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मैं भारतीय.....

कहाँ से मैं आया, मेरा परिचय क्या?
कौन हूँ मैं, मेरी पहचान क्या?

हड़प्पा भी मैं, मोहनजोदारो भी मैं,
बसाई सिंधु की सत्ता मैंने,
आर्य भी मैं, आक्रांता भी मैं,
उजाड़ी सिंधु की गलियाँ भी मैंने,

धृतराष्ट्र भी मैं, विदुर भी मैं,
कंस भी मैं, रणछोड़ भी मैं,
वीभत्सु भी मैं, दानवीर भी मैं,
मैं शिखण्डी, भीष्म भी मैं,
द्रोण भी मैं, धृष्टद्युम्न भी मैं,
मैं ही अभिमन्यु, परीक्षित भी मैं,

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लेखन प्रतियोगिता में हारने के शर्तिया तरीके.....

किसी कॉन्टेस्ट अथवा प्रतियोगिता को कैसे जीतें, कैसे सफ़ल हों आदि प्रकार के लेख बहुतया मिल जाते हैं लेकिन किसी प्रतियोगिता आदि को हारें कैसे, किसी कॉन्टेस्ट इत्यादि में असफ़ल कैसे हों इस तरह के लेख प्रायः नहीं मिलते। क्यों? क्योंकि इंसानी प्रवृत्ति सफ़लता ही पाना चाहती है इसलिए सफ़ल होने के नुस्खे, रामबाण तरीके ही जानने को व्यक्ति उत्सुक रहता है। वह सोच विचार के कभी यह नहीं जानना चाहता कि किसी प्रतियोगिता में असफ़ल कैसे हो सकते हैं ताकि उन गलतियों को स्वयं न दोहराए। सफ़लता प्राप्त करने वाले नुस्खों से सफ़लता मिलती है या नहीं यह तो मुझे नहीं पता लेकिन असफ़लता प्राप्त करने के इन नुस्खों को आज़मा के असफ़लता अवश्य मिलेगी यह गारंटी है! 😀

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द फ़ेलिंग सोसायटी

हमारा समाज किस ओर जा रहा है? व्यक्तिगत तौर पर हम किस गहरे गड्ढे में गिर रहे हैं? प्रायः इन विषयों पर मेरा ध्यान नहीं जाता, क्योंकि मैंने इस तरह के विषयों पर सोचना और ध्यान देना छोड़ कर पूर्णतया कन्ज़मप्शन और कनज़्यूमरिस्ट रवैया अपना लिया है, खाओ पियो और ऐश करो, क्यों बेकार में फालतू चीज़ों के बारे में सोच के अपना दिमाग खराब करना! लेकिन कभी-२ यह सेल्फ़ इनफ्लिक्टिड नशा कम होता है, मनस पटल पर छाई धुंध में कमी आती है (ईंधन बहुत महंगा हो गया है आजकल, हर समय जेनरेटर नहीं चला सकते), दिमाग मानों जागने का प्रयास करता है और फिलॉसोफिकल सेक्टर रीबूट होता है, कुछ पलों के लिए सुषुप्तवस्था में लीन इस भाग में इलेक्ट्रॉन प्रवाह आरंभ होता है और विचार अपनी लेजेन्डरी मन की गति से प्रवाहित होते हैं।

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लद्दाख क्रॉनिकल्स - भाग ३

On 18, Jun 2012 | 7 Comments | In Wanderer, घुमक्कड़ | By amit

पिछले अंक से आगे …..

रात और गहराई तो ठण्ड बढ़ी। कुछ देर ऐसे ही लेटा रहा, जैकेट में लिपटा और दो रजाईयों के नीचे दबा हुआ। दरअसल समस्या ये है कि भीषण गर्मी तो मैं झेल लेता हूँ लेकिन ठण्ड अधिक नहीं झेली जाती। लेकिन अब ठण्ड लग रही थी काफ़ी, जैकेट और दो रजाईयाँ ना-काफ़ी थी। घड़ी में देखा तो उसने तंबू के अंदर का तापमान आधा डिग्री सेल्सियस बताया, यानि कि बाहर यकीनन शून्य से नीचे तापमान था। खैर, अपन उठे, दो लौंग दांतों के बीच दबाई, थोड़ी गर्माहट महसूस हुई और फिर से रजाई में घुस गए कि किसी तरह रात कट जाए, अगले दिन सुबह तो निकल लेना है यहाँ से।

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समीक्षा: ज़ोमैटो रेस्तरां गाइड २०१२

फूड गाइड (Food Guide), रेस्तरां गाइड (Restaurant Guide), ईटिंग आऊट गाइड (Eating Out Guide) आदि आजकल काफ़ी मिल जाती हैं, खास तौर से यदि आप दिल्ली या मुम्बई जैसे शहर में हैं। हर गाइड में उनके अपने हिसाब से भिन्न-२ श्रेणियों में भिन्न-२ रेस्तराओं की सूचि होती है, चाहे फिर वह चीनी हो या जापानी, कॉन्टीनेन्टल योरोपियन हो या इटैलियन, फ्रेन्च हो या लेबनीज़। लेकिन इन सभी संदर्शिकाओं में मैंने एक बात यह देखी है कि बहुतया बेकार फालतू रेस्तराओं को अच्छे अंक मिले हुए होते हैं, जहाँ खाना औसत या निम्न स्तर की गुणवत्ता का है वहाँ उसको उत्तम बताया गया होता है। कारण? पता नहीं, बहुत से संभावित कारण हैं। चूंकि इन संदर्शिकाओं को छापने वाले प्रकाशकों के अपने मापदण्ड होते हैं इसलिए हमे नहीं पता कि किन मापदण्डों पर प्रकाशित रेस्तराओं आदि को आंका गया। लेकिन अब एक अलग ही प्रकार की संदर्शिका आई है जो क्राऊडसोर्सिंग पर आधारित है।

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लद्दाख क्रॉनिकल्स - भाग २

On 02, Jun 2012 | 5 Comments | In Wanderer, घुमक्कड़ | By amit

पिछले अंक से आगे …..

तो बिस्कुट, नमकीन, जूस आदि का पर्याप्त स्टॉक लेकर हम वापस होटल आ गए। पांगोंग सो (Pangong Tso) जाने के लिए आवश्यक आज्ञापत्र बनकर आ गए थे। यह लेह में ही बनते हैं और जाते समय दो जगह पर सेना वालों द्वारा जाँचे जाते हैं। यदि आप भारतीय नागरिक हैं तो इनको बनवाना झंझट वाला काम नहीं है, प्रत्येक (परमिट की चाह रखने वाले) व्यक्ति को अपना भारतीय सरकार द्वारा जारी ओरिजनल पहचान पत्र देना होता है (वोटर आईडी, पासपोर्ट, सरकारी महकमे का पहचान पत्र आदि) जिस पर फोटो और पता आदि दर्ज हो। आप जिस भी होटल में ठहरेंगे वे लोग यह बनवा देते हैं, स्वयं परमिट वाले दफ़्तर के धक्के खाने की आवश्यकता नहीं होती।

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