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बदलता समय ..... बदलते त्योहार

परसों मैं टीडीआई मॉल में स्थित प्लैनेट एम से फ़िल्मों की कुछ वीसीडी और डीवीडी लाया था, परन्तु कल जब “क्राऊचिंग टाईगर हिड्डन ड्रैगन” की डीवीडी चलाई तो वह चली नहीं। यानि कि उसमें कुछ लोचा था इसलिए आज उसे वापस दे दूसरी लाने की सोची। लेकिन सप्ताहांत होने के कारण देर से सोया सुबह को जिस कारण दोपहर में देर से उठना हुआ। प्लैनेट एम के लिए निकलने तक सांय हो चुकी थी। (आने वाले)परसों यानि कि सोमवार को क्रिसमस है, लेकिन बहुत सी बड़ी बड़ी दुकानों में 2-3 हफ़्ते पहले से ही चहल-पहल आरंभ हो जाती है। बहरहाल जब मैं मॉल में पहुँचा तो देखा कि उसके मध्य भाग में कुछ हो रहा है, मतलब ऑरकेस्ट्रा आदि बज रहा था, गाने वगैरह चल रहे थे और भीड़ जमा थी। लेकिन मैंने पहले जिस कार्य से आया था उसे निबटाने की सोची और प्लैनेट एम में चला गया। वहाँ उनके पास उसी फ़िल्म की दूसरी डीवीडी नहीं थी, तो उतनी कीमत की मैंने दो फ़िल्मों की वीसीडी ले ली और बाहर आ पहली मंज़िल की बाल्कनी के मध्य में पहुँच गया यह देखने कि काहे का मज़मा लगा हुआ था।

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बदलता समय ..... बदलते स्वाद

आज करीब एक साल बाद जामा मस्जिद के पास स्थित करीम होटल में खाना खाने गया। मन ही मन करीम के तन्दूरी चिकन के बारे में सोच सोच लड्डू फूट रहे थे!! 😉 😀

रविवार और ठण्ड का मौसम होने के कारण अच्छी खासी भीड़ थी, लगभग 20 मिनट प्रतीक्षा करने के बाद टेबल मिली। थोड़ी और प्रतीक्षा के बाद लज़ीज़ तन्दूरी चिकन भी सामने था, लेकिन पहला निवाला मुँह में लेते ही सारा मज़ा किरकिरा हो गया। करीम होटल के स्वादिष्ट खाने की जो लज़ीज़ यादें मन में बसी थी वो सारी की सारी धराशाई हो गई। मैंने कई जगह तन्दूरी चिकन खाया है, कहीं अच्छा तो कहीं बेकार, लेकिन इतना बेस्वाद कहीं नहीं खाया था अभी तक। समय के साथ बदलाव आते हैं लेकिन क्या स्वाद बढ़िया से घटिया और बद्‍ से बद्तर हो जाता है?

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वर्डप्रैस.कॉम का नया चेहरा

वर्डप्रैस डॉट कॉम के गृहपृष्ठ पर नया मेकअप लगा उसे मेकओवर दिया गया है, अब वह पहले की तरह फ़ीका नहीं लगता वरन्‌ उसमे भी एक ब्लॉग पोर्टल जैसी छवि आ रही है।

ये वर्डप्रैस वाले लोग नए नए जुगाड़ में लगे रहते हैं, इसको प्रयोग करने वालों की तादाद दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है, कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि यह कोई बहुत बड़ी और बड़े लाभ वाली साइट बन जाए तो। 🙂

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कैरिबियन के समुद्री डाकू.....

