मायनों को नया आयाम दिया है। आधुनिक काल में “सेक्यूलर” शब्द को भी नया आयाम दे दिया गया है। इसका अर्थ अब धर्म निर्पेक्ष होना नहीं रहा वरन्‌ केवल एक खास धर्म की ओर ध्यान देना है। वर्ना क्या कारण है कि कभी किसी “सेक्यूलर” नेता द्वारा दीपावली/होली या लोहड़ी/बैसाखी या क्रिसमस/ईस्टर आदि की दावत नहीं दी जाती लेकिन इफ़्तार पार्टी देने की सभी में होड़ लगी हुई होती है।

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ढोंगी धर्मनिर्पेक्षता

जैसे धर्म को ढकोसला बताने वाले ढकोसलेबाज़ जन्तु होते हैं उसी प्रकार ढोंगी धर्मनिर्पेक्षता के ठेकेदार होते हैं।

अभी कुछ समय पहले एक मानव अधिकार के ठेकेदार से बात हो रही थी। वे जनाब जम कर इज़राईल (Israel) को लानत-फ़लानत भेज रहे थे, मैं तसल्ली से सुन रहा था। इस बात को स्वीकारने से मुझे कोई परहेज़ नहीं है कि लड़ाई-झगड़ा ठीक नहीं है, समय और साधन की बर्बादी है और विकास के मार्ग में रोड़ा भी है। एक नज़रिए से काफ़ी विकास इन्हीं कारणों से होता है, लेकिन फिलहाल उस दार्शनिक सूत्र को नज़रअंदाज़ करते हैं। बात चलते-२ जैसे ही इस्लामिक स्टेट ऑफ़ ईराक़ एण्ड सीरिया (ISIS) पर आई तो मानव अधिकारवादी साहब असहज हो गए।

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ढकोसले और ढकोसलेबाज़

ऐसे लोग बहुतया हैं जो किसी धर्म को मानने वाले परिवार में जन्म लेते हैं परवरिश पाते हैं लेकिन व्यस्क होने पर उन्हें परम्‌ ज्ञान की प्राप्ति होती है और वे उस धर्म आदि को ढकोसला बता दुत्कार देते हैं। ठीक है, आज़ाद देश है और हर किसी को अपनी-२ आस्था रखने की स्वतंत्रता है।

मैं भी ऐसे कई लोगों को जानता हूँ जिनकी परवरिश हिन्दू परिवेश में हुई लेकिन वे हिन्दू धर्म को ढकोसला ही मानते हैं। मेरी नज़र में यह कुछ गलत नहीं है, हर व्यक्ति को अपनी सोच रखने का अधिकार है। अब ऐसे कुछ लोगों में विज्ञान के झण्डाबरदारों को भी मैं जानता हूँ जो अपने को विज्ञानी जताते हैं कि हर कार्य उनका मानो वैज्ञानिक तर्क से ही होता है बिना वैज्ञानिक ठप्पे वाले तर्क के वे कोई कार्य नहीं करते।

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समझदार लोग.....

अपने देश में लोग बड़े ही निराले हैं, वेबसाईट बनवानी है तो उसको भी समझते हैं कि साग़-सब्ज़ी खरीद रहे हों….. क्या भाव दिया भैय्या?! ये ज़्यादातर ऐसे लोग होते हैं जिनको इन मामलों में चार आने की समझ नहीं होती। एक अलग तरीके का उदाहरण देखें तो मान लीजिए मारूति 800 या टाटा नैनो जैसी बजट गाड़ी चलाने वाला रॉल्स रॉयस या बेन्टली के शोरूम में चला जाता है तो वो वहाँ क्या पूछेगा? कितना माईलेज देती है भैय्या? 😀 इसी तर्ज़ पर एक विज्ञापन भी बना था, शायद मारूति का ही।

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द कैमरा कननड्रम 43

जनवरी में बाली जाना हुआ, घूम-फिर आए, लेकिन साथ में एक शंका मन में ले आए – कैमरा अब पुराना हो गया है, नया लेना है। अब वह पहले वाला ज़माना नहीं रहा कि लोग एक ही चीज़ को बरसों सदियों तक घिसते रहते थे, दादा की जवानी की चीज़ पोता अपने बुढ़ापे तक घिस रहा होता था। आजकल लोग डेयरडेविल (daredevil), एडवेन्चुरस (adventurous) वगैरह हो गए हैं; फोन से एक साल में ऊब जाते हैं, नौकरी से दो साल में, गाड़ी से चार साल में और बीवी से दस साल में (कृपया राशन-पानी लेकर न चढ़ा जाए ऐसा मैंने सुना है)। अरे 5-10-15 साल में तो सरकार बदल जाती है, डिपेन्डिंग ऑन कि आप कौन से इलाके में रहते हैं। हम जो 7 साल से अपना कैमरा घिस रहे हैं, सोचा अब बदलाव का वक़्त आ गया है, हवाएँ चलनी शुरु हो गई हैं!

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