On 12, Dec 2006 | 7 Comments | In Movies, फ़िल्में | By amit

पॉयरेट्स ऑफ़ द कैरिबियन – द कर्स ऑफ़ द ब्लैक पर्ल” (कैरिबियन के समुद्री डाकू – काले मोती का शाप) फ़िल्म जब आई थी तब देखी थी, फ़िल्म उस समय आने वाली फ़िल्मों से थोड़ा अलग हटकर थी, सही भी थी। लेकिन उसके अगले भाग की आशा नहीं थी। परन्तु उसका अगला भाग “पॉयरेट्स ऑफ़ द कैरिबियन – डैड मैन्स चैस्ट” (कैरिबियन के समुद्री डाकू – मुर्दे का संदूक) कुछ महीने पूर्व रिलीज हो गया और सुना लोगों ने इस फ़िल्म को भी पसंद किया। अब उस समय मैं फ़िल्म देखने नहीं जा सका, तो अभी हाल ही में जब इसकी सीडी बाज़ार में आई मैंने तुरंत खरीद ली। परन्तु व्यस्तता के चलते उसे भी उसी समय नहीं देख पाया। परन्तु आज जब कंप्यूटर में क्रिएटिव का साउंड कार्ड लग गया तो सोचा कि आज देख ही डालते हैं, नए लिए क्रिएटिव के 4.1 स्पीकर सिस्टम पर आवाज़ भी जबरदस्त आएगी। 😀

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सुबह सवेरे असोला में

On 04, Dec 2006 | 4 Comments | In Wanderer, घुमक्कड़ | By amit

कल रविवार को सुबह असोला भट्टी वन्य जीव संरक्षण स्थान या wildlife sanctuary में जाने का पिरोगराम था। तो सुबह सुबह तड़के यानि कि सवा छह बजे अंधेरे में ही अपनी मोटरसाइकल पर मैं निकल लिया संतोष के घर की ओर। वैसे तो सात बजे संतोष के घर से निकलने का पिरोगराम था परन्तु जब पौने सात बजे मैं संतोष के घर पहुँचा तो महाशय अभी सोकर भी नहीं उठे थे। कई घंटियाँ बजाने पर वो नींद में डूबे द्वार खोलने आए, मेरे को स्वागत कक्ष में बिठा तैयार होने गए, अपन टीवी खोल खामखा की खबरें देखने लगे। थोड़ी देर बाद पता चला स्निग्धा भी अभी अभी सोकर उठी है और इधर संजुक्ता का कोई पता नहीं था जबकि मेरे को पिछले दिन फ़ोन पर चेतावनी दी गई थी कि मैं समय पर सुबह पहुँच जाऊँ!! 😉 उधर मोन्टू का फ़ोन आया कि वो तैयार बैठा है और पूछ रहा है कि कब चलना है!! तौबा!!! लोग नहीं सुधरने वाले!! बहरहाल संतोष ने स्निग्धा को बोला कि संजुक्ता से अपने घर आने को बोले, हम लोग तो निकल रहे हैं। मैं और संतोष निकल पड़े अपनी अपनी मोटरसाइकलों पर, निकलने से पहले मोन्टू को पहुँचने को बोल दिया गया।

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कस्टर्ड जैसा जुआघर??

पहली बात, मैंने कस्टर्ड की बात क्यों कही? अब ऐसा नहीं है कि मुझे हर समय खाने पीने की बात ही सूझती है, लेकिन वो ऐसा है कि “royale” शब्द का अर्थ जानने के लिए मैंने गूगल से पूछा तो उत्तर मिला:

a thin custard cooled and cut into decorative shapes. Used to garnish soups primarily.

अब क्या करें, अपनी तो कोई गलती नहीं है ना इसमे!! 😉

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साइबर संबन्ध - लाभ और हानि?

बस अभी अभी थोड़ी देर पहले इंडिया टीवी के स्टूडियो से वापस लौटा हूँ। क्यों? अरे अनायस ही अपने नीरज भाई को सायं करीब सात बजे मेरी याद आ गई, बोले कि रात बारह बजे एक प्रोग्राम ज़िन्दा प्रसारित होगा, मतलब लाइव प्रसारित होगा और उसमे क्या मैं आ सकता हूँ। उन्होंने बताया कि इंटरनेट पर लोगों के बनते संबन्धों और उनकी खूबियों तथा खामियों पर चर्चा होगी, मेरे साथ दो-तीन और एक्सपर्ट होंगे जो कि चर्चा करेंगे, बोले तो अपनी विशेषज्ञ वाली राय देंगे। अपने को विशेषज्ञ करार दिए जाते ही अपन तो फूल के कुप्पा हो गए, और जब यह पत चला कि भले लोग एक गाड़ी सेवा में लगा देंगे जो लेने भी आ जाएगी और छोड़ भी जाएगी तो फ़िर क्या था, अपन तैयार हो गए। लेकिन जैसे कि किसी साक्षात्कार में कहा जाता है कि आपको कुछ समय बाद कन्फ़र्म किया जाएगा तो उसी तरह नीरज भाई ने कहा कि पक्का करके वो थोड़ी देर में बताएँगे। तो थोड़ी देर बाद फ़ुनवा बजा और नीरज भाई बोले कि हमारा सेलेक्शन हो गया है। 😉

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दोषी .....

हाँ, तो पिछली बार एक कहानी प्रस्तुत की और पूछा कि “दोषी कौन है”। अब कुछ बंधुओं ने उत्तर देने का प्रयास किया, लेकिन बहुत से उत्तर देने से कतरा गए। काहे? अब यह तो मुझे नहीं पता, उन्हीं से पूछा जाए तो बताएँगे ना!! 😉 बहरहाल, उत्तर हम बताए देते हैं कि दोषी कौन है, लेकिन कुछ डिटेल आदि देना इस विषय में आवश्यक है। तो पहले कहानी में मौजूद या चर्चित पात्रों को एनालाइज़ कर लिया जाए!! 😉

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दोषी कौन ..... ??

अभी सोते सोते ख्याल आया, तुरंत कम्पयूटर चालू करा और उस ख्याल को ब्लॉग पर उतार रहा हूँ। ना….. ना….. कोई नया फ़ड्डा नहीं है, कोई नया विवाद नहीं है, बड़े ही काम की चीज़ है, एक लघु कथा और एक आसान प्रश्न है।

एक बार की बात है, एक ब्राह्मण कहीं दूर से पैदल चल कर आ रहा था। दोपहर का समय था और धूप तेज़ हो चली थी। पास ही उसे एक बग़ीचा दिखाई दिया और फ़लदार वृक्ष की छाँव में उसने कुछ देर आराम करने की सोची। अभी उसकी आँख लगी ही थी कि एक गाय उधर आ निकली और रंभाने लगी। ब्राह्मण के विश्राम में विघ्न पड़ा और उसकी निद्रा टूट गई। उसने तरह तरह की आवाज़ कर गाय को भगाने का बड़ा प्रयत्न किया लेकिन गाय वहीं विचरती रही और रंभाती भी रही। ब्राह्मण ने आव देखा न ताव, अपनी लाठी उठाई और निरीह गाय को बेदर्दी से पीटने लगा। आवेश में बह चुके ब्राह्मण का हाथ तब रूका जब उसने देखा कि गाय भूमि पर गिर पड़ी है और उसका रंभाना बन्द हो गया। तसल्ली हो जाने पर ब्राह्मण पेड़ के नीचे पुनः नींद के हवाले हो गया।

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भ्रमित है भ्रम .....

अस्वीकरण: यह लेख एकाध अन्य लेखों और वैसी मानसिकता रखने वालों को धरातल पर लाने का प्रयास है। इसमें आलोचना भी है, कटाक्ष भी है, और व्यंग्य भी है, लेकिन किसी का अपमान करने का इरादा नहीं है। यदि आप इस सबको सही भावना से नहीं ले सकते तो कृपया आगे नहीं पढ़ें। कोई भी असभ्य टिप्पणी तुरंत मिटा दी जाएगी। आपको सावधान कर दिया गया है, आगे जो हो उसके ज़िम्मेदार आप स्वयं हैं।

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